बहुत दिनों बाद एक बढ़िया और काम का इंटरव्यू देखा। ‘सत्य हिंदी’ पर इतिहास के विख्यात प्रोफेसर इश्तियाक अहमद से विद्वान लेखक और पुलिस महकमे के आला अफसर रहे विभूति नारायण राय का लिया इंटरव्यू। विभाजन , इस्लाम का भारत में विस्तार, उस समाज के अंतर्विरोध, रिजर्वेशंस और समाज के विकास की दौड़ में उनका पिछड़ना जैसे महत्वपूर्ण बिंदु जिन पर खुल कर हमेशा कम ही बात होती है। आज का समाज जैसे एक दुधारी तलवार पर खड़ा है। मुसलमान एक मुद्दा बनाया गया है। विद्वेष की राजनीति का फलदायी मुद्दा है। क्यों है ऐसा कि इस्लाम का होना सारी दुनिया की नजर में समानांतर रूप से एक चिंता और द्वंद्व का कारण बना हुआ है। इस्लाम और इस्लाम का विकास एक वृहद प्रश्न है।भारतीय समाज में तो जैसे यह एक ऐसे नासूर का भांति है जो जब तब निकल कर बाहर आ ही जाता है। सत्ताएं अपने स्वार्थ के लिए इसे लाभ के खेल से ज्यादा कुछ नहीं मानती। और अब तो एक ऐसी सत्ता केंद्र में है जिसका वजूद ही ‘इस्लाम से हिंदू खतरे में है’, जैसा वितंडा पैदा करने का रहा है।
तो इस्लाम क्या है। इसका भारत में आगमन और फैलाव की गाथा क्या और कैसी है। और हिंदू – मुस्लिम के बीच रिश्ते और तनाव कैसे हैं। इन पर मैं समझता हूं प्रो. इश्तियाक अहमद से बेहतर शायद ही कोई बता पाए। उनकी दो किताबें ‘जिन्ना’ और दूसरी का नाम दिमाग से उतर रहा है, दोनों मोटे ग्रंथ जैसी हैं, जिन्हें राय साहब ने दिखाया। इश्तियाक अहमद बताते हैं कि एक दौर ऐसा भी था जब हिंदुओं और मुसलमानों के बाहरी रिश्ते तो मधुर थे लेकिन हिंदू मुसलमानों को मलेच्छ समझते थे। इसलिए उनके घर का खाना नहीं खाया जाता था।
इस बात से याद आया कि हमारे बचपन में भी हमारी मां अकसर मुसलमानों को मलेच्छ कहा करती थीं। मेरा पूजापाठ और कर्मकांडों में कोई विश्वास कभी नहीं रहा। मैं मंदिर भी अपने जीवन में कभी नहीं गया, जबकि हमारा परिवार घोर धार्मिक और कर्मकांडी था। इसलिए मां अकसर मुझे ‘मलेच्छ, मुसलमान कहीं का’ कह कर संबोधित करती थीं। तब मैं कभी समझ नहीं पाया कि मुसलमान मलेच्छ कैसे हैं। मेरठ तो वैसे भी मुस्लिम आबादी से काफी घना है। हां, एक लम्हा याद है। साठ पैंसठ का साल रहा होगा। विभाजन की त्रासदी की चिंगारियां बुझी नहीं थीं। अकसर दंगे होते रहते थे। मैंने स्वयं देखा एक व्यक्ति को दौड़ते और उसके पीछे दो मुस्लिम युवक सफेद टोपी में। दोनों ने उस एक शख्स को दीवार से सटाया और धड़ाधड़ चाकुओं के वार से उसे लहू लुहान करके भाग खड़े हुए। मैं बच्चा था। मेरे और उनके बीच मेरठ का मशहूर गंदा नाला जिसे ‘अबू का नाला’ कहते हैं, था।
वह दृश्य आज तक जाता नहीं आंखों से। यह विद्वेष और यह खूनखराबा हमारे समूचे समाज में पसरा हुआ है। इसीलिए असंख्य मोदी विरोधी लोगों में कहीं न कहीं भीतर ही भीतर मुस्लिम विरोध की धारा बहती है। और यह सत्ता इस बात को बखूबी समझती है। इसका कारण और विस्तार से प्रो. इश्तियाक अहमद बता सकते हैं। उन्होंने यह अवश्य बताया कि मुस्लिम समाज स्वयं अपने ही तंज नजरिये के कारण समाज की दौड़ से पिछड़ता रहा है। लेकिन जब यही समाज एक हो जाता है तो बहुसंख्य समाज में खुद को बदल लेता है। यही इनकी दिक्कत भी है। मुझे लगता है कि इस इंटरव्यू का विस्तार होना चाहिए और पूरा फोकस मुस्लिम समाज द्वारा बनते बिगड़ते रिश्तों पर होना चाहिए। कौन सी चीजें हैं जो मुस्लिम समाज के आगे बढ़ने में व्यवधान पैदा करती हैं।
