अब बिहार, जहां भाजपा की कोई भूमिका नहीं है, वह एक पार्टी के तौर पर तस्वीर में कहीं भी नहीं है. वह वही काम कर रही है, जो कांग्रेस करती थी. यानी पैसे बांटती थी, विधायकों की खरीद-फरोख्त करती थी और शराब बांटकर सत्ता तक पहुंचती थी. अच्छी बात है, उसे ऐसा करने देते हैं. ऐसा करके वह निश्चित रूप से यह चुनाव नीतीश कुमार के हवाले कर देगी. वह विधानसभा चुनाव में जीत नहीं हासिल कर पाएगी. क्योंकि, जो लोग किसी खेमे में नहीं हैं, उन्हें यह कहने में आसानी हो जाएगी कि कांग्रेस और भाजपा में कोई फ़़र्क नहीं है.
पिछले साल के आम चुनाव में जीत के बाद भाजपा को दिल्ली विधानसभा चुनाव में सबसे पहला झटका लगा है. उसे यहां 70 में से केवल तीन सीटें ही मिल पाईं. भाजपा ने अपने सबसे खराब आकलन में भी इतनी कम सीटों की अपेक्षा नहीं की होगी. उसे आशा थी कि वह बहुमत हासिल कर लेगी. किरण बेदी को मैदान में उतार कर उन्हें ब्रह्मास्त्र के तौर पर पेश किया गया, जैसे वह इतनी लोकप्रिय हैं कि उनके आते ही पार्टी चुनाव स्वीप कर लेगी. बहरहाल, भाजपा को लग रहा था कि वह 36 का आंकड़ा पार कर लेगी, जिसे बाद में संशोधित करके 34 कर दिया गया. भाजपा ने सपने में भी नहीं सोचा था कि एकदम से उसका सफाया हो जाएगा. दिल्ली चुनाव का विस्तृत आकलन बाद में आएगा, जिसमें हार के कई कारण हो सकते हैं. उसके लिए फिलहाल सबसे उपयुक्त कारण यह लग रहा है कि उसका वोट प्रतिशत 30 के आसपास बना हुआ है. ये कांग्रेस के वोट थे, जो आम आदमी पार्टी के खाते में चले गए. यह बहुत ही साधारण तर्क है. चुनावी अंकगणित इतना साधारण नहीं होता, लेकिन हारने वाले को कुछ न कुछ बहाना तो बनाना पड़ता है और जीतने वाले भी अपना कारण बताते हैं. यह सब चलता रहता है, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं.
अब बिहार पर एक नज़र डालते हैं. बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) को बहुमत हासिल था, लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे पार्टी के लिए अच्छे नहीं रहे. इसलिए पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने यह फैसला किया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. यह एक ग़लती थी. नीतीश कुमार ने पद त्याग दिया और महादलित वर्ग से संबंध रखने वाले जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री चुन लिया गया. भारतीय संविधान और प्रचलित व्यवस्था के चलते यहां कोई भी पद इतना ताक़तवर होता है कि जो एक बार उस पर स्थापित हो जाता है, वह उसे छोड़ना नहीं चाहता. कहने को तो मुख्यमंत्री का चुनाव विधायक करते हैं और कैबिनेट ़फैसले लेती है, लेकिन प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री के पद बहुत शक्तिशाली होते हैं. इसलिए स्वाभाविक रूप से जीतन राम मांझी को सत्ता का चस्का लग गया और वह अब अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. पार्टी की मंशा यह है कि वह नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती है, ताकि राज्य की शासन व्यवस्था सही ढंग से चल सके और वह अगला चुनाव सही तरीके से लड़ सकें. अगर मौजूदा सरकार को जारी रखा जाता है, तो यह मुमकिन नहीं हो सकेगा.
और अब क्या हो रहा है? जीतन राम मांझी जिस स्थिति में हैं, उसमें उनका व्यवहार किसी दूसरे नेता की तरह है, जो अपनी पार्टी तोड़ना चाहता है. वह नीतीश समर्थक मंत्रियों को हटाकर, उनके खेमे के विधायकों को मंत्री पद का लालच देकर अपने पक्ष में करना चाहते हैं. यह सामान्य राजनीति है, लेकिन समस्या अंपायर के काम से उत्पन्न होती है. बॉलिंग और बैटिंग करने वाली टीमें अपना-अपना काम करती हैं. अंपायर, जो यहां गवर्नर हैं, को ईमानदारी से अपना काम करना चाहिए. जो एक बार फिर बहुत ही कठिन काम है. हमने पहले भी देखा है कि कैसे एक के बाद एक राज्यपालों ने केंद्र के इशारे पर ़फैसले लिए हैं. भाजपा वही तरीका अपना रही है, जो कांग्रेस अपनाती थी. उसे मालूम नहीं है कि ऐसा करके वह केवल पांच साल बाद कांग्रेस की जल्द वापसी के लिए रास्ता साफ़ कर रही है. इससे यह ज़ाहिर होगा कि दोनों पार्टियां एक जैसी हैं. भाजपा ने यह कहकर शुरुआत की थी कि वह अलग तरह की पार्टी है और अब ऐसा लग रहा है कि उसका व्यवहार कांग्रेस से भी बदतर है.
