यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राम मंदिर विवाद सांप्रदायिक नहीं, राजनीतिक है. विभाजन की त्रासदी झेलने की बाद देश की आबोहवा में सांप्रदायिकता का ज़हर घुल चुका था. कांग्रेस के शीर्ष नेता जैसे पंडित नेहरू एवं महात्मा गांधी ज़रूर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की बात कर रहे थे. यह मुल्क धर्मनिरपेक्ष घोषित हुआ भी, लेकिन अयोध्या मुद्दे पर पंडित गोविंद वल्लभ पंत सहित तत्कालीन कांग्रेसी नेता एवं कार्यकर्ता धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास करने के लिए कतई तैयार नहीं थे. अब कम ही लोग जानते हैं कि आख़िर वे क्या कारण थे कि यह विवाद 22-23 दिसंबर, 1949 को ही क्यों आरंभ हुआ? वे कौन-सी परिस्थितियां थीं, जो इसमें सहयोगी बनीं? वे कौन लोग थे, जो इसमें नायक बने? अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने इसमें क्या भूमिका निभाई? 1947 में देश का विभाजन भयानक रक्तपात के बीच हुआ था. उन दिनों देश में सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था. फैजाबाद इन सबसे अछूता नहीं था और ख़ास तौर से इसलिए भी कि इसी ज़िले में अयोध्या स्थित थी, जिसमें पिछले सौ वर्षों के दौरान बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद को लेकर कई बार हिंसक घटनाएं भी हुई थीं.
आज़ादी के बाद काफी बड़ी संख्या में मुसलमान अवध से पाकिस्तान पलायन कर गए. सांप्रदायिक उन्माद के उस दौर में यह स्वाभाविक ही था कि हिंदुत्ववादी शक्तियों को लगा कि वह समय आ गया है, जब वे बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्मभूमि बना सकती हैं. सांप्रदायिक हिंदुओं का नेतृत्व करने वाली हिंदू महासभा कभी भी बहुत प्रभावी राजनीतिक शक्ति नहीं रही थी, किंतु कांग्रेस में ही ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जिन्हें उसका समानधर्मा कहा जा सकता था. शीर्ष पर गांधी-नेहरू का उदार धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नेतृत्व मौजूद था, लेकिन प्रदेशों में और ज़मीनी स्तर पर ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो अपनी सोच में हिंदू महासभा के नज़दीक खड़े होते थे. आज हम चुनावों में जिस बेशर्मी के साथ धार्मिक मुद्दों और प्रतीकों का इस्तेमाल देखते हैं, लगभग उसी तरह की स्थिति आज़ादी के फौरन बाद हुए चुनाव में भी दिखाई देती है. फैजाबाद चुनाव क्षेत्र में 1948 में हुए उपचुनाव में भी मंदिर का मुद्दा कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व ने प्रमुखता से उठाया.
आचार्य नरेंद्र देव, कांग्रेस और फैजाबाद उपचुनाव
देश की आज़ादी के फौरन बाद आचार्य नरेंद्र देव एवं उनके साथ 11 दूसरे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया और नैतिक आधार पर उत्तर प्रदेश विधानसभा भी छोड़ दी. ये सभी 11 सदस्य जून-जुलाई, 1948 में हुए उपचुनाव में खड़े हुए और गजाधर प्रसाद को छोड़कर अन्य सभी हार गए. कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि आचार्य नरेंद्र देव, जो फैजाबाद सीट से उपचुनाव लड़ रहे थे, जिसके अंतर्गत अयोध्या क्षेत्र भी आता था, को हराने के लिए कांग्रेस ने खुलकर राम जन्मभूमि का कार्ड खेला. उपचुनाव आरंभ हुआ, तो समस्या थी कि कांग्रेस सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक यानी कौन-सा चुनावी मुद्दा अपनाए, जिससे आचार्य जी से मुकाबला किया जा सके. कांग्रेस के रणनीतिकारों ने चुनाव के दौरान आचार्य नरेंद्र देव को अनास्थावादी, नास्तिक, बौद्ध मत का समर्थक और अयोध्या जैसी धार्मिक नगरी के मनोभावों एवं प्रचलित संस्कृति के अनुकूल न होना बताया. इस चुनाव क्षेत्र में अयोध्या-फैजाबाद नगरों के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र भी आता था. अयोध्या में यह मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया और आह्वान किया गया कि नास्तिक नरेंद्र देव को हराओ.
