सोशलिस्ट पार्टी, नैतिक पार्टी, ऐक्शन फॉर सोशल जस्टिस, रिहाई मंच समेत तकरीबन डेढ़ दर्जन सामाजिक-राजनीतिक संगठनों ने विभिन्न राजनीतिक दलों से पूछा है कि सरकारी वेतन पाने वाले जन प्रतिनिधियों, लोक सेवकों और न्यायाधीशों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर उनकी क्या राय है और आने वाले विधानसभा चुनाव में इसे वे अपने घोषणा-पत्र में शामिल करेंगे कि नहीं? उल्लेखनीय है कि 18 अगस्त 2015 को हाईकोर्ट ने सरकारी तनख्वाह पाने वाले, जन प्रतिनिधियों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों जैसे सरकार से लाभान्वित होने वाले लोगों के बच्चों को सरकारी विद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ाने के फैसले के क्रियान्वयन के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिए थे. यह व्यवस्था शैक्षणिक सत्र 2016-17 से लागू हो जानी चाहिए थी लेकिन सरकार ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा था कि जो सरकारी विद्यालयों का संचालन करते हैं वे ऐसे काबिल शिक्षकों का चयन क्यों नहीं करते ताकि सरकारी विद्यालयों का स्तर भी उन विद्यालयों जैसा हो जाए जिनमें उनके खुद के बच्चे पढ़ते हैं? चूंकि नौकरशाहों, राजनेताओं व अमीर लोगों के बच्चों को पढ़ाने के लिए अन्य विकल्प खुले हैं इसलिए किसी को भी परिषदीय विद्यालयों की गुणवत्ता के बारे में कोई चिंता नहीं. सरकार को प्रावधानों में बदलाव लाकर उपर्युक्त श्रेणी के लोगों को अपने बच्चों को परिषदीय प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने के लिए मजबूर करना चाहिए. न्यायाधीश ने इस तर्क को ही सिरे से खारिज कर दिया था कि लोगों का अपने बच्चों को अपने मन पसंद विद्यालय में पढ़ाने का अधिकार है.
देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं लागू हैं. पैसे वाले अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेज रहे हैं जहां बड़ा शुल्क लिया जाता है और जहां से निकलने के बाद बच्चा उच्च शिक्षा पूरी कर कहीं न कहीं नौकरी पा जाता है अथवा अपना कुछ काम शुरू कर सकता है. जिनके पास इन निजी विद्यालयों में पढ़ाने का पैसा नहीं वे अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजने के लिए अभिशप्त हैं, जहां बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है. इन विद्यालयों के बच्चे आगे चल कर नकल करके अपनी परीक्षा देने को मजबूर होते हैं. नतीजा यह होता है कि कक्षा आठ तक आते आते भारत के आधे बच्चे विद्यालय से बाहर हो जाते हैं या शिक्षा पूरी होने पर भी बेरोजगार रहते हैं. दुनिया में जहां भी शिक्षा का लोकव्यापीकरण हुआ है वह समान शिक्षा प्रणाली और पड़ोस के विद्यालय से ही सम्भव हुआ है जिसका संचालन सरकार के हाथ में रहा है.
सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की मांग है कि देश में चुनाव लड़ने व सरकारी नौकरी में आवेदन के लिए सरकारी विद्यालय से पढ़ा होना तथा उनके बच्चों का सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य शर्त हो. इसी तरह सरकारी वेतन पाने वालों व जन प्रतिनिधियों व उन पर आश्रित लोगों के लिए सरकारी चिकित्सालय में इलाज कराना भी अनिवार्य हो. ये संगठन शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में सभी निजी संस्थानों के सरकारीकरण के पक्ष में हैं जिससे सभी नागरिकों को शिक्षा व चिकित्सा का लाभ एक समान व मुफ्त मिल सके. सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के नेता संदीप पांडेय का कहना है कि यह संघर्ष देश के संसाधनों व सुविधाओं को अपने हक में कर लेने वाली व्यवस्था के खिलाफ है जो गरीबों को वंचित बना कर जीने के लिए मजबूर किए हुए है. संघर्ष में सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के साथ फ्यूचर ऑफ इंडिया, नैतिक पार्टी, राष्ट्रीय विकलांग पार्टी, जन अधिकार संघर्ष मोर्चा, नींव, शिक्षा का अधिकार अभियान, बेसिक शिक्षा मंच, नगर अभिभावक मंच, आशा परिवार, आस्था किरन, एक्शन फॉर सोशल जस्टिस, इंसानी बिरादरी, बालमंच, रिहाई मंच, रेड ब्रिगेड समेत कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संगठन शरीक हैं.
