पिछले सात साल में उत्तर प्रदेश में रेल हादसों की 10 घटनाएं दर्ज हुईं, लेकिन यूपी के रेल हादसों की आधिकारिक जांच का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. इसका हिसाब-किताब मांगने में उत्तर प्रदेश सरकार भी कोई रुचि नहीं दिखाती. रेल हादसों के मामले लीपपोत कर किनारे रख दिए जाते हैं. कुछ मामूली कर्मचारियों पर कार्रवाई की औपचारिकता होती है, लेकिन बड़ा अधिकारी बेदाग बचा रहता है. जैसे सारी गलतियां छोटे कर्मचारी ही करते हैं, बड़े अधिकारियों से कोई गलती ही नहीं होती. एक जनवरी 2010 से 2017 (खबर लिखे जाने तक) पश्चिम रेलवे, पूर्वी तटीय रेलवे और पश्चिम मध्य रेल के तीन रेलवे जोन में जो रेल हादसे हुए, उनकी जांच के लिए 111 जांच समितियां बनाई गईं. लेकिन इसी दरम्यान उत्तर प्रदेश में जो 10 रेल हादसे हुए उनकी जांच का क्या हुआ, इसका कोई अता-पता नहीं है.

सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवालों पर सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नूतन ठाकुर को रेल महकमे ने जानकारी दी कि 111 जांच समितियों में 51 जांच समितियां पश्चिम रेलवे मुंबई, 37 जांच समितियां पूर्वी तटीय रेलवे भुवनेश्वर और 23 जांच समितियां पश्चिम मध्य रेलवे जबलपुर में काम कर रही हैं. पश्चिम रेलवे में 24 दुर्घटनाएं लापरवाह ड्राइविंग से हुईं, जबकि तीन मामलों में आपराधिक षडयंत्र सामने आया. एक मामले में बादल गिरने से घटना घटी. पांच मामलों में कुल सात रेलकर्मी बर्खास्त किए गए और दो कर्मचारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी गई. शेष 16 मामलों में दोषी पाए गए लोगों को लघु दंड दिया गया. पूर्वी तटीय रेल में 19 मामलों में कोई रेलकर्मी दोषी नहीं पाया गया. दो मामलों में आरोप वापस ले लिए गए. एक मामले में परामर्श दिया गया, जबकि दो मामलों में तीन रेलकर्मी बर्खास्त किए गए. कुनेरू (आंध्र प्रदेश) में हीरानंद एक्सप्रेस की दुर्घटना की एनआईए जांच कर रही है.

पश्चिम मध्य रेलवे में दो मामलों में बर्खास्तगी सहित 13 मामलों में विभिन्न दंड दिए गए जबकि 10 मामलों में रेलकर्मी दोषी नहीं पाए गए. गुर्रा स्टेशन पर अज्ञात व्यक्ति द्वारा अधजली सिगरेट को वेंटिलेटर में ठूंसने से आग लगने की घटना सामने आई. तीन मामलों में ड्राइविंग की लापरवाही और एक मामले में जानवर के पटरी पर आ जाने से दुर्घटना हुई. यह तथ्य तो बाहरी राज्यों के हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछले सात वर्षों में जो दस रेल हादसे हुए उनकी जांचों का क्या हुआ, उसका कोई अता-पता नहीं है. आप याद करते चलें कि अभी हाल ही 23 अगस्त 2017 को औरैया में कैफियत एक्सप्रेस के 10 कोच दुर्घटनाग्रस्त हो गए थे, जिसमें 25 यात्री गंभीर रूप से घायल हुए थे. उसके पांच ही दिन पहले 19 अगस्त 2017 को मुजफ्फरनगर के पास हुए कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस हादसे में 25 लोगों की मौत हो गई थी और सौ से अधिक लोग घायल हुए थे. 25 जुलाई 2016 को भदोही रेलवे क्रॉसिंग पर स्कूल वैन और ट्रेन की टक्कर में 10 बच्चों की दुखद मौत हो गई थी. 20 मार्च 2015 को रायबरेली में बछरावां के पास वाराणसी एक्सप्रेस हादसे में 32 लोगों की मौत हुई थी. एक अक्टूबर 2014 को गोरखपुर के नंदानगर में कृषक एक्सप्रेस और लखनऊ-बरौनी एक्सप्रेस की टक्कर में 14 लोगों की मौत हुई थी. 31 मई 2012 को हावड़ा से देहरादून जाने वाली दून एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने से तीन लोगों की मौत हो गई थी. 20 मार्च 2012 को हाथरस में रेल क्रॉसिंग पर वाहन और ट्रेन की टैक्कर में 15 लोगों की मौत हुई थी. 10 जुलाई 2011 को फतेहपुर के पास कालका एक्सप्रेस हादसे में 69 लोगों की मौत हो गई थी. 7 जुलाई 2011 को रेल क्रॉसिंग पर बस की ट्रेन से टक्कर में आठ की मौत हुई और 16 जनवरी 2010 को श्रम शक्ति एक्सप्रेस और कालिंदी एक्सप्रेस के बीच टुंडला में हुई टक्कर में छह लोग मारे गए थे.

