नारायण दत्त तिवारी के जैविक पुत्र रोहित शेखर के पैतृक अधिकार को लेकर जो कानूनी पेंच फंसा हुआ है, वही पेंच आने वाले समय में मुलायम सिंह के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव को लेकर भी फंसने वाला है. भारत का कानून सामाजिक पिता को ही कानूनी पिता मानता है. जैविक (बायोलॉजिकल) पिता को भारतीय कानून मान्यता नहीं देता. ऐसे में नारायण दत्त तिवारी का डीएनए टेस्ट कराने की अदालती जिद ने कानून को कई सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब संविधान पीठ को देना होगा और सामाजिक या बायोलॉजिकल में से किसी एक पक्ष में कानूनन खड़ा होना होगा. प्रख्यात कानूनविद्, फॉरेंसिक विज्ञान के विशेषज्ञ, सामाजिक चिंतक और वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉ. जीके गोस्वामी ने ऐसे तकनीकी और कानूनी सवाल उठाए हैं, जिनसे देश की पूरी न्यायिक व्यवस्था ही कठघरे में आ गई है.
रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी के बहुचर्चित मामले में रोहित शेखर ने न्यायालय में याचिका दाखिल कर नारायण दत्त तिवारी को अपना पिता बताया था और इसकी पुष्टि के लिए डीएनए टेस्ट कराने की मांग की थी. रोहित शेखर की मां उज्जवला शर्मा 1979 में रोहित के जन्म के समय बीपी शर्मा से विवाहित थीं. दोनों का विवाह-विच्छेद वर्ष 2006 में हुआ. अदालत ने न्यायिक-सक्रियता दिखाते हुए नारायण दत्त तिवारी का जबरन डीएनए टेस्ट तो करा लिया और डीएनए टेस्ट के आधार पर नारायण दत्त तिवारी को रोहित शेखर का जैविक पिता भी साबित कर दिया. लेकिन न्यायालय नारायण दत्त तिवारी को रोहित शेखर का कानूनी पिता घोषित नहीं कर सका. यह अजीबोगरीब तथ्य है, जिसे आम नागरिकों को जानना चाहिए.
आम नागरिकों ने तो यही समझा कि डीएनए (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) टेस्ट में जैविक पिता घोषित होने के बाद नारायण दत्त तिवारी रोहित शेखर के पिता हो गए और उसे नारायण दत्त तिवारी का स्वाभाविक सामाजिक पैतृक अधिकार प्राप्त हो गया. नहीं… ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. डीएनए टेस्ट से केवल इतना ही हुआ कि किसी महिला की निजता भंग हुई और रोहित को यह कन्फर्म हो गया कि उसके जैविक पिता बीपी शर्मा नहीं, नारायण दत्त तिवारी हैं. इसके अलावा कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि कानूनन रोहित शेखर अभी भी बीपी शर्मा का ही बेटा है. सामाजिक नजरिए से देखें तो कोर्ट ने पितृत्व कानून को बिना सोचे-समझे नारायण दत्त तिवारी के नहीं चाहते हुए भी उनका डीएनए टेस्ट कराया और कानून और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से रोहित शेखर को अधर में लाकर छोड़ दिया.
डॉ. जीके गोस्वामी कहते हैं कि भारतीय कानून में भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 के तहत पितृत्व निर्धारण के लिए एकमात्र प्रावधान धारा-112 के अंतर्गत है. इसके अनुसार बच्चे का पिता वह व्यक्ति होगा जो बच्चे के जन्म के समय उसकी माता से कानूनी रूप से विवाहित होगा अथवा विवाह-विच्छेद के 280 दिन के अंदर बच्चे का जन्म हुआ हो. कानून ऐसा मानता है कि नियमानुसार विवाहित पति-पत्नी से जन्मे बच्चे ही वैध होंगे. कानून की यह भी परिकल्पना है कि पिता के शुक्राणु से ही बच्चा जन्मेगा. लेकिन वास्तविक जीवन में विवाहेतर संबंधों के कारण या कृत्रिम गर्भाधान के अंतर्गत जैविक पिता (शुक्राणु दाता) एवं सामाजिक पिता अलग-अलग हो सकते हैं. वर्तमान समय में एकल पुरुष अथवा स्त्री भी कृत्रिम रूप से बच्चे को जन्म दे रहे हैं. अकेला व्यक्ति बच्चे को गोद भी ले सकता है. ऐसे में पितृत्व (पैरेंटेज) निर्धारण एक गूढ़ विषय हो गया है, जिसे बदलते सामाजिक परिवेश में पुराने कानून से संचालित करना दुर्लभ कार्य होकर रह गया है.
