अपनी पीढ़ी के किसी भी नौजवान की तरह राहुल छुट्टी लेकर आराम करना चाहते हैं. वह अपने लिए एक काम चुनते हैं. उस काम की उन में समझ भी होती है, लेकिन अगर काम में समय लगने वाला हो तो वह जुट कर काम नहीं करना चाहते. राहुल यह स्वीकार करने के मामले में भी अजीब हैं कि उनसे भूल हो गई थी और सोचने के लिए उन्हें समय चाहिए. वह भी अपनी मां से दूर. यह किसी को मालूम नहीं है कि वह कहां गए हैं (शायद अपने विशाल सैनिक फॉर्म के बोल्ट-होल में छुपे हों). वह कब आएंगे और पार्टी को कैसे चलाना चाहेंगे, यह भी किसी को नहीं पता.
कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष होना एक अस्थाई मामला हुआ करता था. पार्टी हर साल अपना अध्यक्ष का चयन करती थी. कभी-कभी ही ऐसा होता था कि कोई अध्यक्ष पुनर्निर्वाचित होता था. सुभाष चन्द्र बोस दो टर्म (अवधि) और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब वार्षिक अधिवेशन बुलाना संभव नहीं था, तो मौलाना आजाद 6 साल तक अध्यक्ष के पद पर बने रहे. आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री पार्टी का वास्तविक नेता होता था और अध्यक्ष की हैसियत नाम मात्र रह गई थी. इंदिरा गांधी और नेहरू के बीच के समय में यह पद एक बार फिर अहम हो गया था. लेकिन इंदिरा गांधी ने कमज़ोर अध्यक्ष की पुरानी परम्परा को फिर से स्थापित किया. तब जा कर इस पद की अहमियत को लेकर नीलम संजीव रेड्डी का भ्रम टूट गया.
दरअसल, यह सोनिया गांधी थीं, जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद को एक गंभीर राजनीतिक पद बना दिया. उन्हें ऐसा करना ही था, क्योंकि सीताराम केसरी के कार्यकाल में पार्टी कमज़ोर होती जा रही थी (हालांकि उस समय पार्टी की हालत इतनी बुरी नहीं थी, जितनी आज है). बहरहाल, सोनिया का अध्यक्ष पद पर बने रहने की अवधि सबसे लंबी है. उन्होंने अपने कार्यकाल में इस पुरानी पार्टी में कार्यकारी गुणवत्ता को बहाल किया. उन्होंने खुद प्रधानमंत्री नहीं बनने का फैसला किया, लेकिन किसी के मन में शक की गुंजाइश नहीं थी कि अन्य गांधियों की तरह असल बॉस कौन है.
इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी न केवल मई 2014 के आम चुनाव में हारी, बल्कि उसके बाद होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है. इसकी एक वजह यह है कि पार्टी देश के शहरी नौजवानों से कट गई है और दूसरी वजह यह है कि लगभग पांच साल से सोनिया गांधी की सेहत अच्छी नहीं रही है. हम यह तो नहीं कह सकते कि उन्हें क्या हुआ है, लेकिन पिछले दो चुनावों की तरह वह 2014 में चुनाव प्रचार नहीं कर सकीं.
सोनिया गांधी के संबंध में एक असाधारण तथ्य यह है कि वह राजनीति को नापसंद करतीं थी और उन्होंने राजीव गांधी को राजनीति में शामिल होने से रोका था, लेकिन राजीव गांधी गद्दी के उतराधिकारी थे और तोहफे में उन्हें लोक सभा में सबसे बड़ा बहुमत मिला था, जिसे बाद में उन्होंने गवां दिया. अपने आकर्षक व्यक्तित्व के बावजूद उनमें राजनीतिक कौशल नहीं था. संजय गांधी में यह कौशल मौजूद था, लेकिन यह किसी को पता नहीं कि जब सत्ता उनके हाथ में आती तो वह उसका किस तरह से इस्तेमाल करते.
राहुल गांधी की बहुत समस्याएं हैं. अब उन्हें इस खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि उन्हें अब पसंद नहीं किया जाता और उनमें न तो राजनीतिक कौशल है और न ही प्रतिभा. राजनीतिक दांव-पेंच सीखने के लिए उनके सामने उनकी मां का उदाहरण था. राजनीति को नापसंद करने वाली सोनिया गांधी ने राजनीति के दांव-पेंच अनोखे ढंग से सीखे. इसके लिए उन्होंने कोई औपचारिक या अनौपचारिक ट्रेनिंग नहीं ली. राहुल पतंग तो उड़ाते हैं, लेकिन वह उन्हें छोड़ देते हैं. मिसाल के तौर पर पार्टी प्राइमरी का चुनाव या भट्टा परसौल आन्दोलन के नाम लिए जा सकते हैं. राजनीति 24 घंटे चलने वाला काम है.
अपनी पीढ़ी के किसी भी नौजवान की तरह राहुल छुट्टी लेकर आराम करना चाहते हैं. वह अपने लिए एक काम चुनते हैं. उस काम की उन में समझ भी होती है, लेकिन अगर काम में समय लगने वाला हो तो वह जुट कर काम नहीं करना चाहते. राहुल यह स्वीकार करने के मामले में भी अजीब हैं कि उनसे भूल हो गई थी और सोचने के लिए उन्हें समय चाहिए. वह भी अपनी मां से दूर.
यह किसी को मालूम नहीं है कि वह कहां गए हैं (शायद अपने विशाल सैनिक फॉर्म के बोल्ट-होल में छुपे हों). वह कब आएंगे और पार्टी को कैसे चलाना चाहेंगे, यह भी किसी को नहीं पता. दुखद सच तो यह है कि इससे कोई फ़़र्क नहीं पड़ता. वह अब अप्रासंगिक हो गए हैं. इस बीच सोनिया गांधी ने फिर से सक्रिय नेतृत्व संभाल लिया है. वह सरकार विरोधी प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहीं हैं और लोकसभा में भाषण दे रही हैं. इसका बहुत कम लोगों को अंदाज़ा है कि प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद सोनिया कांग्रेस पार्टी की वरिष्ठ सांसद हैं. वह केवल वंशवाद की वजह से यहां नहीं हैं. राहुल गांधी को पार्टी का कमान सौंपने में असफल होने के बाद सोनिया गांधी को फिर से पार्टी का कार्यभार संभालना होगा.
फ़िलहाल कांग्रेस को 2014 में असफलता के कारणों पर गंभीरता से और खुले रूप से विचार करने की आवश्यकता है. उसे अपनी कार्यकारणी में अनुभवी लोगों को लाकर संगठन में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा. उसे गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा कि मोदी विरोध के नारे के अतिरिक्तऔर कौन से मुद्दे हैं, जिन पर पार्टी विश्वास करती है. उसे अपने सदस्यों को अगले चुनाव में केवल पार्टी टिकट के लिए इंतज़ार करवाने के बजाय ज़मीनी स्तर पर पार्टी को पुनर्गठित करके काम करना होगा.
जहां तक राहुल का सवाल है, तो उन्हें छुट्टी पर ही रहने दिया जाए. यह कांग्रेस को बचाने का एक तरीका हो सकता है. नहीं तो अलविदा कांग्रेस.