रिपब्लिक टीवी के संपादक और देश में आक्रामक व किसी हद तक एकालापी पत्रकारिता के पुरोधा अर्णब गोस्वामी की महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तरीके से गिरफ्तारी की है, वह अत्यंत निंदनीय है। पत्रकारों के साथ महाराष्ट्र की शिवसेनानीत महाआघाडी सरकार का रवैया यूं भी अच्छा नहीं रहा है और जिस तरह अर्णब ने पत्रकारिता के आवरण में राजनीतिक टकराव को परवान चढ़ाने की कोशिश की, उसे देखते हुए, जो हुआ वह अप्रत्याशित भी नहीं है। अर्णब की गिरफ्तारी की सर्वाधिक निंदा भाजपा नेताओं ने ही की है। उन्होने इसे ‘सत्ता का दुरूपयोग’ बताते हुए मुंबई पुलिस की कार्रवाई की कड़ी निंदा की है, जबकि अर्णब की हमबिरादरी पत्रकारों की संस्थाओं ने इस घटना पर अपनी नाराजी संयत तरीके से व्यक्त की है। न्यूज़ चैनलों की शीर्ष संस्था न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने अर्णब गोस्वामी की मुंबई में गिरफ़्तारी के तरीके की भर्त्सना करते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से अपील की है कि वो इस बात को सुनिश्चित करें कि अर्णब के साथ निष्पक्ष व्यवहार हो और बदला लेने की नीयत से सत्ता की ताकत का गलत इस्तेमाल न हो। संपादकों की सबसे बड़ी संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने भी कहा कि वह इस घटना से हैरान है। गिल्ड ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री सुनिश्चित करें कि अर्णब के साथ उचित व्यवहार हो तथा मीडिया की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के खिलाफ राज्य सत्ता का इस्तेमाल न किया जाए। यहां विचारणीय बात यह है कि मीडिया से जुड़ी इन दो शीर्ष संस्थाओं के अलावा पत्रकार जगत में अर्णब की गिरफ्तारी को लेकर जैसा व्यापक उद्वेलन होना था, वैसा नजर नहीं आया। जबकि अभिव्यक्ति की आजादी और मीडियाकर्मियों पर हमलों और प्रताड़ना के खिलाफ मीडिया जगत अमूमन एक साथ खड़ा दिखाई देता है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ और क्या आगे भी ऐसा ही होता दिखेगा ? इस बारे में पूरे पत्रकार जगत और मीडिया जगत को गंभीरता से आत्मचिंतन और आत्मशोधन करने की जरूरत है।
इसका कारण शायद यह है कि अर्णब की गिरफ्तारी ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ या ‘सत्यदर्शी पत्रकारिता’ को लेकर नहीं हुई है। मुंबई पुलिस के अनुसार उन्हें एक इंटीरियर डिजाइनर और उसकी मां को आत्महत्या के लिए कथित तौर पर उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। समाचार एजेंसियों के मुताबिक बुधवार सुबह मुंबई पुलिस की एक टीम अर्णब के घर पहुंची। अर्णब का आरोप है कि इस दौरान उनके परिजनो के साथ हाथापाई की गई। पुलिस वैन में बिठाकर उन्हें अपने साथ ले गई। उधर अर्णब के चैनल का दावा है कि पुलिस ने उन्हें उस मामले में गिरफ्तार किया है, जिसे पहले ही बंद किया जा चुका है। इस बीच अर्णब की गिरफ़्तारी को सही ठहराने वाला एक वीडियो भी चर्चा में है, जिसमें दिवंगत डिजाइनर की पत्नी को यह कहते दिखाया गया है कि अर्णब ने उसके डिजाइनर पति के साथ 5 करोड़ 40 लाख रू के भुगतान में हेराफेरी की। जिसके कारण उसके पति को खुदकुशी करनी पड़ी। बताया जाता है कि अन्वय नाइक नामक इस डिजाइनर ने मई 2018 में आत्महत्या से पहले लिखे एक अपने ख़त में आरोप लगाया था कि अर्णब ने रिपब्लिक नेटवर्क के स्टूडियो का इंटीरियर डिज़ाइन कराने के बाद उसका भुगतान नहीं किया था। सच क्या है, कहना मुश्किल है। लेकिन यह सही है कि अर्णब और उनका चैनल महाराष्ट्र की उद्धव सरकार और मुंबई पुलिस के निशाने पर है और यह लड़ाई अब व्यक्तिगत स्तर पर पहुंच गई है। इसके पहले अर्णब के चैनल द्वारा अपनी टीआरपी फर्जी तरीके से बढ़वाने का मामला भी उछला था। जिसकी जांच चल ही रही है। उसके बाद एनबीए ने सभी चैनलों की टीआरपी पर तीन माह का बैन लगा दिया था। मजबूरन अब टीवी चैनलों को एजेंडे की जगह खबरें ज्यादा दिखानी पड़ रही हैं।
जो भी हो, अर्णब देश के एक वरिष्ठ और चर्चित पत्रकार हैं तो उनकी गिरफ्तारी पर तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। सबसे पहले केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इस कार्रवाई की निंदा करते हुए कहा कि इस गिरफ्तारी ने इमरजेंसी की याद दिला दी। मुंबई में प्रेस-पत्रकारिता पर जो हमला हुआ है वह निंदनीय है। महाराष्ट्र सरकार की इस कार्रवाई की हम भर्त्सना करते हैं। लगभग इसी आशय के ट्वीट केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, स्मृति ईरानी से लेकर कंगना रनौत तक ने किए। शाह ने इसके लिए कांग्रेस को भी लपेटा। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी इसकी निंदा की। उधर शिवसेना सांसद संजय राउत ने सफाई दी कि अर्णब के खिलाफ की गई कार्रवाई का महाराष्ट्र सरकार से कोई सम्बन्ध नहीं है। हम बदले की भावना से कोई कार्रवाई नहीं करते। मुंबई पुलिस के हाथ कोई सबूत लगा होगा तो उसने कार्रवाई की होगी। राउत ने कहा कि कार्रवाई उस चैनल के खिलाफ होनी चाहिए, जिसने हम पर झूठे आरोप लगाए। खुद सुप्रीम कोर्ट भी इस चैनल के खिलाफ टिप्पणी कर चुका है। जहां तक प्रेस की आजादी का सवाल है तो ऐसे सवाल उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में ज्यादा उठ रहे हैं।