दरअसल, रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी मामले ने इस बहस को नया आयाम दिया कि किसी बच्चे को अपने जैविक पिता को जानने का अधिकार है कि नहीं? लेकिन यह अधिकार माता के यौन अधिकार की निजता (प्राइवेसी) को प्रभावित करता है. चाइल्ड राइट्स कन्वेंशन भी इस मुद्दे पर चुप है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने नंदलाल वासुदेव बाद्विक बनाम लता वासुदेव बाद्विक मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि डीएनए जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद बच्चे के पिता का जैविक सत्यापन पुराने कानून में उल्लिखित अनुमान पर न छोड़कर सत्यता पर आधारित होना चाहिए. यह सब मानते हैं कि सत्य की जीत ही न्याय का प्रमाण होता है. लेकिन यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि डीएनए टेस्ट में सत्य का पता चलने के बावजूद कानून किसी बच्चे को पैतृक अधिकार क्यों नहीं दिलवा पाता? फिर शीर्ष न्यायालय ही न्याय को अधर में छोड़ कर क्यों टल जाता है?
दीपन्विता रॉय बनाम रोनोब्रतो रॉय (2014) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को इस आधार पर मंजूरी दी थी कि डीएनए टेस्ट ने उनके बच्चे को विवाहेतर संबंध से पैदा होना साबित कर दिया था. अब तो संवैधानिक न्यायालय विभिन्न वादों में डीएनए टेस्ट के आधार पर न केवल पितृत्व परीक्षण को मान्यता प्रदान कर रहे हैं, वरन सम्पत्ति विवादों में भी वादीगण डीएनए का सहारा लेकर धारा-112 के प्रावधानों के प्रतिकूल न्यायालय से फैसले प्राप्त कर रहे हैं. देश का पितृत्व कानून विचित्र किस्म की गैर-कानूनी गुत्थियों में फंस गया है और डीएनएट टेस्ट की इजाजत देने वाली अदालतों के पास भी इसका कोई कानूनी जवाब नहीं है. डॉ. गोस्वामी का मानना है कि ऐसे बदलते सामाजिक एवं वैज्ञानिक परिवेश में बच्चे के पितृत्व परीक्षण को फिर से पारिभाषित किए जाने की आवश्यकता है.
डॉ. गोस्वामी कहते हैं कि वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का कानून पर प्रभाव सर्वविदित है. वर्ष 1978 में टेस्ट ट्यूब बेबी एवं 1986 में डीएनए फिंगरप्रिंट ने बच्चे के वंशजता के अधिकार पर गहरा प्रभाव डाला. विज्ञान के चमत्कार से कृत्रिम प्रजनन तकनीक (असिस्टेड रिप्रोडक्श न टेक्नोपलॉजी) और सरोगेसी लाखों ऐसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले कर आई, जो संतान उत्पन्न करने में अक्षम थे. सरोगेसी का शाब्दिक अर्थ है, स्थानापन्न. यानि किसी अन्य के शुक्राणु, अंडाणु अथवा कोख से संतान की उत्पत्ति. इस विधि ने बच्चे के दो से अधिक माता-पिता संभव कर दिए जिससे माता-पिता के निर्धारण में विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई. इस जटिलता को डीएनए टेस्ट की खोज ने नए आयाम दिए.
