पूरे विपक्ष में एक ही धनुर्धर है – राहुल गांधी। जो अकेला इस सरकार को चेता रहा है और अकेला इस सरकार से सवाल दर सवाल पूछ रहा है। चाहे कोरोना का मामला हो या चीन का या राफेल का । अकेला राहुल गांधी है जिसने अडानी मामले पर मोदी की नींद हराम कर दी है। अकेला राहुल गांधी है जिसने चार हजार किमी की यात्रा करके ‘नफरत के बाजार में मुहब्बत’ की दुकान खोली है। आज भी अकेला अडानी से मोदी जी के रिश्ते पर सवाल कर रहा है। पार्लियामेंट में हिला कर रख दिया हर किसी को। मोदी जी से जवाब देते नहीं बना। नतीजे में मोदी जी ने जो कुछ राहुल गांधी के साथ किया वह सारी दुनिया जानती है। आज भी राहुल गांधी डटे हुए हैं। और आप हैं कि मानते ही नहीं। मेरे पिछले हफ्ते के लेख पर एक सज्जन की चेतावनी भरी प्रतिक्रिया मिली । यह अलग है कि कुछ लोगों ने सराहा भी। पर एक मोहतरमा ने तो साफ कहा, कभी मोदी जी पर लिखिए। उन्हें पता नहीं कि मोदी जी पर मैं उस दिन से लिख रहा हूं जिस दिन से उन्होंने पहली बार शपथ ली थी । मोदी चेताया भी गया था कि अपनी लेखनी की धार कुछ हल्की कीजिए। मैंने राहुल गांधी के सिर्फ व्यक्तित्व पर लिखा था । वही जो कई लोग कई बार कह चुके हैं और अभी भी कई प्रबुद्ध लोग जब तब उनकी ‘मैच्युरिटी’ पर सवाल उठाते रहते हैं। राहुल गांधी ने क्या किया, कैसे किया और क्या कर रहे हैं। यह अलग है और राहुल गांधी में राजनीतिक परिपक्वता कितनी है यह अलग सवाल है। हम राहुल गांधी पर सवाल उठाएं तो इससे मोदी मजबूत नहीं हो जाते । शायद कुछ लोगों को ऐसा ही भ्रम है। मेरा प्रश्न आज भी अपनी जगह है कि राहुल गांधी में राजनीतिक परिपक्वता कितनी है, राजनीतिक चातुर्य और कुशलता कितनी है और वाक्पटुता का चातुर्य कितना है। क्या वे अपनी वाक् पटुता से प्रभावित कर पाते हैं। ये एक अच्छे और सुलझे राजनेता के गुण हैं। आज भी मेरा मानना है कि उन्हें ठोक बजा कर नेता बनाया जा रहा है या बनाया गया है।
कल ‘लाउड इंडिया शो’ में संतोष भारतीय के साथ अभय कुमार दुबे ने राहुल गांधी के संदर्भ में एक दिलचस्प टिप्पणी की । वे राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल में अंतर समझा रहे थे। उन्होंने कहा, राहुल गांधी की शैली एंग्रीमैन की है और वे एंग्रीमैन बने रहना चाहते हैं। उनका यह कथन शत प्रतिशत सही है। अब आप सोचिए जीवन में भी कोई व्यक्ति आपसे जब भी मिले वह एंग्रीमैन की भांति ही मिले तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी, शायद यही कि यह व्यक्ति सामान्य नहीं है। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी में सौम्यता और मधुरता नहीं है। लेकिन उन्हें लगता है कि राजनीति ऐसी ही है । जितने आक्रामक आप रहेंगे उतने ही सराहे जाएंगे। यात्रा की मुहब्बत एक ओर है वह राजनीति नहीं है राजनीति यही है आक्रामक होकर सवाल पूछना। और एक ही भाषा में, एक ही शब्दावली में। सावरकर और आरएसएस हमेशा मुंह पर रहता है तब यह भी नहीं सोचना कि इससे अपने दलों की एकता में ही रार पड़ेगी । यात्रा के दौरान सावरकर का नाम लेकर उद्धव ठाकरे को नाराज़ किया था। उसे भूल गए। अब फिर सावरकर का नाम लेकर ठाकरे को नाराज़ कर दिया। कोई भी सोच सकता है कि बोलता है तो सोचता नहीं।
