मायावती और राहुल गांधी का साथ कुछ नये सियासी गुल खिला सकें, इसकी ख़ातिर कांग्रेस पार्टी एहतियातन कुछ जल्द और कठोर क़दम भी उठा सकती है. मसलन, जो ख़बरें कांग्रेस के रणनीतिकारों के अन्दरखानो से आ रही हैं, उसके मुताबिक, अगर समाजवादी पार्टी कांग्रेस और बसपा की दोस्ती पर बौखलाएगी या गुर्राएगी, तब ऐसी स्थिति में कांग्रेस पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के पहले ही संसद भंग करने की भी सिफ़ारिश कर सकती है और इसीलिए कांग्रेस ने संसद का शीतकालीन सत्र समय से पहले बुलाने की योजना भी बना रखी है. इसी शीतकालीन सत्र में सरकार अपने उन सभी बकाया विधेयकों को पास करा लेना चाहती है, जिसका सेहरा बांधकर वह जनता के बीच में जा सके और अपने कामकाज की मुनादी कर सके.
सियासत के तकाज़ों के मद्देनज़र, मुल्क़ में बेहद रोचक राजनीतिक तस्वीरें उभर रही हैं. पुराने साथियों का हाथ छूट रहा है, तो नये हमक़दम तलाशे जा रहे हैं. मक़सद, महज़ लोकसभा चुनाव में शह हासिल करना नहीं है, बल्कि पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में फ़तह हासिल करना भी है. इसी के मद्देनज़र कांग्रेस और बहुजन समाजवादी पार्टी के बीच एक ख़ास रिश्ता पनपने लगा है. जो ख़बर है, उसके मुताबिक़ हाथ के पंजे और हाथी के दरम्यान एक क़रार हो चुका है. तय यह हुआ है कि राहुल और मायावती आने वाले लोकसभा चुनाव सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की जंग मिलकर लड़ेंगे. अगर ऐसा होता है तो यक़ीनन इन चुनावों के नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं.
इस सिलसिले में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती और कांग्रेस हाईकमान सोनिया गांधी के बीच चुपके-चुपके ही मुलाक़ातों के कई निर्णायक दौर निबट चुके हैं और यह गठबंधन बस अब परवान चढ़ने ही वाला है. बसपा और कांग्रेस के बीच अमूमन सहमति बन चुकी है. डील बस एक मसले पर आकर अटक गई है, वह है लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में सीटों के बंटवारे की. सोनिया गांधी ने मायावती से यह बात साफ़तौर पर कह दी है कि उनके बीच यह सियासी रिश्ता तभी पु़ख्ता होगा, जब मायावती कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की 80 संसदीय सीटों में से 35 पर लड़ने देने को राजी होंगी, वरना यह नई बनती दोस्ती बिखर भी सकती है. इस तरह मायावती 45 सीटों पर अपने उम्मीदवार ख़डे कर सकती हैं. पर मायावती चाहती हैं कि उनकी पार्टी 60 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. फ़िलहाल मायावती ने इस शर्त पर हामी नहीं भरी है, पर ख़बर है कि वे 35 और 45 के अनुपात पर तैयार हो जाएंगी और अगर कांग्रेस और बसपा की यह दोस्ती रंग लाती है, तब यह दोस्ती समाजवादी पार्टी और भाजपा के लिए चिंता की वज़ह बन सकती है, क्योंकि कांग्रेस और बसपा का साथ दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण मतदाताओं को उनके पक्ष में एक साथ ख़डा कर सकता है.
