डॉ। पंकज श्रीवास्तव
रिपब्लिक के जम्मू-कश्मीर ब्यूरो चीफ़ तेजिंदर सिंह सोढ़ी ने इस्तीफ़ा देते हुए जो कुछ लिखा है, उससे अर्णब गोस्वामी टाइप पैशाचिक पत्रकारिता के अंत:पुर के अँधेरे का पता चलता है….
सोढ़ी लिखते हैं-
“एक सुबह मुझे डेस्क से किसी का फोन आया (मैं उस “किसी” का नाम नहीं लूँगा क्यूंकि उनका अर्णब ने इतना उत्पीड़न किया कि दफ्तर में बैठे-बैठे उन्हें भयानक दिल का दौरा पड़ गया) और मुझसे कहा कि मैं सुनंदा पुष्कर के घर के पास छुप जाऊं और सही वक्त पर वो मुझे बताएंगे कि क्या करना है.
छुपना क्यूं है ? वे अपने स्टाफ पर कभी भरोसा नहीं करते थे, इसलिए आखिरी क्षण तक कुछ नहीं बताया जाता था. मैं उस घर पर गया और अचानक मुझे घर में घुसने को कहा गया और माइक सुश्री पुष्कर के वयोवृद्ध पिता के मुंह पर लगा कर, उनसे जबरन यह कहलवाने को कहा गया कि उनकी बेटी की हत्या के लिए शशि थरूर जिम्मेदार हैं, मैंने कोशिश की पर जब मैंने उनके वृद्ध पिता को देखा, मेरे आंसू आ गए, मैं कमजोर पड़ गया, मेरी मनस्थिति स्थिर नहीं रह पाई, मैंने डेस्क को बताया पर उन्होंने मुझे कहा कि अर्णब मुझ से बेहद नाराज़ हैं और वो चाहते हैं कि पिता से कैमरे पर यह कहलवाया जाये कि थरूर ने उनकी बेटी को मारा है.
मैंने ऐसा करने से इंकार कर दिया और वहाँ से चलाया आया, हाँ एक नौकर से मैंने जरूर बात की, जिसने थरूर और सुश्री पुष्कर के रिश्ते के बारे में अच्छी बातें कही पर वे कभी प्रसारित नहीं हुई.
अगले दिन अर्णब ने मुझे बुलाया और मुझ पर बेइंतहा चिल्लाये, उन्होंने मुझसे कहा कि सुश्री पुष्कर के पिता को कैमरे पर थरूर पर आरोप लगाता न दिखा कर, मैंने उन्हें निराश किया है.
यह तो वह पत्रकारिता नहीं थी, जिसके लिए मैं रिपब्लिक में आया था, संवाददाताओं को अर्णब की ओर से लोगों पर हमलावर होने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था.
उत्तर प्रदेश के एक संवाददाता को तत्कालीन मुख्यमंत्री का पीछा करने का दृश्य लाने को कहा गया, जब वो नहीं कर सका तो उससे कहा गया कि वह मुख्यमंत्री के घर की दीवार फांद कर ऐसा करे. उसने कहा कि सुरक्षाकर्मी उसे गोली मार देंगे; अर्णब की पत्नी ने उसपर फिर भी ऐसा करने के लिए दबाव बनाया तो उसने अगले दिन इस्तीफा दे दिया.
जैसे-जैसे पैसा और ताकत आती गयी, अर्णब की हेकड़ी बढ़ती गयी और जैसे वो टीवी पर किसी की नहीं सुनते थे, वैसे ही वो अपने स्टाफ की भी नहीं सुनते थे. उन्होंने, उनको अपमानित करना, उन पर चिल्लाना, गाली देना और यहाँ तक की मारपीट तक शुरू कर दी.
वे लोग जो अपने अच्छी स्थापित और अच्छे वेतन वाली नौकरियाँ छोड़ कर ऐसे वक्त वक्त में उनके साथ आए थे जब रिपब्लिक का न कोई वर्तमान था, न भविष्य, उन सब ने उन्हें छोड़ना शुरू किया, कुछ ने इसलिए छोड़ा क्यूंकि उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जा रहा था और कुछ ने इसलिए छोड़ा क्यूंकि उन्हें महसूस हुआ कि यह पत्रकारिता नहीं है जो वे यहाँ कर रहे हैं.
धीरे-धीरे सब ने छोड़ना शुरू कर दिया, पहले उत्तर प्रदेश के रिपोर्टर ने छोड़ा, उसके बाद मध्य प्रदेश, फिर पश्चिम बंगाल, राजस्थान, चंडीगढ़, बंगलुरु और हर ब्यूरो ने संपादकीय नीतियों के चलते इस्तीफा दे दिया.
जब मैं उनसे बात करता हूँ कि वे कहते हैं कि वे रिपब्लिक में वास्तविक पत्रकारिता करने आए थे, ना कि किसी राजनीतिक पार्टी की कठपुतली बनने के लिए और ना ही उन पर चोट करने के लिए जो उस राजनीतिक पार्टी से सहमत नहीं हैं.
उन सब ने महसूस किया कि अर्णब अपने पुराने नियोक्ताओं और पुराने सहकर्मियों तथा हर उस व्यक्ति से जो उनके चिल्लाने के अस्त्र से असहमति रखता है, अपने व्यक्तिगत झगड़े निपटाने के लिए अपने दो चैनलों का उपयोग कर रहे हैं.
लगभग सब प्रमुख एंकरों ने रिपब्लिक छोड़ दिया, हमें अभी भी याद है कि कैसे एक बेहतरीन एंकर को अपमानित करके घसीटते हुए स्टूडियो के बाहर धकेल दिया गया और वह वापस नहीं आया.”
जब भारत में ‘भारत’ की वापसी होगी तो यह पत्र मीडिया के पतन का दस्तावेज़ माना जायेगा। पत्र पूरा पढ़ने के लिए आपको कमेंट सेक्शन के लिंक में जाना होगा। यहाँ लिंक पोस्ट करने पर फ़ेसबुक विस्तार में ब्रेक लगा देता है।
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