संसार की सर्वोच्च पंचायत संयुक्त राष्ट्र पर सवालिया निशान और विकराल होते जा रहे हैं। इसकी हर बैठक अपने पीछे ऐसे सवालों का एक गुच्छा छोड़ जाती है।
संसार की सर्वोच्च पंचायत संयुक्त राष्ट्र पर सवालिया निशान और विकराल होते जा रहे हैं। इसकी हर बैठक अपने पीछे ऐसे सवालों का एक गुच्छा छोड़ जाती है। यह गुच्छा सुलझने के बजाय और उलझता जाता है। फिलहाल, इसके सुलझने की कोई सूरत नजर नहीं आती, क्योंकि अब इस शिखर संस्था पर हावी देशों की नीयत और इरादे ठीक नहीं हैं।
किसी जमाने में वे वैश्विक कल्याण के नजरिये से काम करते रहे होंगे, लेकिन आज वे संयुक्त राष्ट्र को अपना-अपना हित साधने का मंच बना चुके हैं। जिस पंचायत में पंच और सरपंच अपने गांव या कुनबे के खिलाफ काम करने लगें तो उनके प्रति अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटाने की जुर्रत कौन कर सकता है? कई पंचों की आपस में नहीं बनती तो कुछ पंच मिलकर सरपंच के खिलाफ हैं। जो पंच अल्पमत में हैं, वे सीधे-सीधे अपने मतदाताओं से मिलकर गुट बना रहे हैं।
ऐसे में सार्वजनिक कल्याण हाशिये पर चला जाता है और सारा जोर निजी स्वार्थ सिद्ध करने पर हो जाता है। संस्था की साख पर कोई ध्यान नहीं देता। संयुक्त राष्ट्र कुछ ऐसी ही बदरंग तस्वीर बनकर रह गया है।
संयुक्त राष्ट्र की हालिया बैठक साफ-साफ संकेत देती है कि अब इसके मंच पर समूचा विश्व दो धड़ों में बंटता जा रहा है। पश्चिम और यूरोप के गोरे देश एशिया और तीसरी दुनिया के देशों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते। विडंबना यह है कि एशियाई देश भी इसे समझते हैं, मगर एकजुट होकर प्रतिकार भी नहीं करना चाहते। प्रतिकार तो छोड़िए, वे सैद्धांतिक आधार पर एक-दूसरे का साथ नहीं देते।
रिश्तों में आपसी कड़वाहट और विवाद से वे उबर नहीं पाते। जिस चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने में भारत ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, वही अब सुरक्षा परिषद की स्थायी समिति के लिए भारत की राह में रोड़े अटकाता है। अतीत गवाह है कि भारत ने एक तरह से सुरक्षा परिषद में अपनी सीट चीन को सौंपी थी, उसी चीन का व्यवहार लगातार शत्रुवत है। वह न केवल भारत के खिलाफ अभियान छेड़ने में लगा हुआ है, बल्कि पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को भी संरक्षण दे रहा है।
इस मसले पर उसने अपने वीटो का दुरुपयोग करने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई है। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1267 को उसने एक तरह से अप्रासंगिक बना दिया है। पंद्रह अक्तूबर 1999 को यह प्रस्ताव अस्तित्व में आया है। इसके मुताबिक कोई भी सदस्य देश किसी आतंकवादी को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने का प्रस्ताव रख सकता है। लेकिन उसे सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की मंजूरी लेनी होगी। यहां चीन हर बार अपनी टांग अड़ा देता है। ऐसे में यह प्रस्ताव कोई मायने नहीं रखते।
भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन और पाकिस्तान का नाम लिए बिना उनको आक्रामक अंदाज में घेरा तो सही, लेकिन उससे चीन के रुख में अंतर नहीं आया। भारत के इस रवैये पर अब यूरोपीय और पश्चिमी देश भी ज्यादा ध्यान नहीं देते। जब उनके अपने मुल्क में आतंकवादी वारदात होती है तो कुछ समय वे चिल्ल-पों मचाते हैं, मगर भारत की तरह वे हमेशा यही राग नहीं अलापते। भारत की स्थिति इसलिए भी अलग है कि पाकिस्तान ने कश्मीर में बारहों महीने चलने वाला उग्रवादी अप्रत्यक्ष आक्रमण छेड़ा हुआ है इसलिए यूरोपीय और पश्चिमी राष्ट्रों की प्राथमिकता सूची में यह मसला कभी नहीं आता।
दिलचस्प है कि उसी चीन को हद में रखने के लिए अब यूरोपीय देश और अमेरिका तक सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी भारत की सदस्यता के पक्ष में बयान तो देते हैं लेकिन ठोस कुछ नहीं करते। वे भारत की कारोबारी और रणनीतिक प्राथमिकता को ध्यान में नहीं रखना चाहते। अब वे संयुक्त राष्ट्र के बहाने हिंदुस्तान को चीन और रूस से अलग करने पर जोर दे रहे हैं।
भारत एक बार चीन के बारे में सोच सकता है, लेकिन रूस से वह कुट्टी नहीं कर सकता। उसकी अपनी क्षेत्रीय परिस्थितियां हैं, जिन पर गोरे देश ध्यान नहीं देना चाहते। कमोबेश रूस के हाल भी ऐसे ही हैं। वह इसीलिए भारत के विरोध में नहीं जा सकता। हिदुस्तान के साथ ऐतिहासिक संबंधों का रूस ने हमेशा गरिमामय ध्यान रखा है।
यही कारण है कि यूक्रेन के साथ रूस की जंग में भारत खुलकर रूस विरोधी खेमे में शामिल नहीं हुआ है। जिस तरह भारत पीओके में चीन की सेनाओं की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसी तरह रूस भी यूक्रेन के बहाने अपनी सीमा पर नाटो फौजों की तैनाती कैसे पसंद कर सकता है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र महाशक्तियों के अपने-अपने हितों का अखाड़ा बन गया है। सदस्य देश इन बड़ी ताकतों के मोहरे बनकर रह गए हैं।
तो संयुक्त राष्ट्र अब क्या कर सकता है? अमीर और रौबदार देशों के हाथ की कठपुतली बनने के सिवा उसके पास विकल्प ही क्या है? गोरे देश एशियाई मुल्कों के आपसी झगड़ों का लाभ उठाते हुए दादागीरी कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के धन पर पल रहा है। अमेरिका के इशारे पर ही संयुक्त राष्ट्र की दिशा निर्धारित होती है।
मौजूदा परिस्थितियों में इस शीर्ष संस्था की विश्वसनीयता निश्चित रूप से दांव पर लग गई है। भारत लंबे समय से इस शिखर संस्था की कार्यप्रणाली और ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की मांग करता आ रहा है। उसकी मांग को अभी तक विश्व बिरादरी का व्यापक समर्थन नहीं मिला है। मगर देर-सबेर यह सवाल अंतरराष्ट्रीय मंच पर अवश्य उभरेगा कि यदि कोई शिखर संस्था अपनी उपयोगिता खो दे तो फिर उसका विसर्जन ही उचित है।
(साभार: लोकमत हिन्दी)