मायावती और राहुल गांधी का गठबंधन कुछ नये सियासी गुल खिला सके, इसकी ख़ातिर कांग्रेस पार्टी एहतियातन जल्द कुछ कठोर क़दम भी उठा सकती है. जो ख़बरें कांग्रेस के रणनीतिकारों के अन्दरख़ानों से आ रही हैं, उनके मुताबिक, अगर समाजवादी पार्टी कांग्रेस और बसपा की दोस्ती पर बौखलाएगी या गुर्राएगी, तब ऐसी स्थिति में कांग्रेस पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के पहले ही संसद भंग करने की भी सिफ़ारिश कर सकती है, इसीलिए कांग्रेस ने संसद का शीतकालीन सत्र समय से पहले बुलाने की योजना भी बना रखी है. इसी शीतकालीन सत्र में सरकार अपने उन सभी बकाया विधेयकों को पास करा लेना चाहती है, जिसका सेहरा बांधकर वह जनता के बीच में जा सके और अपने कामकाज की मुनादी कर सके. मतलब, कांग्रेस अपने ख़िलाफ़ लगे तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों और ख़िलाफ़ जाते जनमत के बावजूद, जीत पाने के लिए कोई कसर बाक़ी रखना नहीं चाहती. मायावती से गले मिलना भी इसी हसरत की एक अहम कड़ी है.
उम्मीद की जा रही है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद कांग्रेस और बसपा भी अपने गठबंधन का ऐलान कर सकती हैं. अपने इस गठबंधन के ज़रिये कांग्रेस की यह पूरी कोशिश रहेगी की वह उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी के विजय रथ को थाम ले और इसकी बिना पर मोदी के दिल्ली पर राज करने के सपने को भी तोड़ दे.
कांग्रेस और बसपा के गठबंधन की ये कोशिशें यूं ही नहीं हुईं हैं. हुआ ये कि जब राहुल गांधी ने दिग्विजय सिंह से उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रभार वापस ले कर इस ज़िम्मेदारी को मधुसूदन मिस्त्री को सौंप दिया. तब मधुसूदन मिस्त्री ने उत्तर प्रदेश में एक गहन चुनावी सर्वे कराया. इस सर्वे की रिपोर्ट कांग्रेस के लिए बेहद हताशा भरी थी. जो नतीजे आए थे, उनमें बताया गया कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अकेले अपने बूते उत्तर प्रदेश में चार से छह सीटें ही जीत पाएगी, जबकि अभी कांग्रेस के पास यूपी में लोकसभा की 22 सीटें हैं. तक़रीबन दो महीने पहले यह रिपोर्ट मधुसूदन मिस्त्री ने राहुल गांधी को पेश की और लगे हाथों यह सलाह भी दे दी कि कांग्रेस अगर बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़े, तो फ़ायदे में रहेगी.
लिहाज़ा, मायावती तक यह सन्देश भिजवाया गया. ज़रूरत मायावती को भी थी, तो वह इस सिलसिले में सोनिया गांधी से मिलने आ पहुंचीं. सोनिया गांधी, अहमद पटेल और मायावती के बीच इस बाबत मंत्रणा हुई और ये तय हुआ कि दोनों साथ हो जाएं. पेच स़िर्फ सीटों के बंटवारे का है. उम्मीद की जा रही है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद कांग्रेस और बसपा भी अपने गठबंधन का ऐलान कर देंगी. अपने इस गठबंधन के ज़रिये कांग्रेस की यह पूरी कोशिश रहेगी की वह उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी के विजय रथ को थाम ले और इसकी बिना पर मोदी के दिल्ली पर राज करने के सपने को भी तोड़ दे. कांग्रेस को यह लगता है कि उसके साथ बसपा के आ जाने से उसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दलितों के वोट मिल जाएंगे. दिल्ली विधानसभा की कई सीटों पर भी तालमेल की गुंजाइश बन रही है. बसपा और कांग्रेस के बीच उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा के चुनावों के समय भी तालमेल होते-होते रह गया था. सीटों के बंटवारे और दलित मुसलमान वोट-बैंक का क्रेडिट अपने-अपने खाते में लेने की कवायद ने यह गठजोड़ नहीं होने दिया था, लेकिन मौजूदा राजनीतिक हालत ने राहुल गांधी और मायावती को यह बात अच्छी तरह समझा दिया है कि अगर अभी भी उन्होंने हाथ नहीं मिलाया, तो हिन्दुस्तानी सियासत की ज़मीन पर शायद वे हाशिये पर चले जाएं, जिसका सीधा फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी को ही मिलेगा और अगर वे साथ हो जाते हैं, तो अपनी विपक्षी राजनीतिक पार्टियों की दिल्ली तक पहुंचने की राह को वे मुश्किल कर देंगे, क्योंकि उनके एक साथ होने की स्थिति में दलित-मुस्लिम और ब्राह्मण वोटों का ध्रुवीकरण उनके पाले में हो जाएगा. जिसके फलस्वरूप जो दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां देश में तीसरे मोर्चे को शक्ल देने की मश़क्क़त कर रही हैं, उनकी राह भी थोड़ी कठिन हो जाएगी. इससे न सिर्फ पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनावों, बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों में भी टक्कर कांटे की हो सकती है.
