6 दिसंबर को राजस्थान के राजसमंद जिले में एक बंगाली मजदूर अफराजुल खान की बेरहमी से हत्या भारत की न्याय व्यवस्था के लिए एक चैलेंज है. एक बार फिर ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या हमारी अदालतें धार्मिक नफरत और द्वेष के नाम पर होने वाली भीड़ की हिंसा के खिलाफ बेबस लोगों को न्याय देने योग्य है? न्याय व्यवस्था पर ये सवाल अफराजुल की छोटी बेटी 17 वर्षीय हबीबा भी खड़ी कर रही हैं.
पिछले हफ्ते जब कोलकाता से 340 किलोमीटर दूर मालदा जिले के कालिया चक के सैयदपुर गांव गया, तो अफराजुल की छोटी बेटी हबीबा ने यही सवाल पूछा कि क्या मेरे बाबा को इंसाफ मिलेगा? जब उससे पूछा कि आखिर तुम इतनी मायूस क्यों हो? उस पर हबीबा ने कहा कि यहां गरीबों को इंसाफ नहीं मिलता है. हमारे पास संसाधन नहीं हैं कि हम राजस्थान जाकर बाबा के हत्यारे को सजा दिला सकें और अब तो लोग हत्यारे के समर्थन में खड़े हो गए हैं. ऐसे में इंसाफ कहां से मिलेगा? अफराजुल खान की छोटी बेटी नवीं कक्षा में पढ़ती है. पिता की हत्या ने उसे बहुत संवेदनशील बना दिया है.
राजस्थान में इंसाफ मिलने पर केवल अफराजुल के घरवालों को ही नहीं, बल्कि पश्चिमी बंगाल बार काउंसिल के वकील भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि राजस्थान में अफराजुल खान के साथ इंसाफ नहीं किया जा सकता है. पश्चिमी बंगाल बार काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य एडवोकट असीत वासु कहते हैं कि जिस राज्य की मुख्यमंत्री इतनी बड़ी घटना पर एक शब्द बोलने की जरूरत इसलिए महसूस न करे कि उनके बयान से कहीं हिन्दुत्व समर्थक संगठन नाराज न हो जाएं. जिस राज्य की पुलिस इस घटना पर लीपापोती करने की कोशिश करे, तो वहां इंसाफ कैसे मिलेगा? अफराजुल की विधवा और बेटी को फोन पर धमकियां मिल रही हैं.
केस वापस लेने के लिए दबाव बनाया जा रहा है और फोन कॉल पर रुपए की पेशकश भी की गई है. ऐसे में हमें आशंका है कि राजस्थान में अफराजुल की विधवा और बेटियों को पूरी सुरक्षा पुलिस नहीं दे सकेगी. हमलोग इस केस को पश्चिमी बंगाल स्थानांतरित कराने की कोशिश करेंगे. ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन ने अफराजुल खान के घरवालों के इस मुकदमे को कलकत्ता हाईकोर्ट हस्तानांतरित कराने की मांग का समर्थन करते हुए कहा कि जिस राज्य की मुख्यमंत्री ने इस मामले पर खामोशी अख्तियार कर ली, वहां इंसाफ मिलना मुश्किल है.
ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन के एक प्रतिनिधि मंडल ने अफराजुल के घर वालों को कानूनी मदद उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है. एसोसिएशन ने कहा कि अफराजुल खान की हत्या का जो मामला सामने आया है, वह भारत की सेक्युलर छवि के लिए शर्मनाक है. एसोसिएशन के अध्यक्ष शमीम अहमद ने कहा कि यह घटना हिन्दू और मुसलमानों से कहीं ज्यादा चिंताजनक इसलिए है कि रोजी-रोटी कमाने के लिए जाने वाले गरीब मजदूरों की सुरक्षा कैसे होगी? शमीम अहमद ने कहा कि बंगाल और बिहार के कई जिलों से राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में मजदूर निर्माण कार्यों के लिए जाते हैं. अगर इस तरह की घटनाएं होती रहीं, तो फिर ये बेचारे मजदूर कहां जाएंगे? इसलिए जरूरी है कि इस केस में फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया जाए.
