कल मेरे एक मित्र ने बड़ी मजेदार बात कही। प्रबुद्ध हैं। एक्सप्रेस में भानु प्रताप वर्मा के लेखों को खूब पसंद करते हैं। सारे वेबसाइट्स पर आने वाले वीडियो, ब्लाग और चर्चाएं भी सुनते रहते हैं। लेकिन जिस तरह बीजेपी एक के बाद एक राज्य में जीत रही है, चाहे कैसे भी, वे सबसे ऊब रहे हैं। उनका कहना है कि बस एक रवीश कुमार है जिसे आप कहिए वह आपका ‘फेवरेट ब्रांड’ है। जैसे आप मार्केट जाते हैं तो अपने विश्वास वाले ब्रांड का ही सामान खरीदते हैं। बस वैसे ही इन वेबसाइट्स और ‘बोर’ चर्चाओं के बीच रवीश कुमार को खरीद सकते हैं। यह बात मजेदार लगी। देर तक हंसी आती रही।
एक महिला मित्र हैं उनसे फोन पर बात हो रही थी काफी देर से। मैंने कहा, चलिए नौ बजने वाले हैं रवीश को सुन लें। तो वे बोलीं, मैं भी यही कहने वाली थी। मैंने उत्सुकता से पूछा, मतलब। तो वे बोलीं, हम लोग भी (मैं, मेरे पति और बेटी) ठीक नौ बजे प्राइम टाइम देखने टीवी के सामने बैठ जाते हैं। मुझे लगा ब्रांड नेम सही है।
सच में आप देखिए ‘सत्य हिंदी’ पर क्या हो रहा है। कैसे कैसे विषयों के टापिक आ रहे हैं और घूम कर वही आशुतोष, आलोक जोशी, विजय त्रिवेदी, शीतल जी। यदा कदा बाहर के एक दो और। दिमागी शगल से ज्यादा क्या है ? प्रसून वाजपेयी कभी कभी बेहद उबाऊ। न्यूज क्लिक के कार्यक्रम जो सबको सब पता है। एक बुद्धिजीवी पत्रकार उन्हीं बातों को दोहराते हुए कहता है – ‘मुझे लगता है … ‘ आपको लगता है तो जनता क्या करे। और किसके लिए होते हैं ये कार्यक्रम जो आप जैसे ही हैं। चिंता कहीं दिखाई नहीं देती। अपूर्वानंद जरूर चिंतित नजर आते हैं। बंगाल की पृष्ठभूमि पर उन्होंने वहां के एक बुद्धिजीवी से बात की। लग रहा था। कहीं से आवाज उठी कि बीजेपी को हराने के लिए सबको एक प्लेटफार्म पर आना चाहिए। सीधा मतलब था क्या टीएमसी और वामपंथी पार्टियां भी। बात बहुत टेढ़ी है पर इस टेढ़ेपन में ही अपूर्वानंद कोई समाधान चाहते से लगे।
मेरे पिछले हफ्ते के लेख पर पत्रकार वीरेंद्र सेंगर ने टिप्पणी की है। वे लिखते हैं, ‘सर बिहार चुनाव का झटका निराशा की बात नहीं है क्योंकि बीजेपी को सारे धतकर्म से ही सत्ता मिलती है। मोदी सरकार की अति ही इसका अंत करेगी। राहुल गांधी के बारे में आपके आकलन से कुछ असहमत हूं। वे करिश्माई भले न हों, फ्राड पुरुष नहीं हैं। थोड़ी मेहनत करें तो बात बन सकती है। वे पप्पू नहीं हैं। पप्पू तो देश की जनता बना दी गई है। लोगों को यह समझने में देर लग रही है। मुझे लगता है कांग्रेस के बारे में आप कई बार ज्यादा कठोर हो जाते हैं। ‘
सेंगर जी मेरे फेसबुक पर मित्र भी हैं। लेकिन उन्होंने जो लिखा, ऐसा लग रहा है जैसे एक दिन आएगा और सब ठीक हो जाएगा। बस बैठे बैठे उस दिन का इंतजार कीजिए। सब जानते हैं बीजेपी धत् कर्म से ही जीत रही है। पर जीत रही है। और इसी धत् कर्म से बंगाल भी जीत गई तो आप क्या सोचते हैं गांव देहात के लोग धत् कर्म पर चिंतन, बहस और आकलन करेंगे। मुझे तो कभी कभी लगता है कि पचास साल की सत्ता का उनका शोषा शोषा नहीं सत्य है। क्योंकि मोदी एंड पार्टी ने चुन चुन कर जीतने की लिस्ट बनाई हुई है। और इस बार ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ है। जब गांव देहात के लोगों में भूसा राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और ‘विकल्प नहीं’ जैसा अमृत (उनकी नजर में) भर दिया गया है। तो आप क्या करेंगे।