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद कांग्रेसी नेताओं को यह लगने लगा है कि दंगों से नाराज़ मुसलमान मतदाताओं का वोट उन्हें ही मिलेगा, पर राहुल और सोनिया इस बात से ख़ूब वाक़िफ़ हैं कि ये नाराज़ मुसलमान प्रदेश में उसी पार्टी को वोट देंगे, जो भाजपा को हराने की कूवत रखती हो और यहां, इस मामले में बसपा, कांग्रेस से आगे निकलती दिखाई दे रही है. अब तो मुस्लिम संगठन भी इस बात की घोषणा करने लगे हैं कि मायाराज में अल्पसंख्यक महफूज़ थे. यह स्थिति बसपा को मज़बूत बना रही है. वहीं मायावती की ये मजबूरी है कि वे केंद्र में बनने वाली सरकार में अन्दर से शामिल होना चाहती हैं, वरना बाद में उन्हें अपने प्रदेश में तमाम मुश्किलों का सामना करना प़डेगा. दूसरी तरफ बसपा के सामने सपा को भी रोकने की चुनौती है. इसलिए, बसपा और कांग्रेस का साथ मिलकर चलना मजबूरी भी है. हालांकि इस गठबंधन को लेकर दोनों पार्टियों के अन्दर थोड़ा डर भी है. कांग्रेस का भय ये है कि अगर उसने बसपा के साथ लोकसभा चुनावों में देश भर में गठजोड़ किया तो उसके दलित वोटर छिटक कर मायावती के पाले में चले जाएंगे और फिर वापस नहीं आएंगे, जैसा की पहले भी उत्तर प्रदेश में हो चुका है. वहीं, दूसरी तरफ बसपा का वोट बैंक भी कांग्रेस की तरफ आ जाएगा, पर कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक का रुझान बसपा की तरफ होगा या नहीं, कहना मुश्किल है. बावजूद इसके, कांग्रेस और बसपा, दोनों को ही इस गठबंधन में फ़ायदा ज़्यादा दिख रहा है.
यही वज़ह है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री अचानक ही सपा के बारे में तल्ख़ लहजे में बात करने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को किसी भी हद तक जाकर सपा की जन-विरोधी नीतियों का विरोध करने को कह दिया गया है. केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा भी इसीलिए लगातार सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ क़डवी बातें कह रहे हैं, जबकि मामले को भांपते हुए मुलायम सिंह ने फ़िलहाल सारे आरोपों पर चुप्पी साध रखी है. अपनी तरफ से अभी उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ने का कोई इशारा नहीं किया है. मुलायम सिंह जानते हैं की फ़िलहाल प्रदेश का मुसलमान उनसे नाराज़ है. ऐसे में अगर वे कांग्रेस का हाथ छोड़ने का ऐलान करते हैं, तो नुकसान उन्हें ही होगा.