आज राहुल गांधी पूरे देश में सहानुभूति के पात्र हैं। बीजेपी और आरएसएस ने उन्हें पप्पू बनाया (सवाल है कोई किसी मजबूत व्यक्तित्व वाले को कैसे इतनी आसानी से पप्पू सिद्ध कर सकता है) । और इधर मोदी ने उन्हें देशव्यापी सहानुभूति का पात्र बना दिया। मोदी का डर और उनकी बौखलाहट साफ नजर आती है। यह सब इतिहास में दर्ज हो रहा है। इसे आप यह भी कह सकते हैं कि मोदी ने राहुल गांधी को देश का नेता बनने का एक सुनहरा मौका दे दिया । लेकिन राहुल गांधी इस मौके को कितना अपने पक्ष में कर पा रहे हैं या कर पाएंगे। अतीत को देखकर तो नहीं लगता। न वह चातुर्य राहुल गांधी में है न उनके सलाहकारों में। अगर होता तो जिस दिन उनके खिलाफ कोर्ट का फैसला आया था उसी के अगले दिन डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में अपील दायर कर दी गई होती। (सुना है आज अपील दायर की जा रही है) । इधर राजनीति के चतुर खिलाड़ी केजरीवाल अपने लिए बीच की स्पेस देख रहे हैं । शायद वे राहुल गांधी की सीमाओं को अच्छे से जानते समझते हैं। इसीलिए अभय दुबे ने राहुल गांधी और केजरीवाल की तुलना की ।
विपक्ष में राजनीति के ताजे हालात पर संतोष भारतीय का अभय दुबे से सवाल था कि राहुल गांधी और केजरीवाल में सबसे अच्छा ‘कम्युनिकेटर’ कौन है। इन दोनों की बातचीत मेरी ऊपर लिखी बातों में सहायक है। अभय जी का कहना था कि केजरीवाल की शैली में आत्मीयता है वे आम आदमी से सीधे कनेक्ट करते हैं। राहुल गांधी एंग्रीमैन हैं और वे एंग्रीमैन बने रहना चाहते हैं। राहुल गांधी के आने से कांग्रेस का कोई विस्तार नहीं हुआ है बल्कि वे सिकुड़ती हुई पार्टी के नेता हैं जबकि केजरीवाल पार्टी का निरंतर विस्तार कर रहे हैं। वे बढ़ती हुई पार्टी के नेता हैं। वे राज्य दर राज्य बढ़ रहे हैं। यहां मैं अपनी ओर से जोड़ना चाहता हूं कि राहुल गांधी ने उदयपुर सम्मेलन में विपक्ष को छोटी छोटी पार्टियां कह कर अपमानित किया था और इस पर कई दिन बहस भी चली थी। बाद में जब उन्हें अहसास हुआ तो उन्होंने प्रादेशिक पार्टियों के महत्व को भी माना। एक तरफ विपक्ष की एकता की बात की दूसरी ओर मेघालय में ममता बनर्जी को अपमानित किया। एक न समझ में आने वाले नेता की न समझ आने वाली बातें। अब सबसे बड़ा सवाल है कि कांग्रेस करे तो क्या करे । उसके पास फिलहाल कोई नेता हैं भी कहां। प्रियंका गांधी की अनुकूलता को अभय दुबे ने सिरे से खारिज कर दिया। सही भी है। संतोष भारतीय का एक प्रश्न और बड़ा माकूल था। उन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने के संदर्भ में वीपी सिंह का हवाला दिया। उनका कहना था कि जिस तरह राजीव गांधी को हराने के लिए वीपी सिंह ने सारे छोटे बड़े दलों को साथ लिया था उसी तरह बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस को ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए। कर्नाटक के संदर्भ में अभय जी का मानना था कि वहां कांग्रेस को जरूरत भी क्या है। यहां अभय जी भूल गए कि बीजेपी ऐसे वक्त में क्या करती है। किसी जगह यदि बीजेपी के पूर्ण बहुमत आने के आसार भी हों तो भी वे एनडीए के दलों को नहीं छोड़ते। तो क्या ऐसे में कर्नाटक में जेडीएस को साथ लेकर अपनी जीत और सुनिश्चित नहीं कर लेनी चाहिए। छोटे दलों को साथ लेने में हर्ज ही क्या है।
तो हमें सबसे बड़ी परेशानी राहुल गांधी की ‘मैच्युरिटी’ से है। इस सबके बावजूद एक बात तो तय है कि एक समय राहुल गांधी को बीजेपी मोदी के सामने मुकाबले के रूप में चाहती थी । और जब तक राहुल गांधी ने लोकसभा में भाषण नहीं दिया था तब तक भी बीजेपी का यही मानना था। लेकिन जब से राहुल गांधी ने मोदी और अडानी के रिश्तों पर सवाल उठाए हैं तब से मोदी की बौखलाहट उनकी क्रूरता के रूप में सामने आ रही है। वे और बीजेपी अब नहीं चाहती कि राहुल गांधी मोदी के मुकाबले में आएं। अगर ऐसा हुआ तो जन जन तक यह सवाल जाएगा। मोदी अडानी और अपनी डिग्री पर घिरे हुए हैं। जिस दिन आम जन तक ये दो प्रश्न पहुंच गए उस दिन मोदी की उलटी गिनती शुरू समझिए। पर फिलहाल समाज के सबसे निचले तबके को इन दोनों सवालों से कोई लेना देना ही नहीं । बल्कि ये प्रश्न उस तक कभी पहुंचने दिए जाएंगे ही नहीं। क्या इस मामले में विपक्ष कोई रणनीति बनाएगा। मैं 2014 