कांग्रेस सांसद राहुल गांधी द्वारा हाल में ‘हिंदू और हिन्दुत्व’ के बीच सूक्ष्म विभाजक रेखा को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश कुछ वैसी ही है कि मिट्टी को मिट्टी के घड़े से अलग करना। क्योंकि मिट्टी से ही घड़ा बनता है और घड़ा फूटने के बाद फिर मिट्टी में मिल जाता है। राहुल स्वयं हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बारे में कितनी गहराई से जानते हैं, पता नहीं, लेकिन जो मुद्दा वो उठा रहे हैं, वो देश के बहुसंख्यक हिंदू वोटर को कांग्रेस के पक्ष में कितना मोड़ पाएगा, यह बड़ा सवाल है। राहुल अपनी राजनीतिक रैलियों में जिस दार्शनिक बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, क्या वह वास्तव में हर हिंदू के िलए आत्मावलोकन का कारण बन सकती है? क्या राहुल द्वारा उठाया गया सवाल हर हिंदू को आत्मसंशय की अोर ठेल सकता है? किसी भी हिंदू के लिए ‘हिंदू’ कहलाने और ‘हिंदुत्व’ को नकारने के बीच कौन-सी लक्ष्मण रेखा है, है भी या नहीं? तात्विक दृष्टि से हिंदू सोच ही हिंदुत्व नहीं है तो और क्या है? ऐसे में व्यावहारिक स्तर पर ‘हिंदू’ खुद को ‘हिंदुत्व’ से अलग कैसे करे और इसे कैसे जताए? हिंदू और हिंदुत्व की राजनीतिक तासीर की अलग अलग स्केनिंग कैसे करे? अगर यह मान लें कि ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्व’ खुली सीमाअों वाले दो अलग देश हैं तो इसके आर-पार आना- जाना राजनीतिक दृष्टि अपराध कैसे हो सकता है?
इन पेचीदा और तकरीबन हर हिंदू में आत्म शंका पैदा करने वाले इन सवालों पर चर्चा से पहले यह देखें कि राहुल गांधी ने कहा क्या था? जयपुर में कांग्रेस की महंगाई विरोधी राजनीतिक रैली में राहुल ने भाजपा और आएसएस पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए कहा कि ‘मैं ‘हिंदू’ हूं, ‘हिंदुत्ववादी’ नहीं हूं। ‘हिन्दू’ और ‘हिंदुत्ववादी’ दो अलग अर्थ लिए शब्द हैं। बकौल राहुल महात्मा गांधी हिंदू थे लेकिन (उनकी हत्या करने वाला) नाथूराम गोडसे हिंदुत्ववादी था। राहुल ने यह भी कहा कि हिंदू हमेशा सत्य को ढूंढता है जबकि हिंदुत्ववादी पूरी जिंदगी सत्ता को ढूंढने और सत्ता पाने में निकाल देता है। वह सत्ता के लिए किसी को मार भी सकता है। साथ ही उन्होंने कहा कि ये देश हिंदुओं का है न कि हिंदुत्ववादियों का। एक तरफ हिंदू है और दूसरी तरफ हिंदुत्ववादी। एक तरफ सत्य, प्रेम और अहिंसा है और दूसरी तरफ झूठ, नफरत और हिंसा। हिंदू सच्चाई की राह पर चलते हैं, नफरत नहीं फैलाते। वहीं, हिंदुत्ववादी नफरत फैलाते हैं और सत्ता छीनने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यही नहीं एक अन्य प्रसंग में उन्होंने पीएम मोदी के गंगास्नान पर यह कहकर कटाक्ष किया कि हिंदू अकेले गंगास्नान नहीं करता, जबकि हिंदुत्ववादी अकेले ही गंगास्नान करता है। इसके बाद अमेठी में हार के बाद ढाई साल पश्चात अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ पद यात्रा करते वक्त राहुल ने संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है, पर भी हमला बोलते हुए कहा कि हिंदू मानते हैं कि हर व्यक्ति का डीएनए अलग और अद्वितीय होता है लेकिन हिंदुत्ववादी ऐसा नहीं मानते। राहुल के इन ‘हिंदू’ केन्द्रित बयानों पर फिलहाल आरएसएस की अोर से सिर्फ इतनी प्रतिक्रिया आई कि उन्हें हिंदुत्व का ज्ञान नहीं है। संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी ने कहा कि यह बेकार की बहस है। ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्व’ में कोई फर्क नहीं है। कुछ ने यह बताने की कोशिश भी की कि ‘हिंदू की केन्द्रीय चेतना ही हिंदुत्व है’ आदि।
जब भी हिंदुत्व की बात आती है तो पहला हमला सावरकर पर होता ही है। अमूमन सावरकर को ही ‘हिंदुत्व’ का तात्विक व्याख्याकार माना जाता है। लेकिन हकीकत में यह शब्द उनका दिया हुआ नहीं है बल्कि एक बंगाली साहित्यकार, शिक्षाविद और कट्टर सनातन हिंदूवादी चंद्रनाथ बसु ने 1892 में इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया। चंद्रनाथ का झुकाव शुरू में ब्रह्मो समाज की अोर था, लेकिन बाद में वो कट्टर सनातनी हो गए। उन्होंने अपनी बांगला कृति ‘हिंदुत्व: हिंदूर पत्रिका इतिहास’ में अद्वैत वेदांत मत के आधार पर यह स्थापित किया कि ‘हिंदुत्व की छतरी’ वास्तव में विविध परंपराअों और कई बार परस्पर विरोधी लगने वाले विश्वासों और आचरण का समुच्चय है। उन्होने यह भी कहा कि केवल हिंदुअों में ही मानवता को समझने की आध्यात्मिक चेतना है। बसु धर्मातंरण के भी घोर विरोधी थे। बाद में 1923 में विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदुत्व’ की अलग व्याख्या की। उन्होंने कहा कि हिंदू वो है, जिसके लिए पुण्य भूमि और पितृ भूमि भारत है। यह व्याख्या मौलिक थी, हालांकि इसमें कई पेंच भी हैं। सावरकर बुद्धिवादी हिंदू थे। उनके अनुसार हिंदुत्व का दायरा हिंदू धर्म की तुलना में बहुत विशाल है। संक्षेप में समझें तो हिंदुअों का गुण ही हिंदुत्व है।
राहुल जिस ‘हिंदू बनाम हिंदुत्व’ की बात कर रहे हैं, उसका संदर्भ राजनीतिक है न कि धार्मिक या आध्यात्मिक। अगर वो हिंदुत्व को केवल नफरत, हिंसा या स्वार्थ से जोड़कर बताना चाह रहे हैं तो यह आंशिक सचाई हो सकती है। क्योंकि जब ‘हिंदू’ का मूल भाव और मानस ही हिंसक नहीं है तो उसका ‘हिंदुत्व’ हिंसक कैसे हो सकता है? होगा भी तो कृत्रिम होगा। जो लोग साम्प्रदायिक घृणा को जायज मानते हैं, उनकी संख्या थोड़ी है और ऐसे तत्व हर धर्म, सम्प्रदाय और समुदाय में हैं। यदि राहुल के अनुसार ‘हिंदुत्ववादी’ हिंसा का पर्याय है तो इसके पीछे भी प्रतिक्रियात्मकता ज्यादा है। बीते 3 दशकों में उभरे उग्र हिंदुत्व के पीछे हिंदुअोंकी अतिवादी गोलबंदी तो है ही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभरा धार्मिक कट्टरवाद भी है। लेकिन वह हिंदू का स्थायी भाव नहीं है। वैसे भी केवल कट्टरवाद के सहारे आप लंबा सफर तय नहीं कर सकते।