हालांकि उत्तर प्रदेश एक ऐसा सूबा है, जहां का मुसलमान प्रदेश की किसी भी सीट पर पक्की जीत नहीं दिला सकता, पर ये ज़रूर है कि प्रदेश में मुसलमानों की जो संख्या है, वह कुछेक सीटों को छोड़कर बाकी हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है. मुसलमानों की जनसंख्या के हिसाब से सूबे में तक़रीबन 19 जिले ऐसे हैं, जहां मुसलमान बड़ी तादाद में रहते हैं. मसलन रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, बिजनौर, मुज़फ्फरनगर, बलरामपुर, बरेली, बहराइच, अमरोहा, मेरठ आदि जिलों में मुसलमानों की आबादी ब़हुत घनी है. इसके अलावा पीलीभीत, खलीलाबाद, बदायूं, गाज़ियाबाद, लखनऊ, बुलंदशहर ऐसे जिले हैं, जहां वोटरों का एक चौथाई हिस्सा, मुसलमान वोटर्स का है और इन सभी जगहों के मुसलमानों का तगड़ा झुकाव बसपा की तरफ हो चुका है. साफ़ है कि अगर कांग्रेस और बसपा का गठबंधन हो जाता है, तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उसकी हैसियत से ज़्यादा सीटें मिल जाएंगी.
इसी तरह अगर हम मध्य प्रदेश के इस वक़्त के हालात पर गौर करें, तो पाएंगे कि यहां स्थितियां 2008 सरीखी ही हैं. आप 2008 के चुनावी आंकड़ों को याद करें तो उनका विश्लेषण यही बताता है कि बसपा ने मध्य प्रदेश में तीसरी शक्ति के रूप में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराई थी और अगर वहां कांग्रेस और बसपा ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा होता तो मध्य प्रदेश में भाजपा दूसरी बार सरकार नहीं बना पाती. वहीं अगर बसपा ने भाजपा के साथ गठजोड़ कर लिया होता, तो शायद कांग्रेस प्रदेश से बाहर हो गई होती. हालांकि मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से बसपा ने महज़ 7 सीटें ही हासिल की थीं, पर 19 सीटें ऐसी थीं, जहां बसपा ने कहीं कांग्रेस, तो कहीं भाजपा को पीछे छोड़ कर नंबर दो पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. चौदह विधानसभा क्षेत्र में बसपा ने 25 से 30 हज़ार वोट पाए थे और तकरीबन 70 विधानसभा क्षेत्रों में बसपा के उम्मीदवारों ने 10 से 20 हज़ार तक वोट हासिल कर लिए थे. अगर उस समय कांग्रेस के स्वयंभू नेताओं ने ज़मीनी हकीक़त की विवेचना की होती और मायावती से हाथ मिला लिया होता तो शायद मध्य प्रदेश उनकी ही सरकार होती. मध्य प्रदेश में भाजपा ने 230 विधानसभा सीटों में 143 सीटें हासिल कर अपनी सरकार बनाई थी. कांग्रेस को 71 सीटें मिलीं थीं और 7 सीटें जीतने वाली बसपा ने 57 अन्य सीटों पर अपनी दमदार उपस्थिति दिखाई थी. ज़ाहिर है कि ऐसे में अगर कांग्रेस और बसपा साथ होते तो ये 57 सीटें भाजपा के हाथ से निकल जातीं और वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होती, पर यही बसपा अगर भाजपा के साथ होती तो कांग्रेस 71 सीटों से सिमट कर 37-38 सीटों पर आ जाती. अभी भी मध्य प्रदेश में लगभग वैसे ही हालात हैं और इस बार कांग्रेस बसपा को साथ नहीं रखने की गलती दोहराना नहीं चाहती.