उनके विरुद्ध बाबा राघव दास नामक साधु को देवरिया ज़िले के बरहज कस्बे से उम्मीदवार के रूप में लाया गया. बाबा राघव दास पूना के चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे. प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1913 में गुरु के रूप में उन्हें परमहंस अनंत प्रभु मिले, जो देवरिया के बरहज कस्बे में सरयू के किनारे रहते थे. वहीं बाबा राघव दास ने सात वर्षों तक योग और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया और 1920 के असहयोग आंदोलन, जिसका मुख्य केंद्र गोरखपुर था, में शामिल हुए. बाद में वह गोरखपुर ज़िला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गए थे. बाबा राघव दास एक धार्मिक व्यक्ति ही नहीं, वरन् कई धार्मिक संस्थाओं से जुड़े भी थे. वह संस्कृत पाठशाला, ब्रह्मचर्य आश्रम और वेद विद्यालय भी संचालित करते थे. जिस चुनाव क्षेत्र में अयोध्या जैसा महत्वपूर्ण स्थल हो, जिसे भगवान राम की जन्मस्थली कहा जाता है, उसके लिए कांग्रेस के एक तबके द्वारा बाबा राघव दास को अनायास ही उपयुक्त उम्मीदवार नहीं माना गया. आचार्य नरेंद्र देव, जो समाजवादी रुझान के व्यक्ति थे, को आसानी से नास्तिक और धर्मविरोधी घोषित किया जा सकता था और यही किया भी गया. अयोध्या चुनाव में जो बैनर लगे, उनमें इसे राम-रावण की लड़ाई बताया गया.
आचार्य को पंत ने हरवाया
गोविंद वल्लभ पंत ने कांग्रेस प्रत्याशी बाबा राघव दास के समर्थन में अयोध्या के संतों-महंतों की सभाएं कीं, जिनमें उन्होंने कहा कि राघव दास में तो गांधी जी की आत्मा बसती है, लेकिन आचार्य नरेंद्र देव, जिनकी विद्वता का तो लोहा दुनिया भर में माना जाता है, पर वह नास्तिक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी? इस चुनाव में पुरुषोत्तम दास टंडन भी प्रचार में शामिल हुए. उन्होंने भी आचार्य जी की नास्तिकता और अयोध्या की मर्यादा का सवाल उठाया था.
आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ राम-रावण संवाद के नाम से ऐसे पर्चे बांटे गए, पोस्टर लगाए गए, जिनमें रावण रूपी नरेंद्र देव को हराने और राम रूपी बाबा राघव दास को जिताने का आह्वान किया गया था. आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ चुनाव का संचालन उत्तर प्रदेश के प्रीमियर पंडित गोविंद वल्लभ पंत कर रहे थे. उनके दूसरे सहयोगी थे लाल बहादुर शास्त्री, मोहन लाल गौतम, पुरुषोत्तम दास टंडन एवं ए. जी. खेर इत्यादि. जबकि कांग्रेस में रहते हुए भी चंद्रभानु गुप्ता, कमलापति त्रिपाठी, संपूर्णानंद, सुचेता कृपलानी एवं अलगू राय शास्त्री ने आचार्य नरेंद्र देव हराओ अभियान से स्वयं को अलग रखा. अयोध्या में महंतों एवं धार्मिक नेताओं की सभा में पंडित पंत ने यह भी आश्वासन दिया था कि उनके धार्मिक मनोभावों की रक्षा की जाएगी, उनके हिंदी प्रेम को ध्यान में रखा जाएगा, ज़मींदारी उन्मूलन से उनका ऩुकसान नहीं होगा और कांग्रेस हिंदी एवं उनकी प्राचीन सभ्यता की रक्षा करेगी. समाजवादी तो वास्तव में हिंदुस्तानी आधारित नागरी और फारसी लिपि के समर्थक हैं. जो कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं, वे देश के दुश्मन हैं.
