महान साहित्यकार प्रेमचंद जी के एक ऐतिहासिक वक्तव्य का एक अंश बिजली की तरह हमारी रगों में कौंधता रहता है और हमें रचनात्मक दायित्व का निर्वहन करने हेतु प्रेरित करता है।
प्रेमचंद जी ने कहा था ,
हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा ,जिसमे उच्च चिंतन हो ,स्वाधीनता का भाव हो ,सौंदर्य का सार हो ,सृजन की आत्मा हो ,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो , जो हममें गति पैदा करें , सुलाये नहीं ,क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।
लखनऊ में वर्ष 1936 में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में प्रेमचंद जी का यह अध्यक्षीय वक्तव्य साहित्यकारों के लिए महान संदेश है । मानवीय मूल्यों ,स्वाधीनता ,मेहनतकशों के हित ,सामाजिक न्याय के पक्षधर प्रेमचंद जी ने जिस तरह साम्राज्यवाद ,पूंजीवाद ,सांप्रदायिकता ,कट्टर पंथ ,जातिवाद ,वर्ण व्यवस्था ,छुआछूत ,भेदभाव का प्रतिरोध कर अपने संपादकीयों ,लेखों ,निबंधों ,कहानियों , उपन्यासों के माध्यम से जन शिक्षण किया और समाज तथा राजनीति के आगे साहित्य की मशाल लेकर चले ,वह महान आदर्श हमें वैचारिक आधार पर प्रेमचंद जी से जोड़ते हैं । वैचारिक आधार पर हम प्रेमचंद के वंशज हैं ।इसलिए उनकी ही तरह साहित्य की मशाल लेकर चलना ही होगा ।