पुण्य प्रसून वाजपेयी को सुनते जाएंगे। दुनिया भर के सच ही सच। मोदी को आप लोगों से कोई लेना देना नहीं है। कल ही शीतल पी सिंह राजू शर्मा से बात कर रहे थे। उन्होंने दो बातें कहीं एक तो मोदी की लोकप्रियता बरकरार है। भले उसका कोई पैमाना नहीं हो। दूसरा उन्होंने योगेन्द्र यादव जैसे लोगों पर चिंता जताई ये लोग जो कर सकते हैं। वे क्यों नहीं कर रहे। मैं स्वयं कई बार लिख चुका हूं। यादव, आप पार्टी, कांग्रेस का सेवा दल ये सब कहां हैं। देश के इलाकों में क्यों नहीं भ्रमण करते।
रही बात कांग्रेस और राहुल गांधी की तो और कितना समय मिलेगा उन्हें मेहनत करने के लिए। आशुतोष का तो सीधा यह कहना है कि जब तक राहुल गांधी के हाथ पांव नहीं टूटेंगे, जब तक सड़कों पर आकर वे आंदोलन नहीं करेंगे, जब तक धरना प्रदर्शन नहीं करेंगे तब तक राहुल गांधी अच्छे हैं इससे क्या होगा। होते रहे वे अच्छे। मैं और मेरी तरह बहुत से लोग न तो कांग्रेस पार्टी के हैं, न उसके समर्थक हैं लेकिन वे कांग्रेस पार्टी को इस तरह मरते हुए नहीं देखना चाहते। सेंगर जी को समझना होगा अगर ‘सत्य हिंदी’ के मुकेश कहते हैं कि राहुल गांधी ‘मेहमान कलाकार’ हैं। तो वे क्या गलत कहते हैं। बिहार चुनाव में लोगों ने सौ दो सौ रैलियां कीं ये मात्र आठ रैलियां करके चुनाव के बीच ही शिमला छुट्टी मनाने चले गये। मैंने संतोष भारतीय के कार्यक्रम की तारीफ की जो सेंगर जी को भी भायी। एक नया कार्यक्रम ‘हे मेरा नेता’ भी ‘लाऊड टीवी’ ने शुरू किया है। कल उसका पहला एपीसोड नीतीश कुमार पर था। अरविंद मोहन छाये रहे।
दरअसल मुझे तो कुछ इस प्रकार लग रहा है कि सब एक ऐसे पेड़ पर बात कर रहे हैं जो बहुत घातक है और अपनी जड़ें दिनोंदिन मजबूत कर रहा है। हम सब मिल कर पेड़ को उखाड़ने की जगह पेड़ पर जमकर बहस कर रहे हैं और पेड़ आप पर अट्टहास कर रहा है। लगता है किसी में माद्दा नहीं रह गया है पेड़ उखाड़ने का।
तो ऐसे में रवीश कुमार के ब्रांड नेम को पकड़ कर क्यों न चला जाए। कम से कम गांव देहात के नौजवान को तो समझ पल्ले पड़ ही रही है। नौजवान निराश है यह बात भी सेंगर जी ने लिखी। पर ऐसा तो नहीं कि मोदी में इस बात की समझ नहीं। जनता कब ऊबेगी इसका इंतजार करने की जगह सिर्फ चुनाव परिणाम देखिए। राज्यों के उप चुनावों के नतीजे भी आपके सामने हैं। बीजेपी ही बीजेपी छाई है। देश कैसे बचे,फालतू बहसों की बजाय इस पर चिंता कीजिए। आजकल नया शोषा ‘वेबिनार’ का चलन भी हो गया है। बुद्धिजीवी अपने दड़बे से बाहर कब निकलेगा। अपूर्वानंद जैसे लोग सोचें।
आशुतोष और साथी कह सकते हैं हमारी चर्चाएं व्यर्थ लगती हैं लेकिन उदाहरण आपने उन्हीं बहसों से दिए। जाहिर है किसी एक की कोई टिप्पणी काम की होती है। निरर्थक बहसों से भी सार्थक कभी कभी कुछ निकल ही आता है। बशर्ते कि उन्हें पूरा सुना जाए।