में उस व्यक्ति को धूर्त और चालाक समझता था बाद में मुझे बेशर्म और जिद्दी लगा अब तो मूर्ख लगता है। और जब किसी जिद्दी किस्म के मूर्ख में डर भी समा जाए तो समझिए क्या हो सकता है। तो राहुल गांधी और कांग्रेस को इन सब चीजों को समझना होगा। मेरा मानना है कि जिस दिन राहुल गांधी ‘एंग्रीमैन’ का तबका अपने से हटाएंगे उस दिन वे राजनीतिक रूप से परिपक्व नजर आएंगे। एक हल्का लेकिन महत्वपूर्ण उदाहरण अमिताभ बच्चन का है । अगर जीवनभर वे एंग्रीमैन की भूमिका में रहते तो कब के पिट चुके होते। पर उन्होंने स्वयं अपने को बदला । आज वे किस ऊंचाई पर हैं सब जानते हैं।
अभय दुबे शो देखते सुनते हुए एक बात अक्सर खटकती है। संतोष जी के प्रश्न इतने लंबे हो जाते हैं कि उनमें एक उलझाव सा लगता है। क्या ही बेहतर हो कि प्रश्न छोटे हों और क्रमवार हों। एक ही प्रश्न में कई प्रश्न, हमें तो डर यह लगता है कि अभय जी किसको याद रखें और किसको छोड़ें या भूलें। इसीलिए कभी कभी होता यह है कि प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं मिलता। कभी कभी ऐसा भी लगता है कि संतोष जी समय के इंस्टेंट युग का प्रश्न करते हैं और अभय जी इंस्टेंट को भूल कर शास्त्रीय विवेचन पर आ जा रहे हैं। तो अनुरोध है कि सीधा , सटीक और छोटा प्रश्न हो तो बेहतर है। इतना इसलिए लिखा कि यह कार्यक्रम बहुत पसंद है । और संडे मिस होता है तो अच्छा नहीं लगता। खैर ।
इस बार दूसरा बेहतरीन प्रोग्राम था । एक्टर इरफान खान पर । इरफानियत के मायने । क्या शानदार प्रोग्राम था। कोई प्रोग्राम शानदार कैसे हो सकता है। रोचक या दिलचस्प हो सकता है । पर सच मानिए यह प्रोग्राम शानदार था । रवि चतुर्वेदी इरफान खान के गुरु रहे हैं । और एनएसडी के समय से रहे हैं। उन्होंने इरफान खान से जुड़ीं दिलचस्प बातें बताईं । दूसरे अजय ब्रह्मात्मज, जिन्होंने इरफान पर काफी मोटी पुस्तक लिखी है। इरफान खान को जो गहरे से न जानता हो वह यह प्रोग्राम जरूर देखें । एक मजेदार किस्सा कि ‘पीकू’ फिल्म में इरफान खान ने अपने हिस्से के कई डायलॉग बिना बोले ही इतनी जबरदस्त एक्टिंग की कि अमिताभ बच्चन तक न केवल एक्टिंग के समय परेशान हो गये बल्कि अवाक भी रह गये । बाद में उन्होंने इरफान से पूछा तुम ऐसी गजब एक्टिंग कैसे कर लेते हो यार । रवि चतुर्वेदी ने बताया कि इरफान खान सही मायनों में ‘स्कूल ऑफ एक्टिंग ‘ थे ।
विजय विद्रोही का कार्यक्रम देखना भी सुबह की वैसी ही आदत बन गई है जैसे रात दस बजे ‘सत्य हिंदी’ का आखिरी बुलेटिन। विजय जी की शैली भी दिलचस्प है। यह दर्शकों से संवाद की शैली है।
धर्मवीर भारती का पचास साठ साल पहले लिखा नाटक ‘अंधा युग’ आज भी क्यों प्रासंगिक है यह इस बार मुकेश कुमार के शो ‘ताना बाना’ का मुख्य विषय था। प्रसिद्ध रंगकर्मी राम गोपाल बजाज, भानु भारती और रवींद्र त्रिपाठी की सार्थक बातचीत रही इस संदर्भ में।
राजनीति पर लौटें तो यह दौर सबसे ज्यादा उत्तेजना भरा है । अब बीजेपी के सामने राहुल गांधी और केजरीवाल समान रूप से हैं । फिलहाल समान रूप से दोनों पर बीजेपी के ‘हल्ले’ हैं। पर सावधानी इसमें बरती जा रही है कि अडानी का मुद्दा किसी भी हालत में बहस का मुद्दा न बन पाए। और विपक्ष यही चाहता है। मोदी ने बहुत ही नीचे जाकर नीचे वालों की बात कह दी है कि मेरे नाम की सुपारी विपक्ष ने उस दिन से ली है जिस दिन से मैं गद्दी पर बैठा हूं। अंडरवर्ल्ड की भाषा में इतनी तुच्छ बात कोई प्रधानमंत्री कैसे कह सकता है। दरअसल केजरीवाल की भाषा हो या मोदी की भाषा दोनों निचले तबके को प्रभावित करने वाली भाषा बोल रहे हैं। फिलहाल तो कुरुक्षेत्र में सेनाएं डट रही हैं देखिए एक साल में क्या होता है।
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