जनता सार्वजनिक जीवन के प्रति उदास हो गई है, क्योंकि बहुजन समाज उपेक्षित है. बेरोजगारी का निराकरण, किसान की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सवर्णों के द्वारा अवर्णों पर होने वाले अत्याचारों का निवारण हमें करना होगा-राज्य-सरकारों से कराना होगा. तब कहीं जनता अपने जीवन में और सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी रखने लगेगी. समाज-परिवर्तन और आर्थिक न्याय के लिए आधारभूत काम करने वाले शक्ति स्त्रोंतो को मजबूत बनाना और व्यापक राजनैतिक जीवन में इन्हें गूथ लेना आवश्यक है.  
राजकीय माहौल मुझे दिखाई देता है कि आपातकाल से भी कहीं बढ़कर ख़तरनाक स्थिति आने वाली है. उसकी पूर्वयोजना के पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं. गांधी विचार का मुक़ाबला है-तथाकथित साम्यवाद, सम्प्रदायवाद तथा निरंकुश सत्तावाद के प्रति. देश में जनता के बीच घूमने के बाद अनुभव होता है कि जनता निराश-निस्त्राण-लाचार हो गई है. उसमें ख़ुद में वह दम नहीं रहा है, जो बापू के ज़माने में था. अब केवल विचार-प्रचार से काम नहीं चलेगा. जनता में स्वयं का नेतृत्व खड़ा करने का दम नहीं रहा है, पर सम्यक समुचित नेतृत्व मिले तो कदाचित जनता पुन: खड़ी हो सकेगी. वह नेतृत्व देने की क्षमता अभी भी सर्वोदय-कार्यकर्ताओं में है, क्योंकि इनमें जनता का विश्‍वास अभी भी बना हुआ है.
अपने पास गंवाने को अब कतई समय नहीं है. यदि सर्वोदय परिवार के चित्त में सचमुच कुछ करने की तमन्ना हो तो मिलकर बैठकर विचार एवं योजनापूर्वक जुट जाना उचित होगा. सर्व सेवा-संघ बनते समय जैसे अनेक विभिन्न प्रवृत्तियों वाले लोग एक मंच पर आकर घुल-मिल गए थे, वैसे अब पुन: सभी सर्वोदय-विचारधारा वाले व्यक्ति, संस्था, समूह एक ही दिशा में लग जाएं-यह नितांत आवश्यक है. सब अलग-अलग प्रवृत्तियां सुंदर हैं, उपयोगी हैं, पर उनमें बिखरे न रहकर अब मूलसिंचन के बिना काम चलेगा नहीं. उन विविध प्रवृत्तियों के कारण अवश्य जनता में अपना एक नैतिक प्रभाव बना हुआ है, लेकिन उतने से ही क्या हमें संतोष माने रहना है या और भी कुछ गहरा तथा व्यापक करना आवश्यक है-यह विचार करना होगा.
प्रश्‍नों को हल करने के लिए सैद्धांतिक सहमति के साथ-साथ समुचित नेतृत्व, सम्यक संगठन, और संन्निष्ठ कार्यकर्ताओं की नितांत आवश्कता है. क्या अपनी गोष्ठी में से इन तीनों की निष्पत्ति हो सकेगी? नेतृत्व की ज़िम्मेदारी कौन संभालेगा? युवकों को प्रशिक्षण देकर कार्यकर्ता दल कौन तैयार करेगा?

जनता सार्वजनिक जीवन के प्रति उदास हो गई है, क्योंकि बहुजन समाज उपेक्षित है. बेरोजगारी का निराकरण, किसान की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सवर्णों के द्वारा अवर्णों पर होने वाले अत्याचारों का निवारण हमें करना होगा-राज्य-सरकारों से कराना होगा. तब कहीं जनता अपने जीवन में और सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी रखने लगेगी. 