यह तो यूपी में हुए कुछ रेल हादसों का आंकड़ा है. लेकिन इन हादसों के जिम्मेदार कौन हैं? जांचों का क्या हुआ? जांच हुई भी कि नहीं? इन सवालों का कोई जवाब सामने नहीं है. राज्य सरकार भी केंद्र से इन मामलों पर कोई जानकारी हासिल करने की जहमत नहीं उठाती. नेताओं को देखिए तो हर कोई मुंह उठाए रेल यात्रियों की सुरक्षा और संरक्षा पर बड़ी-बड़ी बातें कहता हुआ नजर आता है. जब भी कोई रेल दुर्घटना होती है, तो नेता कुछ अधिक ही शोर करते हैं. मीडिया भी राग हुआं-हुआं गाता है और फिर दूसरे राग में लग जाता है, रेल महकमा उच्च स्तरीय जांच की ‘बतोलेबाजी’ करता है और फिर लीपापोती में लग जाता है. दुर्घटनाओं के बारे में जांच समितियों की रिपोर्ट क्या आई, किसी को पता ही नहीं चलता. रेल मंत्रालय ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं रखता. यह जनोन्मुखी लोकतंत्र के एक मंत्रालय का हाल है, जिसकी कमाई ही आम लोगों की जेब से होती है. विशेषज्ञ कहते हैं कि रेल बजट को आम बजट में विलय कर देने से रेल मंत्रालय का दायित्व-बोध समाप्त हो गया. अब केवल औपचारिकताएं हो रही हैं. केंद्र सरकार बुलेट ट्रेन चलाने की सियासत करती है, लेकिन जो ट्रेनें पहले से चल रही हैं, वे ही ठीक से चलें, समय से चलें और सुरक्षित चलें, इसकी कोई फिक्र नहीं है. आज अधिकांश ट्रेनें लेट से चल रही हैं, लेकिन इसका कोई नैतिक दायित्व लेने को तैयार नहीं है. उत्तर प्रदेश के रेल हादसों पर रेल मंत्रालय का संवेदनहीन रुख यह बताने के लिए काफी है कि रेल मंत्रालय को आम आदमी से केवल पैसे वसूलना आता है. हादसों की भरपाई के लिए मुआवजों का खेल खेला जाता है, लेकिन भुक्तभोगी तक मुआवजे की रकम भी नहीं पहुंच पाती. कोई इसकी खोज-खबर नहीं लेता. मीडिया को भी इससे कोई लेना-देना नहीं रहता.