संदीप पांडेय ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार एक तरफ उच्च न्यायालय के फैसले की अनदेखी कर रही है तो दूसरी तरफ शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत दुर्बल वर्ग एवं अलाभित समूह के बच्चों को विभिन्न विद्यालय की शुरुआती कक्षाओं में 25 प्रतिशत आरक्षण के तहत बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा दाखिले के जो आदेश किए जा रहे हैं उनका पालन करवाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं ले रही. पूरी शासन-प्रशासन व्यवस्था गरीब बच्चों के हितों के खिलाफ खड़ी नजर आ रही है. इन बच्चों के माता पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. हाईकोर्ट ने भी अपने फैसले में साफ-साफ कहा है कि परिषदीय विद्यालयों को चलाने के जिम्मेदार लोग अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं, इसलिए उन्हें परिषदीय विद्यालयों की कोई चिंता ही नहीं. सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी खराब है कि कोई मजबूरी में ही अपने बच्चे को वहां पढ़ाता है. अभिभावकों को भी मालूम है कि सरकारी विद्यालय में पढ़ने के बाद बच्चों का कोई भविष्य नहीं है. इसलिए जैसे ही उन्हें यह विकल्प नज़र आया कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत वे अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में कक्षा 1 से 8 तक निःशुल्क पढ़ा सकते हैं, उन्होंने इसे चुन लिया. इस प्रकिया में बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां आवेदन कर उन विद्यालयों के विकल्प दिए जाते हैं जहां अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. बेसिक शिक्षा अधिकारी तय करता है कि बच्चा कहां पढ़ेगा. लेकिन निजी विद्यालय इस प्रावधान से बचने के लिए रास्ते खोज रहे हैं. जो बड़े शिक्षा मठाधीश हैं, वे खुल्लम-खुल्ला इसका विरोध कर रहे हैं.
संदीप पांडेय इसके उदाहरणस्वरूप लखनऊ के सबसे बड़े विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल का हवाला देते हैं जिसने अदालत जाकर वर्ष 2015 में बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा दाखिले के लिए अनुशंसित बच्चों का दाखिला देने से इन्कार करने का दुस्साहस किया. इस पर अदालत द्वारा सख्त रुख अपनाए जाने पर सिटी मांटेसरी के मालिक जगदीश गांधी को उन बच्चों को दाखिला देना पड़ा. इस वर्ष भी 18 बच्चों को कक्षा-1 और कुछ बच्चों को नर्सरी में दाखिला देने का आदेश है, लेकिन स्कूल प्रबंधन उन बच्चों को दाखिला नहीं दे रहा. संदीप पांडेय ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सिटी मांटेसरी स्कूल के मालिक जगदीश गांधी की पत्नी भारती गांधी को एक लाख रुपये नकद समेत रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार दिए जाने पर भी सवाल उठाया. संदीप ने कहा कि लखनऊ में सिटी मांटेसरी के अलावा नवयुग रेडियंस के मालिक सुधीर शंकर हलवासिया भी उन 15 बच्चों का अपने विद्यालय में दाखिला नहीं दे रहे, जिनके दाखिले का आदेश बेसिक शिक्षा अधिकारी की तरफ से जारी किया हुआ है. इसके अलावा एक्सॉन इंटर कालेज, विक्टोरिया गंज, ग्रीन वैली पब्लिक स्कूल, बंगला बाजार व कुछ अन्य विद्यालय भी शिक्षा के अधिकार के तहत निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत बच्चों को दाखिला देने को तैयार नहीं और सरकार को ठेंगा दिखा रहे हैं. यदि निजी विद्यालय सरकार की व्यवस्था की खुलेआम अवहेलना कर रहे हैं तो उत्तर प्रदेश सरकार को दिल्ली सरकार से सीख लेकर इन निजी विद्यालयों का सरकारीकरण कर देना चाहिए. अंततः शिक्षा की व्यवस्था 1968 के कोठारी आयोग की सिफारिश के तहत समान शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ही होनी चाहिए. इस दिशा में हाईकोर्ट का फैसला महत्वपूर्ण है कि जब अधिकारियों, नेताओं, न्यायाधीशों के बच्चे परिषदीय विद्यालयों में पढ़ेंगे तो इन विद्यालयों की गुणवत्ता सुधर जाएगी. जब सरकारी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा मिलेगी तो अभिभावक क्यों निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने में पैसा खर्च करेंगे. धीरे-धीरे निजी विद्यालयों की प्रासंगिकता समाप्त हो जाएगी और ये विद्यालय बंद होने लगेंगे अथवा इनका सरकारीकरण हो जाएगा.