1990 के दशक में न्यायालयों में डीएनए टेस्ट के माध्यम से बच्चे के पितृत्व निर्धारण के लिए शक और संदेह की पुष्टि के लिए पतियों की ओर से याचिकाओं की बाढ़ आ गई थी. गौतम कुंडू बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले (1993) में सुप्रीम कोर्ट ने पांच निर्देश जारी कर इस पर लगाम लगाई. लेकिन बाद के दौर में खुद अदालतों ने ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की. नारायण दत्त तिवारी का डीएनए टेस्ट जबरन कराया जाना भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना ही है.
गौतम कुंडू बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पांच स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था, (1) भारतवर्ष की अदालतें नियमित तौर पर या धड़ल्ले से किसी का डीएनए टेस्ट नहीं करा सकतीं. (2) महज सतही और शक की पुष्टि के आधार पर डीएनए टेस्ट के आवेदन की सुनवाई बिल्कुल न हो. (3) डीएनए टेस्ट का आदेश तभी दिया जाए जब भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 की धारा- 112 के तहत पितृत्व निर्धारण में जरूरी अड़चन खड़ी हो गई हो. (4) डीएनए टेस्ट की जांच का आदेश करने के पहले न्यायालय को यह विचार कर लेना होगा कि आदेश का परिणाम क्या होगा. ऐसा न हो कि डीएनए टेस्ट से बच्चा दोगला और मां चरित्रहीन साबित हो जाए. (5) किसी को दबाव में लेकर डीएनए टेस्ट के लिए उसका खून नहीं लिया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट के इन पांच दिशा-निर्देशों का किस तरह उल्लंघन हुआ, नारायण दत्त तिवारी का केस इसका सटीक उदाहरण है. नारायण दत्त तिवारी के बार-बार मना करने के बावजूद अदालत ने उन पर दबाव बनाया और यहां तक कहा था कि उनके घर जाकर जबरन उनका खून निकाल कर जांच के लिए भेजा जाए.
डीएनए जांच से रोहित शेखर के जैविक पिता की पुष्टि तो हो गई, लेकिन इससे उज्जवला शर्मा की यौन-निजता भी भंग हुई और रोहित शेखर के पिता की कानूनी वैधता भी साबित नहीं हो पाई. खैर, ऐसे कई उदाहरण और हैं, जिनमें अदालतों ने शीर्ष अदालत के आदेशों को ताक पर रख कर अपना आदेश जारी किया. अदालतें पुरुषों पर डीएनए टेस्ट का दबाव देती हैं, लेकिन महिलाओं पर दबाव नहीं देतीं. इस मामले में अदालतें खुद लैंगिक भेदभाव का रवैया रखती हैं.
डॉ. जीके गोस्वामी कहते हैं कि बच्चे को उसे जन्म देने वाले के बारे में जानने का पूरा हक है, लेकिन इस जानकारी को मुहैया कराने में सामाजिक मर्यादा का धागा न टूटे, इसका पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए, अन्यथा पूरे समाज का ताना-बाना बिखर कर रह जाएगा. जन्म देने वाले के बारे में जानने का अधिकार व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है और यह जानना व्यक्ति का अधिकार भी है, लेकिन यह भी समझना चाहिए कि पितृत्व के बारे में जानने का अधिकार एक जटिल कानूनी अवधारणा है. मूलत: संबंध और प्रजनन धर्मानुसार सिविल कानून से नियंत्रित होते हैं.
वंशानुगत शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रजनन में विवाहेतर तीसरे व्यक्ति का योगदान कानून की दृष्टि से प्रतिबंधित है. यही वजह है कि कानूनन विवाहित जोड़े के अतिरिक्त अन्य से जन्मा बच्चा अवैध कहलाता है और सामाजिक भय के कारण ही कई बार अविवाहित माताएं ऐसे नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं. समाज और कानून की नजर में ऐसे बच्चे अवैध हो जाते हैं, जबकि दार्शनिक जॉर्ज बरनार्ड शॉ का महत्वपूर्ण कथन है कि बच्चा अवैध नहीं हो सकता, बल्कि बच्चे को जन्म देने वाले माता-पिता का संबंध अवैध हो सकता है.