जहां तक संविधान के प्रावधानों का सवाल है, तो बिहार के कार्यकारी राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी का चौंकाने वाला बयान आया है. वह कहते हैं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने के लिए उतावले हो रहे हैं. क्या कोई अंपायर ऐसी भाषा इस्तेमाल कर सकता है? अगर हां, तो फिर वह अंपायर बनने के योग्य नहीं है. अगर भाजपा वही पार्टी है, जैसा कि वह खुद को दिखाती है, तो केशरी नाथ त्रिपाठी को फौरन न केवल बिहार, बल्कि बंगाल के राज्यपाल पद (जहां उनकी वास्तविक नियुक्ति है) से भी हटा देना चाहिए. यह बहुत ही दु:खद है. अगर वह ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, तो बंगाल में ममता बनर्जी के लिए तबाही बन जाएंगे. यह सही तरीका नहीं है. राज्यपाल को ऐसे मामलों में खामोश रहना चाहिए. उन्हें अपने पास आने वाले मामलों का ही निपटारा करना चाहिए.
बहरहाल, उन्होंने जीतन राम मांझी से कहा है कि वह 20 फरवरी तक अपना बहुमत सिद्ध करें. उन्हें 13 फरवरी तक का समय दिया जाना चाहिए था. 20 फरवरी तक का समय ज़रूरत से अधिक था. ऐसा करके उन्होंने विधायकों की खरीद-फरोख्त का मौक़ा दिया. हालांकि, यह उनके संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है. अब वह कांग्रेस द्वारा बनाए गए कठपुतली राज्यपालों से कैसे अलग साबित होंगे, जो हमेशा मज़ाक बनते रहे, वह चाहे आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रामलाल हों या कोई और. मुझे हैरानी है कि प्रधानमंत्री यह नहीं समझ पा रहे हैं कि नक़ल एक तरह की चापलूसी होती है. अगर भाजपा भारत में अपना शासन बनाए रखना चाहती है, तो उसे अपनी कार्यशैली बदलनी होगी. आप केवल एक साल पहले सत्ता में आए हैं, अभी तक आपने कुछ भी ऐसा नहीं किया है, कोई बड़ा काम नहीं किया है, जिसका दोष मैं नहीं दूंगा, क्योंकि भारत एक विशाल देश है. जो लोग यह समझ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी रातोंरात देश को बदल देंगे, उन्हें मायूसी होगी. बड़े देशों में परिवर्तन धीरे- धीरे आता है, लेकिन उसके लिए अच्छे मानक स्थापित करने चाहिए. अब तक उन्होंने दो खराब मानक स्थापित किए. एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर उन्हें किरण बेदी को चुनने का अधिकार है, लेकिन उनको पार्टी का नेता बनाना बहुत ही ग़लत था. कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती थी. कांग्रेस भले ही मुख्यमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित न करे, लेकिन वह किसी उधार के रिटायर्ड अधिकारी (जिसके पास कोई राजनीतिक अनुभव न हो) के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ेगी. यह भाजपा के दिवालिएपन की निशानी है, सोच के दिवालिएपन की निशानी है.
अब बिहार, जहां भाजपा की कोई भूमिका नहीं है, वह एक पार्टी के तौर पर तस्वीर में कहीं भी नहीं है. वह वही काम कर रही है, जो कांग्रेस करती थी यानी पैसे बांटती थी, विधायकों की खरीद-फरोख्त करती थी और शराब बांटकर सत्ता तक पहुंचती थी. अच्छी बात है, उसे ऐसा करने देते हैं. ऐसा करके वह निश्चित रूप से यह चुनाव नीतीश कुमार के हवाले कर देगी. वह विधानसभा चुनाव में जीत नहीं हासिल कर पाएगी. क्योंकि, जो लोग किसी खेमे में नहीं हैं, उन्हें यह कहने में आसानी हो जाएगी कि कांग्रेस और भाजपा में कोई फ़़र्क नहीं है. ऐसा करके आप अरविंद केजरीवाल की बातों को ही सत्यापित करेंगे, जो कहते हैं कि भाजपा एवं कांग्रेस दोनों एक ही हैं, दोनों कॉरपोरेट से पैसे लेती हैं और आम आदमी को लूटती हैं. इन दोनों पार्टियों में स़िर्फ नाम का फ़़र्क है. इसलिए अगर आप केजरीवाल को सच साबित करना चाहते है, तो केशरी नाथ त्रिपाठी जो करना चाहते हैं, उन्हें करने दीजिए. वह वही कर रहे हैं, जो गृह मंत्रालय और अमित शाह कराना चाह रहे हैं. लेकिन, भाजपा अगर संवैधानिक तरीके से काम करना चाहती है, कम से कम नरेंद्र मोदी से लोगों की यही अपेक्षा है, तो राज्यपाल को संविधान के अनुसार काम करना चाहिए. विधानसभा को अपना काम करने दीजिए. जिसे बहुमत होगा, वह मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेगा और राज्यपाल को बदल देना चाहिए.
राज्यपाल को क्रिकेट मैच के किसी अंपायर की तरह बीच मैदान में नहीं बोलना चाहिए, जब तक कि उससे अपील न की जाए. यहां एक ऐसा अंपायर है, जो इस खेल को खुद ही खेलना चाहता है. केशरी नाथ त्रिपाठी को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए और उत्तर प्रदेश में कहीं से चुनाव लड़ना चाहिए. आप एक साथ दो काम नहीं कर सकते. जाहिर है, भाजपा सत्ता में पहली बार अकेले दम पर आई है, उसे सीखने में थोड़ा वक्त लगेगा. पांच साल का वक्त देखते ही देखते निकल जाएगा. भाजपा जितनी जल्दी चीजों को ठीक से समझ ले, उसके लिए उतना ही अच्छा होगा.