सार्वजनिक जीवन में जो मूल्यों का ह्रास और नैतिक स्तरों का क्षरण हो रहा है उसकी रोकथाम के लिए (क) नैतिक मूल्यों को जान-बूझकर ठुकराने या कुचलने वाले सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र के नेताओं का और सरकारी अधिकारियों का खुला बहिस्कार (ख) उनके साथ व्यक्तिगत तथा सामुदायिक असहयोग (ग) अन्याय-अत्याचार का संगठित विरोध मूल्यों के प्रचारमात्र से मूल्य प्रतिष्ठित नहीं होते. उनके संरक्षण के लिए प्राणों की बाज़ी लगाकर लड़ने वाले व्यक्ति एवं व्यक्तिसमूह जब जगह-जगह प्रकट होंगे, तभी यह ह्रास तथा क्षरण रुक सकेगा. लोकशाही मूल्यों के संरक्षण के लिए, विकेंद्रित लोकशाही को मज़बूत बनाने के लिए और आम जनता को सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के लिए प्रवृत्ति करने हेतु.
(क) लोकतांत्रिक संस्थाओं की मार्फत ही लोकशाही के मूल्यों का संरक्षण हो सकेगा. इन संस्थाओं (संसद आदि) में लोकशाही का अर्थ और आशय समझने वाले व्यक्ति ही चुनकर जाएं-इसकी सावधानी रखनी होगी.
(ख) लोकतांत्रिक संस्थाओं में लोकशाही मूल्यों का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को त्याग पत्र देने के लिए बाध्य करना. जो त्याग पत्र न दें उनके मतदान-क्षेत्र के लोग उन सदस्यों के साथ सामाजिक बहिष्कार एवं आर्थिक असहयोग करें.
(ग) इस काम के लिए प्रत्येक मतदाता क्षेत्र में निगरानी-समिति नियुक्त हो. यह समिति असहयोग या बहिष्कार के विषय में निर्णय करेगी और उसका ऐलान भी. इस देश में विकेंद्रित लोकशाही है ही नहीं. पिछले पैंतीस वर्षों में राजनैतिक तथा आर्थिक सत्ता का उत्तरोत्तर केंद्रीकरण होता गया है. सत्ता के विकेंद्रीकरण का अर्थ तथा विकेंद्रीकरण से आने वाली ज़िम्मेदारियां लोगों को समझानी होंगी. जनता सार्वजनिक जीवन के प्रति उदास हो गई है, क्योंकि बहुजन समाज उपेक्षित है. बेरोज़गारी का निराकरण, किसान की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सवर्णों के द्वारा अवर्णों पर होने वाले अत्याचारों का निवारण हमें करना होगा-राज्य-सरकारों से कराना होगा. तब कहीं जनता अपने जीवन में और सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी रखने लगेगी. समाज-परिवर्तन और आर्थिक न्याय के लिए आधारभूत काम करने वाले शक्ति स्त्रोंतो को मज़बूत बनाना और व्यापक राजनैतिक जीवन में इन्हें गूंथ लेना आवश्यक है.
(क) राजनीति आधुनिक जीवन का एक अनिवार्य अंग है. उसकी उपेक्षा आत्मघातक एवं राष्ट्रविनाशक सिद्ध होगी और हो रही है. राजनीति की उपेक्षा करने वाले संपूर्ण समाज-परिवर्तन कदापि ला नहीं सकेंगे.
(ख) देश की सरकार किस प्रकार के अर्थतंत्र को स्वीकार करती है और शासनतंत्र को किस प्रकार चलाती है-इस पर जनता को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय मिलना न मिलना निर्भर करता है. सर्वोदयी और साम्ययोगी अर्थतंत्र और शासनतंत्र ही अन्त्योदय साध सकेंगे तथा प्रत्येक नागरिक को न्याय मिलने की संभावना कर सकेंगे. तात्पर्य यह है कि साम्ययोगी संस्कृति और सर्वोदयी जीवन पद्धति में श्रद्धा रखने वाले, उसके लिए काम करने वाले लोगों को राजनीति का शुद्धिकरण तथा लोकतंत्र का संरक्षण आज का राष्ट्रधर्म है-यह तथ्य पहचानना होगा.

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