अफराजुल खान के घरवालों की मांग का समर्थन करते हुए शमीम अहमद ने कहा कि ये परिवार बहुत ही गरीब है और इनका बार-बार राजस्थान जाकर मुकदमे की पैरवी करना असंभव है. इस परिवार में कोई लड़का भी नहीं है और दूसरे राजस्थान में इंसाफ मिलना मुश्किल है. उनका कहना है कि इतनी संगीन घटना पेश आने के बाद भी राज्य की मुख्यमंत्री ने पीड़ित परिवार से बातचीत करने की जरूरत महसूस नहीं की. जबकि राजस्थान सरकार की जिम्मेदारी थी कि वे फौरी तौर पर पीड़ितों के साथ खड़ी होतीं और उन सभी लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करतीं, जो शम्भु लाल के हिमायती हैं.
नफरत के नाम पर हत्या की ये कोई पहली घटना नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद अब तक 50 लोगों की नफरत की बुनियाद पर हत्या हो चुकी है. अर्थात स्वतंत्र भारत में पहले सांप्रदायिक दंगों के नाम पर मुसलमानों की हत्या होती थी और अब मोदी की सत्ता आने के बाद मुसलमानों की हत्या को आम कर दिया गया है. पुना में मोहसिन शेख की हत्या के बाद से अफराजुल खान की हत्या तक हालात इतने बदल चुके हैं कि दादरी में अखलाक की हत्या पर सिविल सोसायटी ने जिस तरीके से सख्त प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, वो अफराजल खान की हत्या पर नजर नहीं आई. यानी अब मुसलमानों का नफरत की बुनियाद पर कत्ल होना समाज के लिए चिंताजनक बात नहीं रही. देश फासिज्म की तरफ तेजी से बढ़ रहा है और सेक्युलर पार्टियां खामोश हैं.
पश्चिमी बंगाल और अन्य राज्यों में मानव अधिकार की रक्षा के लिए सरगरम ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन के अध्यक्ष शमीम अहमद के साथ जब हम सैयदपुर गांव पहुंचे तो पूरा गांव सदमे में था. इस गांव में ड्राइवरों ने स्वैच्छिक रूप से कई पोस्टर लगा रखे थे, जिसमें लिखा था कि ‘नफरत की बुनियाद पर कत्ल कब तक’, ‘विश्व हिन्दू परिषद पर पाबंदी कब लगेगी’ और ‘नफरत की सियासत मुल्क को तबाह कर देगी’. नेशनल हाईवे से केवल चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित मुस्लिम बहुल गांव की 90 फीसद आबादी की आजीविका देश के कई राज्यों में राज मिस्त्री और निर्माण कार्यों में मजदूरी करती है. अफराजुल खान समेत उसके दोनों भाई राजस्थान में ही राज मिस्त्री का काम करते थे.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घटना के फौरन बाद अपने वजीरों के एक ग्रुप को अफराजुल के घर भेजकर मदद पहुंचाई और इंसाफ दिलाने के लिए हर मुमकिन मदद करने की घोषणा की. लेकिन मालदा और मुर्शिदाबाद की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर ममता बनर्जी से सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि उनके सत्ता में आए सात साल होने को हैं. उन्होंने इन जिलों के लिए क्या किया? वो बहुत आसानी से कहती हैं कि बंगाल के मजदूर कहीं बाहर नहीं जाएं, बंगाल वापस आ जाएं.
मगर सवाल यह है कि बंगाल आकर उन्हें क्या मिलेगा? सैयदपुर गांव में एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले अशफाक आलम ने बताया कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार का मसला सबसे ज्यादा गंभीर हो जाता है, क्योंकि ज्यादा पढ़ने के बाद मजदूरी करने से लड़के हिचकिचाते हैं और वो बेरोजगार बनकर माता-पिता के लिए बोझ बन जाते हैं. इसलिए अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को 10वीं तक पढ़ाने के बाद राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे इलाकों में मजदूरी करने भेज देते हैं. मगर जब उन्हें सुरक्षा नहीं मिलेगी, तो अब वो कहां जाएंगे और क्या करेंगे?