यहां नोट करने वाली बात यह है कि भाजपा नेताओं को छोड़कर और किसी राजनीतिक पार्टी ने इस गिरफ्तारी को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। यहां तक कि पत्रकारों के भी गिने-चुने संगठनों ने ही इसकी भर्त्सना की। यह इस बात का साफ संकेत है कि अब ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का प्रश्न भी राजनीतिक आग्रहों और दुराग्रहों से ट्रीट होने लगा है? इसके दो कारण समझ आते हैं। पहला तो यह कि मीडिया का एक तबका पूरी तरह एजेंडा चलाने को ही पत्रकारिता मनवाने में लग गया है। इससे किसी राजनीतिक दल, विचारधारा या संस्थानों के हित भले सधते हों, निष्पक्ष पत्रकारिता जरूर वेंटीलेटर पर आ गई है। सुशांत और रिया केस में हमने इस तथाकथित पत्रकारिता का सबसे निकृष्ट रूप देखा और इस निकृष्टता की पीठ पर रखा राजनीतिक हाथ भी देखा। अर्णब बड़े पत्रकार अवश्य हैं, लेकिन उन्होंने वास्तव में पत्रकारिता को छोटा कर दिया है, उसे एकांगी बनाने की कोशिश की है। अनावश्यक चीख-पुकार और खुद ही जज की भूमिका में आने से वो पत्रकारिता आहत हो चुकी है, जो अभी तक मोटे तौर पर समाज के उस वर्ग के पक्ष में खड़ी दिखने की कोशिश करती थी, जिसकी कोई आवाज नहीं है। लेकिन अब उलटा हो रहा है,सत्ता का भोंपू ( फिर चाहे वह केन्द्रीय सत्ता का हो या राज्य सत्ता का) बनना मीडिया के बड़े वर्ग की प्राथमिकता है और ऐसा करना उसकी संरक्षा की गारंटी है। मीडिया के भीतर भी एक ऐसी अंधी दौड़ शुरू हो गई है, जिसमें हर कोई एक दूसरे को किसी भी हथकंडे के जरिए पीछे छोड़ना चाहता है।
दूसरे, आज खुद मीडिया और पत्रकार भी राजनीतिक आग्रहों के चलते माइक्रो लेवल तक बंट चुके हैं, इसलिए पत्रकारों और पत्रकारिता के मूल्य और हितों की परिभाषाएं भी विभाजित और पूर्वाग्रहित हो चुकी हैं। यह सत्ता के लिए बहुत अनुकूल स्थिति है। हालांकि मीडिया और कई पत्रकार भी दूध के धुले नहीं है। उनका लक्ष्य केवल कोई खास एजेंडा फारवर्ड करना है। दुर्भाग्य से इस क्षेत्र में अब ऐसे लोगों की तूती बोलने लगी है, जो दलाली और माफियागिरी का ‘आदर्श’ हैं। अर्णब पर पहले भी कई मामले लादे जा चुके हैं, वह बदले की कार्रवाई से प्रेरित हो सकती हैं, लेकिन ताजा मामले में भी कुछ लोगों को ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला नजर आया ( हालांकि जो केस है, वह धोखाधड़ी का है और इसका पत्रकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं है) लेकिन देश के बाकी राज्यों में भी पत्रकारिता कितनी ‘आजाद’ है, यह भी देखें।
हाल के दिनों में पत्रकारों को सबसे ज्यादा प्रताड़ना कोरोना काल में रिपोर्टिंग के लिए झेलनी पड़ी है। कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों के कवरेज को लेकर महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने 150 पत्रकारों के खिलाफ मामले दर्ज किए। इसके विरोध में उन्हें सड़कों पर उतरना पड़ा। भाजपा शासित त्रिपुरा के मुख्यमंत्री विप्लब देव ने तो इसको लेकर पत्रकारों को खुले आम ‘देख लेने’ की धमकी दी थी। मुख्यमंत्री के इस रवैये की कई पत्रकार संगठनों ने कड़ी आलोचना की। वहां दो पत्रकारों पर जानलेवा हमले भी हुए। कोरोना समय में ही यूपी के वाराणसी में एक पत्रकार को क्षेत्र के आदिवासियों को खाना न मिलने की खबर पर प्रशासन ने नोटिस थमा दिया था। इसी दौर में वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी दो एफआईआर की गईं।
ये चंद उदाहरण है। उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं। राजनीतिक पार्टी कोई सी भी हो सत्तारूढ़ होने के बाद उसकी अपेक्षा मीडिया से हुक्का भरने की ही रहती है। और अब तो वैचारिक असहमति जान से मारने की धमकियों और हत्या तक पहुंच गई है। अर्णब ने गलत किया या नहीं, यह कानून के अनुसार ही तय होना चाहिए। क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी जरूरी है। लेकिन सच्ची पत्रकारिता का वो तीर्थ भी नहीं हो सकता, जिसे अर्णब शैली में गढ़ने और मान्यता दिलाने की कोशिश की जा रही है।
अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे