आज देश भर में रक्षाबंधन का पर्व बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जा रहा है। भाई- बहन के पवित्र रिश्ते का यह पर्व बेहद ख़ास होता है। इस दिन हर बहन अपने प्यारे भाई की कलाई पर राखी बांधती है और इसे एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है कि भाई अपनी बहन की रक्षा करेगा। मुझे कहने दीजिए कि यह प्रतीक बहुत पहले ही बदल देना चाहिए था। सच तो यह है कि वो बहनें ही हैं जिनकी दुआएँ भाई की रक्षा करती रही हैं। भाई उनकी रक्षा करेंगे यह कहकर कहीं न कहीं हम बहनों को कमजोर आँकने की गलती सदियों से करते आए हैं। आज के दिन दुनिया की सभी बहनों की कलाई पर स्नेह का एक धागा मेरा भी हो, ताकि उनकी दुआएँ यूं ही करती रहें हम भाइयों की रक्षा!
लिखने वालों ने कभी दीदी और बहन पर उस तरह से कलम नहीं चलाई जिस तरह से माँ, बेटी या महबूब पर लिखा है। आखिर बहनों के साथ यह भेदभाव क्यों? मैं समझता हूँ दीदी या बहन इस दुनिया का एक मात्र ऐसा रिश्ता है जहां कोई मोल-भाव नहीं होता। जहां कोई अपेक्षा नहीं रहती। बरसों बाद मिलने पर भी दीदी अपने भाई को उसकी पसंदीदा डिश खिलाना नहीं भूलती। कभी कोई शिकायत नहीं करती। महीनों बाद भी फोन करो तो यह ताना नहीं मारती कि तुम तो भूल ही गए? यह सब मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
इस दुनिया का हर वो भाई जिसकी एक भी दीदी हो, उसका बचपन एक राजकुमार की तरह ही गुज़रता है। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी अपनी सात दीदियां हैं और एक छोटी बहन भी। यक़ीनन मेरा बचपन दीदीयों की छाँव में एक राजकुमार की तरह ही गुज़रा है। मुझे याद है, बचपन में जब भी कभी मैं बाहर से खेल कर घर आता तो पलक झपकते ही मेरे सामने एक साथ दो,तीन गिलास पानी के होते। मैं एक-एक घूंट पानी सभी गिलासों से पीता। मेरी सभी दीदियों के हृदय को जैसे ठंडक मिल जाती! जब मैं स्कूल जाने लगा तब सब मिलकर मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया करतीं। कोई शर्ट पहना रही होतीं तो कोई जूते। कोई मेरे घुँघराले बालों में कंघी कर रही होती तो कोई टिफिन पैक करके बैग में रख देती।
जब भी खेलते हुए मुझे थोड़ी भी देर हो जाया करती तो मैं देखता मेरी कोई न कोई दीदी मुझे खोजते हुए बुलाने को आ गई है। मैंने अपनी माँ को कभी रसोई घर में नहीं देखा। यह पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अपनी दीदियों के हाथों के बने आलू परांठे याद आ रहे हैं, घर छोड़ने के बीस बरस बाद भी वो स्वाद मैं कभी भूल ही नहीं सका। न ही कहीं चखने को मिला।
रंगोली, चित्रहार, रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, जंगल बुक दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ये सभी धारावाहिक मैंने अपनी दीदियों की गोद में बैठकर देखे हैं। मेरे पूरे अस्तित्व पर उन सबकी छाप है। क्या आपने कभी सोचा है कि सारे शास्त्र मातृ-ऋण और पितृ-ऋण की बात करते हैं पर वास्तव में बहनों के ऋण की बात कोई नहीं करता, जो हम कभी नहीं चुका पाते।
हमारा परिवार बड़ा था। बाबूजी सरकारी नौकरी में तयशुदा वेतन पाते थे। लेकिन, सम्मान और स्वाभिमान की सीख मुझे बहनों ने ही सिखाई है। एक-एक करके बाबूजी ने सबकी शादी कर दी और वे अपने घर चली गईं। मेरे बारहवीं पास करते-करते सभी दीदियों की शादी हो चुकी थी। शांति दीदी, क्रांति दीदी, नीलम दीदी, बेबी दीदी, नूतन दीदी, गीता दीदी, किरण दीदी बारी-बारी सब अपने ससुराल चली गईं। सबसे आखिर में छोटी बहन रूबी भी। मैं भी घर छोड़ कर कॉलेज के बाद आगे की पढ़ाई करने दिल्ली चला गया। पढ़ाई और करियर बनाने में ऐसा उलझा कि मैं भूल ही गया कि मैं सात दीदियों और एक बहन का भाई हूँ। आज तक किसी भी दीदी ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की। कोई उलाहना नहीं दी, कोई ताना नहीं मारा। बीते बरसों में जब भी उनसे मिला तो उनसे वही प्यार और अपनापन पाया जो दुनिया के और किसी रिश्ते में संभव नहीं। लॉक डाउन और कोरोना संकट के इस साल में भी हर बार की तरह मेरी राखियां मुझ तक पहुँच गई हैं, जिन्हें कलाई पर बांध कर मैं बड़े ताव से इतरा रहा हूँ।