ठीक इसी तरह 2008 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी यही स्थितियां थीं. इस चुनाव में कांग्रेस को कुल 39.88 प्रतिशत वोट मिले थे. भाजपा को 36.43 प्रतिशत, जबकि 14.5 प्रतिशत वोट बसपा को मिले थे. हालांकि बसपा के खाते में दिल्ली विधानसभा की दो सीटें आईं थीं. 2011 की जनगणना के आधार पर आंकलन करें तो इस बार की तस्वीर कुछ अलग होगी. दिल्ली में दलित और मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिशत 30 फ़ीसद से ज़्यादा है. अगर हम इनमें पुरबिया मतदाताओं को भी जोड़ दें तो यह 45 प्रतिशत से ऊपर चला जाता है. दिल्ली शहर की 70 सीटों में से 38 सीटों का जातीय गणित कुछ ऐसा है कि वहां कुल वोट शेयर 20 से 60 प्रतिशत तक का है. यहां 10 सीटें भाजपा के पास हैं, 4 अन्य दलों के पास और 34 सीटें कांग्रेस के पास है. गोकुल और बदरपुर की सीटें बसपा के पास है. मुस्लिम प्रभाव वाले इलाके जैसे ओखला, मटिया महल वगैरह की सीटें अन्य दलों के हिस्से में हैं. सुल्तानपुरी की सीट कांग्रेस के पास है, जहां दिल्ली में सबसे ज्यादा दलित रहते हैं और जिनका प्रतिशत 44 है. दिल्ली की एक दर्ज़न सुरक्षित सीटों में से 9 सीटें कांग्रेस के पास हैं और महज़ दो सीटें भाजपा के पास, एक पर बसपा का कब्ज़ा है. इन जातीय समीकरणों और प्रतिशत के दरम्यान कांग्रेस और बसपा का गठजोड़ यक़ीनन ज़बरदस्त रंग दिखा सकता है.
छत्तीसगढ़ में 11.61 प्रतिशत दलित वोट बैंक है, जबकि राजस्थान में 17.09 प्रतिशत दलित वोटर्स की हिस्सेदारी है. इन सभी प्रदेशों में बसपा की वजह से दलित वोट बैंक में बिखराव है, जिसका ख़ामियाज़ा कांग्रेस को उठाना पड़ता है. हालांकि इन चारो प्रदेशों में कांग्रेस का कोई परम्परागत दलित वोट बैंक नहीं रहा है.
कमोबेश यही स्थिति पंजाब में है. पंजाब में 35 फ़ीसद से अधिक दलित आबादी है, पर बसपा अभी तक यहां के दलितों में अपनी पैठ नहीं बना सकी है. अभी तक यहां बसपा की भूमिका वोटकटवा तक ही सीमित है. पंजाब की 37 दलित जातियां, अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग पार्टियों को समर्थन देकर यहां सरकार बनवाती रही हैं, लेकिन यहां अगर बसपा का गठजोड़ कांग्रेस के साथ होता है तो बिखरे हुए दलित वोटों का झुकाव उनके हक़ में हो सकता है.
छत्तीसगढ़ में 11.61 प्रतिशत दलित वोट है, जबकि राजस्थान में 17.09 प्रतिशत दलित वोटर्स की हिस्सेदारी है. इन सभी प्रदेशों में बसपा की वज़ह से दलित वोट बैंक में बिखराव है, जिसका ख़ामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ता है. हालांकि इन चारों प्रदेशों में कांग्रेस का कोई परम्परागत दलित वोट बैंक नहीं रहा है. इसलिए कांग्रेस, मायावती के साथ के बहाने इस बिखराव को सहेजने की कोशिश करेगी. कांग्रेस का साथ होने से बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला, भाजपा के परम्परागत वोट बैंक पर भी असर डाल सकता है, जिसका फ़ायदा सीधे तौर पर कांग्रेस को ही मिलेगा. कांग्रेस मुस्लिम और ब्राह्मण मतदाताओं के वोटों के सहारे न स़िर्फ उत्तर प्रदेश, बल्कि केंद्र की भी सत्ता संभालती रही है. ऐसे में अगर बसपा के मा़र्फत दलित वोटर भी उसके साथ हो जाएं तो यह बात भाजपा के नेताओं की हसरतों को मिटाने की वजह भी बन सकती है. कांग्रेस और बसपा के मिलने की खबर ने वैसे भी इन दिनों भाजपा नेताओं के माथे पर शिकन ला दी है.
बहरहाल, कांग्रेस और बसपा के हाईकमान में जो तालमेल नज़र आ रहा है, उससे तो यह डील होती दिखाई दे रही है, पर यह देखना रोचक होगा कि बसपा प्रमुख मायावती किन शर्तों पर कांग्रेस के साथ ख़डी होतीं हैं.