Santosh-Sirदेश के प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस में ऊहापोह जारी है. राहुल गांधी बार-बार कह रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते, बल्कि पार्टी चलाना चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने औपचारिक रूप से कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद को स्वीकारा है. राहुल इस पद को यदि न भी स्वीकार करते, तब भी लोग कांग्रेस में उनका स्थान उनकी मां के बराबर ही मानते हैं. कभी राहुल गांधी के लिए मंत्रियों का एक समूह अचानक बोलने लगता है कि प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही बनेंगे. कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि राहुल गांधी यदि अभी प्रधानमंत्री नहीं बने, तो 2014 में उनके लिए प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं काफी क्षीण हो जाएंगी, क्योंकि उनकी राय में कांग्रेस की सीटें इतनी नहीं आने वाली हैं, जितनी अभी आई हैं.

राहुल गांधी को इस देश में जिन लोगों के साथ होना चाहिए और जिस समझदारी के साथ होना चाहिए, वह अभी होता दिख नहीं रहा है. कांग्रेस जिसे भी चाहे प्रधानमंत्री बनाए, यह उसका अधिकार है, लेकिन देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद वह अगर देश को न जानने वाला निकला, तो इस देश में अराजकता का ख़तरा पैदा हो जाएगा. मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका को जानते हैं, इंग्लैंड को जानते हैं, यूरोप को जानते हैं और अमेरिकी अर्थशास्त्र जानते हैं, लेकिन अफसोस! वे हिंदुस्तान का अर्थशास्त्र नहीं जानते. अगर जानते होते, तो न महंगाई बढ़ती, न बेरोज़गारी बढ़ती और न ही भ्रष्टाचार बढ़ता.

मनमोहन सिंह ने यह संकेत दिया है कि वह तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं. यह संकेत काफी महत्वपूर्ण है. मनमोहन सिंह काफी स्वस्थ हैं और उनके मन में यह लालसा अगर न हो, तो आश्‍चर्य है, क्योंकि अगर वह लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गए, तो कांग्रेस में एक ऐसा नया इतिहास रचेंगे, जो सिर्फ़ जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी रच पाए थे. मनमोहन सिंह के इस संकेत के पीछे दो कारण हो सकते हैं. एक, इतिहास बनाने की कोशिश का हो सकता है और दूसरा, इंटेलिजेंस ब्यूरो की निष्पक्ष रिपोर्ट का हो सकता है. इंटेलिजेंस ब्यूरो के कुछ अधिकारियों का यही मानना है कि कांग्रेस अपनी सीटें पूरी तरह से खोने वाली है. ऐसी स्थिति में अगर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ा जाता है, तो कांग्रेस की संभावनाएं और भी क्षीण हो सकती हैं. अगर कांग्रेस मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव में उतरती है, तो उसे दो फ़ायदे होंगे. अगर कांग्रेस जीत गई या गठबंधन के सहारे सत्ता में आ गई, तो मनमोहन सिंह से कहा जा सकता है कि अब वह प्रधानमंत्री पद न लें और राहुल गांधी सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लें और दूसरा यह कि अगर कांग्रेस हार गई, तो ऐसे में यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी नहीं हारे, कांग्रेस हारी और राहुल गांधी के लिए अगले चुनाव में संभावनाएं खुली रहती हैं.
वैसे, देश में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनका मानना है कि अगर मनमोहन सिंह कांग्रेस से निकल कर देश के लोगों के बीच जाएं, तो वह विपक्षी नेताओं में सबसे कारगर नेता साबित हो सकते हैं. पर यह सवाल आज कहीं दूर-दूर तक खड़ा दिखाई नहीं देता. इसका कारण यह है कि जो एहसान सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाकर उनके ऊपर किया है, उससे यह कतई नहीं लगता कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी की किसी भी रणनीति का विरोध करेंगे. मनमोहन सिंह रिटायर होकर एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री की ज़िंदगी गुजारना शायद ज़्यादा पसंद करेंगे, बनिस्बत इसके कि वह देश में घूम-घूमकर एक नई ज़िम्मेदारी सिर पर ओढ़ें और एक नई पार्टी का निर्माण करें.
अब सवाल यह उठता है कि राहुल गांधी क्या करेंगे? राहुल गांधी को अब देश के सामने अपनी समझदारी का सुबूत देना होगा. आज तक राहुल गांधी ने किसी प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित नहीं किया. चलते-फिरते किसी के सवाल का जवाब दे देना एक अलग बात है और वह जवाब भी मीडिया की मेहरबानी से आधा-अधूरा ही सामने आता है. राहुल गांधी अगर प्रेस को संबोधित करें और देश के सामने खड़े सवालों के ऊपर अपना नज़रिया पेश करें, तो शायद वह देश को यह विश्‍वास दिलाने में सफल हो सकते हैं कि अगर कांग्रेस प्रधानमंत्री पद पर उन्हें बैठाती है, तो यह देश के लिए डिजास्टर नहीं, बल्कि फ़ायदेमंद होगा. यदि प्रेस कांफ्रेंस की बात छोड़ भी दें, तो राहुल गांधी क्यों कभी बिना काग़ज़ देखे भाषण नहीं देते? क्या उन्हें डर है कि उनकी समझदारी के ऊपर सवाल खड़े हो जाएंगे.