राहुल हिंदुअोंको संदेश दे रहे हैं कि वो ’हिंदू’ बनें, ‘हिंदुत्ववादी’ न बनें। वो यह आरोप भी लगा रहे हैं कि आरएसएस और भाजपा ‘हिंदुत्ववाद’ का दुरूपयोग अपने राजनीतिक हितो के लिए और सत्ता प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। ठीक है, लेकिन खुद राहुल गांधी भी हिंदुअोंको ‘हिंदुत्व’ से अलग रहने का आह्वान इसीलिए कर रहे हैं ताकि हिंदुअोंमें कांग्रेस का जनाधार फिर से बढ़ाया जा सके। कांग्रेस फिर दिल्ली के तख्त पर आसीन हो सके। यह भी अपने आप में ‘सत्ताग्रह’ ही है, कोई ‘सत्याग्रह’ नहीं। दूसरे, हिंदू और हिंदुत्व का मुद्दा उठाकर राहुल आखिर उसी पिच पर खेल रहे हैं, जो आरएसएस और भाजपा के ‘हिंदुत्ववादी’ क्यूरेटरों ने बनाई हुई है। जिसका मकसद ही है कि सारी बाॅलिंग, बैटिंग और फील्डिंग भी ‘हिंदू केन्द्रित’ हो। राहुल द्वारा ‘हिंदू बनाम हिंदुत्व’ का मुद्दा उठाने से हिंदू कितने आंदोलित होंगे, कहना मुश्किल है, लेकिन गैर हिंदू अल्पसंख्यको के मन में यह संदेह जरूर पैदा हो सकता है कि अगर कांग्रेस भी ‘हिंदू’ के पुण्य स्नान में लग गई है तो उनके हितों के बारे में कौन सा राजनीतिक दल सोचेगा। अगर कांग्रेस ने भी ‘बहुसंख्यकवाद’ से निपटने के लिए बहुसंख्यकों की ही बैसाखी पर चलना तय किया है तो राजनीतिक पुण्य किसने खाते में जमा होगा, यह समझने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है। यदि कांग्रेस इसकी आड़ में उस पर लगने वाले ‘मुस्लिमपरस्ती’ के आरोप को धोना चाहती है तो भी यह उसका सही तोड़ नहीं है। यह फायदा उन्हें आम आदमी के मुद्दे और तकलीफों को मुखरता से उठाने पर ज्यादा हो सकता है। इस लिहाज उनकी बहन प्रियंका यूपी में महिला सशक्तिकरण को लेकर जो राजनीति कर रही हैं, उसका ज्यादा राजनीतिक लाभांश मिल सकता है। दरअसल राहुल खुद को मोदी से ज्यादा ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्ववादी’ साबित करने जाएंगे, तो शायद कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे। इस महीन बहस से कांग्रेस काार्यकर्ता भी ‘हिंदू’ मतदाता को कैसे ‘कन्वींस’ कर पाएगा, समझना मुश्किल है। क्योंकि ‘हिंदू और हिंदुत्व’ की यह बहस अकादमिक और दार्शनिक तो हो सकती है, राजनीतिक मेराथन में गोल्ड मेडल नहीं दिलवा सकती। मान लें कि इस बहस से कांग्रेस के लिए कोई अमृत निकलेगा भी तो उसमें बरसों लगेंगे। राहुल और उनके सलाहकार सत्ता स्वयंवर का कोई दीर्घकालिक दांव खेल रहे हों और आने वाले दशको में कोई नया नरेटिव तैयार करने में लगे हों तो अलग बात है, वरना अभी कांग्रेस का जो हाल है, उसमें पार्टी के ‘हिंदू’ क्षत्रप ही नेतृत्व के खिलाफ तलवारें भांज रहे हैं, उस पर ध्यान देना ज्यादा सामयिक और सार्थक होगा। ‘हिंदू’ कांग्रेसी पार्टी से न छिटकें इसका उपाय करना समीचीन होगा। वैसे भी एक आम हिंदू के लिए यह यक्ष प्रश्न ही है कि वह ‘राजनीतिक हिंदू और अराजनीतिक हिंदुत्व’ को अलग-अलग पलडों में कैसे तौले?
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे’
राहुल का ‘हिंदू बनाम हिंदुत्व’: ‘सत्याग्रह’ या ‘सत्ताग्रह’ ?
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