प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नहीं हैं, न ही वे आरएसएस के प्रधानमंत्री हैं और शायद नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि उन्हें अपने को देश के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करना है. वो इस खतरे से भी वाकिफ हैं कि उनके विरोधी उन्हें हमेशा संघ और भाजपा का प्रधानमंत्री साबित करने में लगे रहेंगे और उनके हर एक क्रियाकलाप को संघ और भारतीय जनता पार्टी के किसी न किसी नीति सिद्धांत से जुड़ा हुुआ दिखाते रहेंगे. मेरा ये मानना है कि ये चुनौती भारत में हुए अब तक के किसी प्रधानमंत्री से ज्यादा श्री नरेंद्र मोदी के सामने विकराल रूप में खड़ी है. नरेंद्र मोदी के पास सबसे बड़ी ताकत ये है कि उनके साथ उनके पारिवारिक और परिवार से जुड़े सासाजिक दायित्वों में वक्त जाया करने का खतरा नहीं है.
हाशिमपुरा हत्याकांड के फैसले ने जांच एजेंसियों और न्याय व्यवस्था के साथ-साथ प्रशासनिक संरचना के ऊपर भी सवाल खड़े कर दिए हैं. यूं तो ये सवाल सालों पुराने हैं और लोग इनके बारे में बातचीत करते भी रहते हैं, पर ये बातें अनसुनी हो जाती हैं, पर हाशिमपुरा हत्याकांड ऐसा मसला है, जो ये बताता है कि अगर आप सरकार के अंग हैं और आपने अत्याचार किए हैं या हत्याएं की हैं, तो जांच एजेंसियां भी आपकी मदद करेंगी. आप सस्पेंड भी नहीं होंगे. आप गिरफ्तार भी नहीं होंगे. आपके ऊपर जब मुकदमा चलेगा, तो 28 साल के बाद जज साहब यह कह देंगे कि चेहरा तो ढका हुआ था, तुमने चेहरे को कैसे पहचाना, तुमने कैसे कह दिया कि ये वही लोग हैं और केस को खारिज कर देंगे. ये सवाल नहीं उठाएंगे कि पुलिस नये सिरे से इस केस की छानबीन करे और अभी जो जिंदा बचे हुए लोग हैं, उस हत्याकांड के बाद उनसे दोबारा बातचीत कर उस समय के सबूतों को रिक्रिएट कर फिर से जांच हो. न्याय 90 प्रतिशत गरीबों को नहीं मिलता. वो न्याय की अंतिम सीढ़ी तक जा ही नहीं पाते. जहां एक वकील एक पेशी का 4 लाख से 5 लाख रुपये लेता है. चाहे केस की सुनवाई हो या न हो. केस की तारीख पड़ जाए, किसी भी परिस्थिति में उसे चार से पांच लाख रुपये चाहिए. एक केस अगर पांच साल में निपटना है और एक साल में उसकी पांच या दस पेशी होनी है, तो हिसाब लगाया जा सकता है कि इतना पैसा, जिसे न्याय चाहिए, उसे खर्च करना पड़ेगा. क्या इतना पैसा इस देश के 90 प्रतिशत लोगों के पास है? इसका सीधा जवाब है-नहीं. अगर ये पैसा 90 प्रतिशत लोगों के पास नहीं है, तो इसका मतलब उन्हें अंतिम न्याय नहीं मिल सकता. फिर वो न्याय के मकड़जाल में फंस जाते हैं और उन्हें पुलिस, दलाल और अदालत की सेटिंग करने वालों के भरोसे रहना पड़ता है. जाहिर है, इस स्थिति में उन्हें न्याय की जगह अन्याय मिलता है और जो अन्याय करता है, वो ही उपने पक्ष में न्याय का तराजूू झुका लेता है.
क्या संसद में बैठे लोगों के लिए वक्त नहीं है? क्या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों को अब भी नहीं सोचना चाहिए कि हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था कैसे सक्षम हो? हर एक को न्याय दे और वो सस्ती भी हो. गांव की पंचायत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक न्याय व्यवस्था के संपूर्ण तंत्र को नये तरीके से गठित करने की आवश्यकता है.
हमारी विधायिका और कार्यपालिका में एक रोग लग गया है. उनकी कोई भी योजना दो साल, तीन साल या पांच साल की बनती है और उस दो, तीन और पांच साल में ही वो उस बजट को खर्च करने की कोशिश करती हैं. ऐसी बहुत कम योजनाएं देश में होंगी, जिसे कार्यपालिका ने अगले पचास साल और सौ साल को ध्यान में रखकर बनाया हो. हम देखते हैं कि एक पुल बनता है और दो साल के भीतर ही देखते-देखते वह पुल अपने ऊपर से गुजरने वाली सवारियों के लिए अपर्याप्त हो जाता है. तब पड़ोस में दूसरा पुल बनता है. हम अक्सर देखते हैं कि सड़कें बनीं, साल भर होते ही वो सड़कें टूट जाती हैं. फिर उनकी मरम्मत शुरू हो जाती है और इससे भी मजेदार कि जब सड़कों के किनारे के फुटपाथ छह महीने में ही एक इंच छोटा करने के नाम पर तोड़ दिए जाते हैं.