राहुल गांधी के स्वभाव में बिना कागज देखे बोलना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के प्रति लोगों के मन में इस विश्‍वास का जगना ज़रूरी है कि यह व्यक्ति समय आने पर दुनिया के सामने भारत का सिर नीचा नहीं होने देगा. राहुल गांधी को विभिन्न विषयों पर सेमिनार में भाषण देते सुनना एक सुखद अनुभव हो सकता है, लेकिन वह सुखद अनुभव हमें कब होगा, कह नहीं सकते. राहुल गांधी ने एक और बयान दिया है कि वह शादी नहीं करना चाहते. अगर वह शादी करके परिवार के बंधन में बंध गए, तो उनका ज़्यादातर वक्त परिवार की देखभाल में चला जाएगा और ऐसे में वह देश के लिए कुछ नहीं कर पाएंगे. राहुल गांधी का यह बयान देखकर अन्ना हज़ारे का बयान याद आ जाता है, जब उन्होंने 26 साल की उम्र में यह तय किया था कि वह समाज सेवा करेंगे और शादी नहीं करेंगे. क्या राहुल गांधी अन्ना हज़ारे के जीवन की सीख के ऊपर कोई फैसला ले रहे हैं या फिर वह सार्वजनिक रूप से अपनी मां को भावनात्मक रूप से दबाव में ला रहे हैं. दरअसल, उनकी मां चाहती हैं कि वह अब शादी कर लें.
श्रीमती सोनिया गांधी को किसी भी और मां की तरह अपना पोता देखने की ख्वाहिश ज़रूर जागी होगी और उन्होंने राहुल गांधी से शादी करने को कहा होगा. लेकिन अपुष्ट समाचारों के अनुसार, राहुल गांधी की दो अंतरंग मित्र हैं, जिनमें से एक का रिश्ता कोलंबिया से है और दूसरी का अफ़ग़ानिस्तान से. सोनिया गांधी को राहुल की उक्त दोनों ही अंतरंग मित्र पसंद नहीं हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि दस जनपथ के भीतर एक पारिवारिक युद्ध चल रहा हो, जिसमें राहुल गांधी शादी करना चाह रहे हों और उनकी मां उन्हें अनुमति न दे रही हों, जिसके जवाब में राहुल गांधी ने एक आदर्श वाक्य कह डाला कि अगर वह शादी करेंगे, तो अपने परिवार की देखरेख या मायामोह में फंस जाएंगे और देश के लोगों का काम नहीं कर सकेंगे. राहुल गांधी की इस बात का बहुत सारे लोग समर्थन करेंगे, अगर यह बात सच है तो. लेकिन अगर राहुल के बारे में व्यक्तिगत बातें छोड़ भी दें, तो उनके वैचारिक पक्ष के बारे में बात करना ज़रूरी है.
हिंदुस्तान के ग़रीबों, बेरोज़गारों, महंगाई, भ्रष्टाचार, दलितों, उद्योगों, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर राहुल गांधी का नज़रिया सामने आना बाक़ी है. ये ऐसे सवाल हैं, जो हिंदुस्तान में प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले किसी भी व्यक्ति के सामने सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े हैं. राहुल गांधी कह सकते हैं कि मेरे विशेषज्ञ मित्र इन सवालों के उत्तर तलाशेंगे. उनके विशेषज्ञ मित्र आज भी उनके साथ हैं, लेकिन उनकी विशेषज्ञता संदेह के दायरे में है, क्योंकि सवाल यह उठता है कि वे मित्र हिंदुस्तान को कितना जानते हैं. कोई अगर हिंदुस्तान को न जाने, तो समझ में आता है, लेकिन अगर जानने की कोशिश ही न करे, तो यह समझ में नहीं आता. मेरा मानना यह है कि राहुल इस देश को जानने की कोशिश ही नहीं कर रहे, क्योंकि जब भी उन्हें मौक़ा मिलता है, तो वह विदेश चले जाते हैं. अचानक देश के अख़बारों से उनकी तस्वीरें ग़ायब हो जाती हैं. इसीलिए जब दिल्ली में एक लड़की के साथ बलात्कार होता है और हफ्ते भर में लाखों लोग इंडिया गेट पर जमा होते हैं, तब वहां मौजूद नौजवान सवाल पूछते हैं कि हमारा युवा नेता आख़िर कहां चला गया है?
राहुल गांधी को इस देश में जिन लोगों के साथ होना चाहिए और जिस समझदारी के साथ होना चाहिए, वह अभी होता दिख नहीं रहा है. कांग्रेस जिसे भी चाहे प्रधानमंत्री बनाए, यह उसका अधिकार है, लेकिन देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद वह अगर देश को न जानने वाला निकला, तो इस देश में अराजकता का ख़तरा पैदा हो जाएगा. मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका को जानते हैं, इंग्लैंड को जानते हैं, यूरोप को जानते हैं और अमेरिकी अर्थशास्त्र जानते हैं, लेकिन अफसोस! वे हिंदुस्तान का अर्थशास्त्र नहीं जानते. अगर जानते होते, तो न महंगाई बढ़ती, न बेरोज़गारी बढ़ती और न ही भ्रष्टाचार बढ़ता. शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों और संचार की व्यवस्था ठीक होती. ये सारी वे समस्याएं हैं, जो हिंदुस्तान के आम आदमी को न केवल परेशान करती हैं, बल्कि कचोटती भी हैं, लेकिन इन समस्याओं का कोई हल, कोई तोड़ मनमोहन सिंह के पास नहीं है. आशा करनी चाहिए कि राहुल गांधी अपनी सोच और अपनी समझ का परिचय देश की जनता को देंगे, ताकि वह कुछ तो इत्मीनान कर सके कि उसका होने वाला प्रधानमंत्री पद का एक उम्मीदवार तो कम से कम देश की समस्याओं को न केवल जानता-समझता है, बल्कि उन्हें हल करने की क्षमता भी रखता है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here