आज भारतीय रेल की छवि जिस तरह की बन गई है, इसे लेकर किसी को कोई चिंता नहीं है. हम सामान्य गति की ट्रेनें ही ठीक से नहीं चला पा रहे और लोगों को बुलेट ट्रेन का सियासी-सपना दिखाते हैं. हकीकत और सपने में बड़ा नारकीय फर्क है. बुलेट ट्रेन की जगह आम जनता के लिए गाड़ियों की संख्या बढ़ाए जाने की जरूरत है. रेल यात्रियों की लगातार बढ़ती संख्या के बावजूद कोई नई ट्रेनें नहीं चलाई जा रहीं. भीड़ जर्जर पुल से गिर कर मरती है तो मरती रहे. विशेषज्ञ लगातार झींक रहे हैं कि बढ़ते रेल हादसे गंभीर चिंता का विषय हैं. औसतन सात में से छह दुर्घटनाएं मानवीय भूल और लचर व्यवस्था के कारण हो रही हैं. लेकिन रेल प्रबंधन इन पर नियंत्रण करने में फेल है. रेल का बड़ा अधिकारी रेल संरक्षा की जिम्मेदारी से मुक्त है और खामियाजा छोटा कर्मचारी भुगतता है. एक सांसद ने कटाक्ष किया कि रेलवे में शक्तियां बिना किसी जिम्मेदारी के दी जाती हैं और जिम्मेदार व्यक्ति को कोई शक्ति नहीं दी जाती. गैरजिम्मेदार रेल महकमे ने अपने तकनीकि-विशेषज्ञों का विकास रोक दिया है. भारतीय रेल दूसरे देशों से तकनीक आयात के भरोसे पर चल रही है. हम जापान से बुलेट ट्रेन का आयात कर रहे हैं जबकि जापान में रेल की शुरुआत भारत के बाद हुई थी. भारत में रेल की शुरुआत 1853 में हुई और जापान में 1872 में. लेकिन जापान ने 1964 में बुलेट ट्रेन बना ली, हम आज तक बुलेट ट्रेन का सपना ही देखते रहे और सियासत की दुकान चमकाने के लिए उसकी तकनीक अत्यंत महंगे खर्च पर खरीद रहे हैं.

रेलवे में यात्रियों का सुरक्षा को लेकर रेल प्रबंधन और सरकार कितनी गंभीर है, इसे आपने देखा. रेल में अपराध भी बेतहाशा बढ़ा है और पुलिस की व्यवस्था पूरी तरह नाकारा साबित हो रही है. चोरी लूटपाट से लेकर ट्रेन में बलात्कार और ट्रेन से बाहर फेंक देने की घटनाएं लोग लगातार भुगत रहे हैं. यात्रियों की अन्य सुविधाएं और खान-पान की स्थिति तो और भी विचित्र है. आए दिन खाने के सामान में कीड़े, तेलचट्‌टे छिपकलियां निकलती हैं. तेजस जैसी ट्रेन में 60 से अधिक यात्री खाना खाकर बीमार पड़ गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. ऐसी जानलेवा हरकतों पर भी रेल प्रबंधन का बयान सुनें, तो उससे नेताओं को भी शर्म आने लगेगी. रेलवे की गलीज खान-पान व्यवस्था को लेकर महालेखाकार (कैग) भी गंभीर आपत्तियां दर्ज कर चुका है, लेकिन किसकी खाल पर असर पड़ता है!

कैग भी यह कह चुका है कि रेल में मिलने वाला खाना इंसान के खाने के लायक नहीं है. विडंबना यह है कि कैग की यह रिपोर्ट संसद में भी रखी जा चुकी है, लेकिन संसद पर भी कोई फर्क नहीं पड़ा. बस, संसद का खाना दुरुस्त रहना चाहिए. कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि रेलवे स्टेशनों पर जो खाने-पीने की चीजें परोसी जा रही हैं, वो इंसानों के इस्तेमाल के लायक नहीं हैं. डिब्बाबंद और बोतलबंद चीजों को एक्सपायरी डेट के बावजूद बेचा जा रहा है. दुरंतो एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों में खाने में चूहे और तेलचट्‌टे विचरण करते नजर आते हैं. यात्री कटलेट ऑर्डर करता है, तो उसे लोहे की कीलें कटलेट में परोसी जाती हैं. ट्रेनों में कैटरिंग स्टाफ का सफाई से कोई लेनादेना नहीं रहता. कैग और रेलवे की साझा टीम ने देश के 74 विभिन्न स्टेशनों और 80 ट्रेनों का निरीक्षण करने के बाद रिपोर्ट तैयार की थी.

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