आचार्य नरेंद्र देव अपने विरोधियों द्वारा किए जा रहे इन प्रचारों पर शांत रहे. चुनाव के बाद उन्होंने 20 मार्च, 1955 को लिखे गए लेख में अपनी आंतरिक व्यथा और कांग्रेस द्वारा उठाए गए इन प्रश्नों का जवाब दिया था कि कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए किन-किन हथकंडों और दुष्प्रचारों का उपयोग किया. उनका यह भी कहना था कि उन्हें हराने के लिए रामचंद्र के नाम का उपयोग करना गांधी जी की आत्मा के अनुकूल नहीं था. उन्होंने यह भी लिखा था कि कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं ने महिलाओं से कहा कि वे वोट न देने जाएं, उनका वोट मतपेटिका में डाल दिया जाएगा. नेशनल हेराल्ड के संपादक एम चेलापति राव ने भी आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ कीचड़ उछालने के प्रयत्नों का विरोध किया था.
फैजाबाद उपचुनाव प्रचार में धार्मिक उन्माद
चुनाव अभियान के लिए अयोध्या की अस्मिता बचाओ के नारे लगाने वाली टोलियां भी बनी थीं, जो खास तौर पर अयोध्या में सक्रिय थीं. देश विभाजन के दंश से गुजर रहा था और उत्तर प्रदेश राज्य का नाम तक नहीं तय हो पाया था. उसका नाम आर्यावर्त भी प्रस्तावित हुआ था. यह प्रस्ताव खासकर उन लोगों की ओर से था, जिन्हें हिंदू परंपरावादी बताया जाता था, जो प्रगतिशीलता और धर्म-समभाव पसंद नहीं करते थे. अयोध्या में धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए राम जन्मभूमि का मुद्दा, जो अर्से से शांत था, वह भी उठा. उस समय फैजाबाद में के. के. के. नैय्यर ज़िला मजिस्ट्रेट और गुरुदत्त सिंह सिटी मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन थे. इस उपचुनाव में आचार्य जी लगभग 1200 वोटों से हार गए, तो बाबा राघव दास की जीत पर नास्तिक हारा और बाबा राघव दास जीते के नारे भी लगे. स्थानीय अभिसूचना इकाई की रिपोर्ट के अनुसार, जीत के बाद महाराजा इंटर कालेज में जो सभा हुई, उसमें कहा गया कि तुर्कों ने राम मंदिर गिराकर मस्जिद बना दी है, वह हमें वापस चाहिए. बाबा राघव दास ने भी कहा कि कोई धार्मिक स्थल तोड़ा नहीं जाना चाहिए. यह तो अत्याचार की श्रेणी में आता है. उनके इस कथन को बाद में मस्जिद परिसर में मूर्ति रखने वालों ने अपने पक्ष में सहमति माना और यह भावना प्रबल हुई कि मस्जिद को ही अंतत: कुछ परिवर्तनों के साथ राम जन्मभूमि मंदिर बना दिया जाए. पंडित गोविंद वल्लभ पंत भी आचार्य जी की हार में अपने बड़े विरोधी का अवसान देख रहे थे. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विश्वंभर नाथ त्रिपाठी तो इसे अपनी नीतियों की विजय की संज्ञा दे
रहे थे.
कांग्रेस हाईकमान की पसंद आचार्य नरेंद्र देव थे
इस संदर्भ में यह उल्लेख भी आवश्यक होगा कि 1936 में संयुक्त प्रांत विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला था. यूपी के प्रीमियर पद के लिए पंडित नेहरू की पहली पसंद आचार्य नरेंद्र देव ही थे. उन्होंने कांग्रेस हाईकमान से भी यह निर्णय करा लिया था. यह तथ्य उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित-आचार्य नरेंद्र देव ग्रंथ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी द्वारा लिखी भूमिका में भी उल्लिखित है कि कांग्रेस हाईकमान ने आचार्य जी को प्रीमियर बनाने का प्रस्ताव भी किया था, लेकिन हाईकमान के प्रस्ताव के बावजूद आचार्य जी नहीं, बल्कि गोविंद वल्लभ पंत ही प्रीमियर बने थे. बताया जाता है कि वह स्वयं इस पद के लिए लालायित थे. हाईकमान की ओर से आचार्य जी से वार्ता और प्रीमियर पद के लिए राजी करने का दायित्व पंत जी को ही सौंपा गया था. उन्होंने पंडित नेहरू को बताया था कि आचार्य नरेंद्र देव जी से बात हुई, वह किसी भी क़ीमत पर प्रीमियर बनने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन, उस समय के समाजवादी नेता बाबू सर्वजीत लाल वर्मा बताते थे कि पंत जी ने इस संबंध में आचार्य जी से कभी कोई बात ही नहीं की थी. उनकी (पंत) समझदारी थी कि आचार्य जी जैसे पद के निर्लोभी व्यक्ति इस संबंध में कभी कोई इच्छा नहीं प्रकट करेंगे. जब वैकल्पिक नेतृत्व का सवाल उठेगा, तो वह ही सर्वमान्य नाम बनकर उभरेंगे. यही हुआ भी. अक्षय ब्रह्मचारी के शब्दों में, पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने उनकी चिट्ठी की पावती तो स्वीकार की, लेकिन चिट्ठी में उठाए गए प्रश्नों और मुद्दों पर कोई कार्रवाई नहीं की.
पंत ने नहीं मानी नेहरू और पटेल की बात
अलबत्ता, पंडित नेहरू स्वतंत्र भारत में इस प्रकार की गतिविधियों के विरोधी थे. यह महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू का ही नेतृत्व था, जिसने सांप्रदायिक उन्माद के दौर में भी देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने दिया और उसे एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाया. इस संबंध में पंडित नेहरू ने मुख्यमंत्री को फोन और टेलीग्राम से संदेश भी दिया था कि मूर्ति हटवा दी जाए. केंद्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी चिट्ठी लिखकर मूर्ति रखने को अनुचित बताया था. लेकिन, पंत जी ने नेहरू जी से कहा कि स्थितियां बड़ी खराब हैं. मूर्ति हटाने का प्रयत्न किया गया, तो भीड़ को नियंत्रित करना कठिन होगा. पंत ने इस बात का जिक्र भी किया कि जब उन्होंने ज़िलाधिकारी नैय्यर से फैजाबाद आने की इच्छा जाहिर की, तो ज़िला मजिस्ट्रेट का तुरंत जवाब आया कि वह वहां उनकी और उनके विमान की रक्षा प्रशासन द्वारा नहीं करा पाएंगे. पंत जी को यह सलाह दी गई कि वह फैजाबाद से 39 मील दूर अकबरपुर हवाई पट्टी पर आएं, जहां ज़िलाधिकारी अपने सहयोगियों के साथ उनसे मिलेंगे. पंत जी की यह यात्रा दिए गए सुझाव के अनुसार हुई भी, लेकिन अयोध्या में विवादित स्थल की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने सब जज बीर सिंह की अदालत में प्रार्थना-पत्र दिया कि रामभक्त होने के नाते उन्हें पूजा-पाठ की अनुमति दी जाए और मुसलमानों को निषेधाज्ञा जारी करके विवादित स्थल पर आने से रोक दिया जाए. उन्हें अस्थाई निषेधाज्ञा के रूप में यह अनुमति और प्रतिबंध का आदेश मिल भी गया.
खुद को देशभक्त साबित करने के लिए नहीं किया विरोध
भारत विभाजन और उससे जुड़ी सांप्रदायिकता की ज़हरीली आंधी में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को देशभक्त साबित करना होता था. उन्हें सदा यह भय लगा रहता था कि लोग उन्हें पाकिस्तानी न करार दें और सक्रिय होने पर कहीं उनकी हत्या न करा दें. इसलिए वे किसी भी तरह के प्रतिरोध से बचते थे. यही कारण था कि बाबरी मस्जिद के आसपास कब्रों को तोड़ने या मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने पर कोई प्रबल प्रतिरोध नहीं हुआ. पहला मुकदमा भी हिंदू पक्ष की ओर से ही दायर हुआ. हिंदुओं का नेतृत्व गोपाल सिंह विशारद कर रहे थे. मुसलमानों के मुकदमे की पैरवी के लिए कोई बड़ा मुसलमान वकील तैयार नहीं हुआ. फैजाबाद कचहरी में मुकदमे की पैरवी करने के लिए मुसलमान अनिवार्य रूप से जाते ज़रूर थे. तब उनके वकील रहमत साहब आदि हुआ करते थे. वही उनका पथ प्रदर्शन किया करते थे. कई प्रभावशाली मुस्लिम वकील इससे विलग थे, क्योंकि उन्हें हिंदुओं और प्रशासन का समर्थन खोने का डर था. यही कारण था कि जब कुर्क संपत्ति के स्वामित्व के निर्धारण का प्रश्न सिटी मजिस्ट्रेट के यहां चल रहा था, तब 21 मुसलमानों की ओर से बयान हल्फियां दाखिल कराई गई थीं कि यदि यह स्थान हिंदुओं को दे दिया जाए, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. बयान हल्फियां आम तौर पर फैजाबाद नगर पालिका एवं सरकारी दफ्तरों में कार्यरत कर्मचारियों के परिवारों या उन लोगों की थीं, जो हिंदू नेताओं के दबाव में थे.
महज एक मुकदमा मानकर ही हिंदुओं के पक्ष में प्रसिद्ध दीवानी वकील बाबू जगन्नाथ प्रसाद और निर्मोही अखाड़े की ओर से समाजवादी नेता सर्वजीत लाल वर्मा वकील बने थे. दिलचस्प तथ्य यह है कि मुकदमे के विभिन्न पक्षों में वाद-विवाद अदालतों में ही होता था. आने-जाने के दौरान घरों या सड़कों पर नहीं. वैसे तो जाब्ता फौजदारी की धारा 145 में कुर्की के बाद स्वामित्व निर्धारण के लिए यह मामला दीवानी अदालत को सौंप दिया गया था, लेकिन उसके बाद भी सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में 145 की कार्रवाई चलती रही थी. मुसलमानों की ओर से बयान हल्फी भी वहीं दाखिल की गई थी, न कि दीवानी अदालत में. यह बयान हल्फी अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कंडेय सिंह के समक्ष प्रस्तुत की गई थी. जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, रामलला के प्रकट होने के बाद 29 दिसंबर, 1949 को स्थानीय प्रशासन ने विवादित स्थल को धारा 145 के तहत कुर्क कर लिया और मूर्ति को भोग, राग, आरती आदि व्यवस्था के लिए प्रमुख रईस एवं नगर पालिका फैजाबाद के अध्यक्ष बाबू प्रियादत्त राम की नियुक्ति रिसीवर के रूप में कर दी. इस प्रकार स्थिति यह हो गई कि अब जब भी यह प्रसंग उठता, तो प्रशासन द्वारा जवाब दिया जाता कि यह मामला न्यायालय में लंबित यानी सबज्यूडिस है, इसलिए इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता.
राम मंदिर विवाद कांग्रेस ने पैदा किया
Adv from Sponsors