आजादी के बाद जितने भी प्रधानमंत्री हुए, सबके सामने ये चुनौतियां रहीं कि कैसे वो तंत्र को संवेदनशील बना सकें और उसे जिम्मेदार भी बनाएं, पर आजादी के इतने साल बाद कोई भी प्रधानमंत्री इसमें सफल नहीं हुआ. तंत्र को संवेदनशील और जिम्मेदार बनाना तो दूर, वो तंत्र को चुस्त भी नहीं कर पाए और इसीलिए हर साल हर अंग पहले से ज्यादा सड़ा दिखाई पड़ता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नहीं हैं, न ही वे आरएसएस के प्रधानमंत्री हैं और शायद नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि उन्हें अपने को देश के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करना है. वो इस खतरे से भी वाकिफ हैं कि उनके विरोधी उन्हें हमेशा संघ और भाजपा का प्रधानमंत्री साबित करने में लगे रहेंगे और उनके हर एक क्रियाकलाप को संघ और भारतीय जनता पार्टी के किसी न किसी नीति सिद्धांत से जुड़ा हुुआ दिखाते रहेंगे. मेरा ये मानना है कि ये चुनौती भारत में हुए अब तक के किसी प्रधानमंत्री से ज्यादा श्री नरेंद्र मोदी के सामने विकराल रूप में खड़ी है. नरेंद्र मोदी के पास सबसे बड़ी ताकत ये है कि उनके साथ उनके पारिवारिक और परिवार से जुड़े सासाजिक दायित्वों में वक्त जाया करने का खतरा नहीं है. वह चौबीसों घंटे देश के भले और भरोसे के लिए सोच सकते हैं. नरेंद्र मोदी ने राजनीतिज्ञों की जगह प्रशासनिक तंत्र को चुस्त बनाने का जिम्मा अपने कंधों पर लिया है. इसलिए अब वो केंद्र सरकार के सचिवों के साथ-साथ प्रदेश के मुख्य सचिवों के साथ सीधा संबंध बैठाना चाहते हैं, लेकिन सवाल यह है कि जब तक वो राजनीतिक तंत्र को जिम्मेदार बनाने की कोशिश नहीं करेंगे, तो ये प्रशासनिक तंत्र मजबूत बनाने से उन्हें हासिल कितना होगा, संदेह का विषय है. राजनीतिक तंत्र एक सबसे बड़ा काम ये करता है कि वो नीति बनाने वालों को और नीतियों पर अमल करने वालों को ये बताता है कि आवश्यकता किस बात की है और कैसी योजनाएं बननी चाहिए और दूसरा, उन योजनाओं के ऊपर कुछ अमल हो भी रहा है या नहीं हो रहा है.
अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास यह जानकारी नहीं पहुंचेगी कि देश में करना क्या है और देश में वो जो कर रहे हैं, उसका असर क्या हो रहा है, तो फिर कहीं पर भ्रम पैदा हो जाएगा और भ्रष्टाचार बढ़ने की गुंजाइश ज्यादा हो जाएगी. प्रधानंमत्री नरेंद्र मोदी का देश की समस्याओं को हल करने की मंशा और प्रखरता में कोई संदेह नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संपूर्ण राजनीतिक तंत्र इस सवाल के ऊपर वैसे नहीं सोचता, जैसे खुद प्रधानमंत्री सोचते हैं. प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल के सदस्य प्रधानमंत्री के विचारों के साथ अपने को जोड़ नहीं पा रहे. उनके सचिव उन्हें सिर्फ एक शब्द कहते हैं कि पीएमओ की तरफ से यह कहा गया है. नरेन्द्र मोदी जी का आतंक इतना है कि उन्हीं के पार्टी के वरिष्ठ नेता पीएमओ से यह सवाल नहीं पूछ पाते कि क्या आपने यह हमारे सचिव से कहा है. यह सवाल मैं इसलिए उठा रहा हूं, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी एक दायरे में घिर गए हैं. उनकी जानकारी का सिर्फ और सिर्फ एक स्त्रोत टेलीविजन और अखबार हैं, पर उनके पास टेलीविजन देखने और अखबार पढ़ने का वक्त है कहां. उनके सूचना सलाहकार उन्हें कटिंग काटकर देते हैं और वह कटिंग वही होती है, जिसे वो सूचना सलाहकार पढ़वाना चाहता है. उसे पढ़कर नरेन्द्र मोदी देश के बारे में जानकारियां संग्रहित कर रहे हैं.
मैं मानता हूं कि हो सकता है यह स्थिति गलत हो, हो सकता है मुझे गलत जानकारी मिली हो, पर जिस तरह के क्रियाकलाप चल रहे हैं, उनसे तो ऐसा ही लगता है कि मैं सही हूं और मैं जो आपसे कह रहा हूं, उसमें कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं की विशाल ताकत को देश के निर्माण में और जनता को देश के निर्माण में शामिल करने के लिए प्रेरित करने में इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. नतीजे के तौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वो अंग, जो देश में दूरियां बढ़ाने का काम करते हैं, उन लोगों को इनसे ताकत मिल जाती है. इसलिए जिस तरह से देश में बाकी अंगों को सक्रिय करने में प्रधानमंत्री लगे हैं, उसी तरह से उन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं की विशाल ताकत को आम जनता के विकास के कामों में शामिल करने के लिए प्रेरित करने में लगाना चाहिए. इसका एक उदाहरण उनका स्वच्छता अभियान है. इतना अच्छा अभियान, लेकिन उसका देश में कहीं पर भी असर अब नहीं दिखाई देता. अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विशाल कार्यकर्ता वर्ग इस स्वच्छता अभियान में जनता को शामिल कर आगे बढ़ता, तो नरेन्द्र मोदी का आह्वान किसी एक मंजिल तक पहुंच सकता था, पर न नरेन्द्र मोदी जी ने उन संगठनों को मजबूत किया, जो आधिकारिक रूप से सफाई के लिए जिम्मेदार है और न राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं के सहारे जनता को इसके लिए प्रतिबद्ध और प्रेरित किया. मुझे लगता है कि नरेन्द्र मोदी जी को इन सारे सवालों के ऊपर फिर से सोचना चाहिए, उनका उत्तर कैसे मिले, इसकी नई योजना बनानी चाहिए.