अगर इस मानसिकता में बदलाव नहीं लाया गया तो क्या सत्ताएं मुस्लिम समाज को दोयम दर्जे के समाज में बदलने में कामयाब होंगी और क्या मुसलमानों को यह कुबूल होगा ? यह अहम प्रश्न है। मुसलमानों के अंदरूनी हालात पर बनी कमेटी की सिफारिशें क्यूं अधर में लटकी हैं। भारत में और दुनिया के हर मुल्क में मुस्लिम समाज वर्गों में बंटा है। एक वर्ग समृद्ध और खाता पीता वर्ग है और दूसरा जहालत झेलता और संकीर्ण सोच में डूबता उतराता। हम चाहेंगे कि ‘सत्य हिंदी’ इन प्रश्नों को आगे बढ़ाए। राय साहब को इस इंटरव्यू के लिए बधाई।
आरफा खानम शेरवानी कोविड की लड़ाई से उबर कर लौट आईं हैं। उन्होंने आते ही एक काम बहुत अच्छा किया कि कोविड से अपने संघर्ष की गाथा पर वीडियो बनाया और उस डाक्टर से इंटरव्यू किया जिन्होंने उनका ईलाज किया था। आश्चर्यजनक है कि मात्र दो गोलियों से यह लड़ाई जीती गयी। सबसे बड़ी बात जो डाक्टर ने बतायी कि किसी भी डाक्टर का सबसे पहला काम होता है कि मरीज की ‘इम्युनिटी’ को बरकरार रखे और उसे निरंतर बढ़ाए। दूसरी जगहों पर शुरू में ही ‘स्टीयरायड’ देकर मरीज से खिलवाड़ किया जाता है। यह इंटरव्यू हर किसी को देखना चाहिए।
हर रविवार को अभय कुमार दुबे का ‘लाउड इंडिया शो’ का इंतजार रहता है। पिछले रविवार को संतोष भारतीय के साथ बात करते हुए अभय जी ने बंगाल के राज्यपाल की भूमिका पर मजेदार विश्लेषण किया। संतोष जी ने अभय जी से अनुबंध करके महती कार्य किया है। अभय जी केवल भद्रलोक की कोटर में रहने वाले प्राणी नहीं हैं। वे विभिन्न ऐसे चैनलों पर भी जाते हैं जिनसे हमें परहेज़ हो सकता है। इसी तरह आशुतोष भी हर चैनल पर जाते आते रहते हैं। अभय जी तो स्कालर हैं। इसलिए उन्हें सुनना अच्छा लगता है। देश के ‘क्राइसिस’ पर हर दिन संतोष जी अशोक वानखेड़े से बात करते हैं। अशोक वानखेड़े पत्रकार अच्छे हो सकते हैं लेकिन समझ और विषयों की गम्भीरता और गहराई उनमें नहीं है। वे चटकारेदार बात कर सकते हैं और गोदी मीडिया सिवाल दर्शकों को उनमें मजा भी आएगा। लेकिन गम्भीर सुनने वालों के लिए कुछ नहीं है।
रवीश कुमार ने अपना समां बांधा हुआ है। कल रवीश ने उप्र के पंचायत चुनावों के दौरान कोरोना से मारे गये शिक्षकों पर अपना कार्यक्रम फोकस किया। जरूरी था इसलिए कि एक तो मध्यवर्ग रवीश से इन दिनों ज्यादा उम्मीद रखता है। रवीश ने पिछले सालों में कितनी ही सीरीज की हैं और सबका बहुत गहरा असर हुआ है। बरक्स गोदी मीडिया इससे रवीश ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं। दूसरा यह कार्यक्रम योगी सरकार की नंगई और बेहयाई को सामने लाया। जहां लगभग डेढ़ हजार तक शिक्षकों की मौतें हुईं वही योगी सरकार का आंकड़ा है मात्र तीन। इस सच को सामने लाने वाला कौन है ? ऐसे कार्यक्रम पुण्य प्रसून वाजपेयी भी करते हैं।
दिल्ली में पोस्टर मुद्दे पर जिस दिन गिरफ्तारियां हुईं उस पर पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग सुनने लायक था। हम इसी समानांतर मीडिया से अब उम्मीद रख सकते हैं। मोदी सरकार हर दिशा में नंगी हो चुकी है। अब इस सरकार के तन पर कोई कपड़ा नहीं फबता। न ही उससे कुछ छुप सकता है। रोजाना मोदी की लोकप्रियता पर तरह तरह की खबरें सुनने को मिलती हैं। जिस दिन असंगठित क्षेत्र के व्यक्ति को समझ आ जाएगा कि सारी समस्याओं की जड़ यह सरकार है उस दिन कोई ताकत इस सरकार को गिरने से नहीं रोक सकती। इंतज़ार कीजिए।