समाज पर आ़फत की तरह टूटेगा सरोगेसी का फैशन
यह जानते हुए भी कि भारतवर्ष में पितृत्व की कानूनी मान्यता के आधार दूसरे हैं, इस देश में सरोगेसी का धंधा अंधाधुंध चल रहा है. पिता के मेडिकली अनफिट होने पर दूसरे पुरुष का शुक्राणु लेकर किराए की कोख में बच्चे विकसित किए जा रहे हैं. ऐसे लाखों बच्चे हर साल देश की धरती पर आ रहे हैं, जिनके कानूनी पिता कोई और हैं और जैविक पिता कोई और. ये बच्चे बड़े होकर पैतृक अधिकार के तहत डीएनए टेस्ट कराएंगे तो उन नस्लों में कौन सी मानसिकता विकसित होगी और वह कितनी प्रतिक्रियावादी होगी, इसकी वीभत्स कल्पना की जा सकती है. भारतवर्ष अराजकताओं का देश है, इसलिए सारे धंधे यहां निर्बाध चल रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ. यूपी से लगे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के जिले हों या हरियाणा के, सब जगह ‘प्रजनन-पर्यटन’ बेतहाशा फल-फूल रहा है. सब तरफ आईवीएफ सेंटर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं.
यूरोप अमेरिका से कई गुना सस्ते दर पर भारत में किराए की कोख (सरोगेट माताएं) उपलब्ध है. टेस्ट ट्यूब बेबी और सरोगेसी पर पश्चिमी देशों में प्रतिबंध होने की वजह से भी भारतवर्ष बेहतर विकल्प बना हुआ है. इसमें दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव, मेरठ, कानपुर, लखनऊ के अलावा मुंबई, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बेंगलुरू, गुजरात, हैदराबाद और कोलकाता के आईवीएफ सेंटर प्रजनन-पर्यटन का केंद्र बने हुए हैं. दिल्ली में ही तमाम आईवीएफ केंद्र भरे पड़े हैं. अवैध रूप से चलने वाले सरोगेसी के धंधे की तो कोई गिनती नहीं है.
अवैध इसलिए क्योंकि सरोगेसी की मूल कमाई डॉक्टर झटक लेते हैं और किराए की मां बनने वाली महिला को बहुत कम पैसे देते हैं. गरीब महिलाएं विवशता में इस धंधे में शामिल हो रही हैं. गरीब महिलाओं को सरोगेसी का धंधा वेश्यावृत्ति के धंधे से अच्छा और साफ-सुथरा लगता है. गरीब महिलाओं की विवशता का फायदा डॉक्टर उठा रहे हैं. जितने क्लिनिक उतना धंधा. डॉक्टर ही किराए की कोख का इंतजाम करते हैं.
मोटी रकम पर डॉक्टर इसका ठेका लेते हैं. लखनऊ में कई डॉक्टरों के लिए सरोगेसी का धंधा ही उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है. किराए की मां को फीस देने से लेकर बच्चा होने तक का ख्याल डॉक्टर और उनके गुर्गे रखते हैं. ग्राहक से किराए की मां का सीधा सम्पर्क नहीं होने देते. बच्चा पाने वाले परिवार का कोई एक व्यक्ति ही डॉक्टर की निगरानी में किराए की मां का बीच-बीच में हाल-चाल ले सकता है. बच्चा पाने के बाद ग्राहक उन महिला की तरफ रुख भी नहीं कर सकता. इस बात की उसे खास तौर पर हिदायत दी जाती है. किराए की मां बनने वाली महिला को नौ महीने तक बच्चा गर्भ में रखने के एवज में लाख डेढ़ लाख रुपए मिलते हैं, बाकी रकम डॉक्टर रख लेते हैं.
विदेशियों के लिए यह फायदे का जरिया है, इसलिए पश्चिम यूरोपीय देशों और दक्षिण एशियाई देशों खास तौर पर जापान से लोग भारत आकर किराए की कोख से बच्चा पैदा करा कर ले जाते हैं. जानकार कहते हैं कि यह धंधा 25 अरब रुपए के सालाना कारोबार के रूप में विकसित हुआ है. भारत में सरोगेसी के इस कदर बढ़ने का मुख्य कारण इसका सस्ता और मान्य होना है. आज देश भर में कृत्रिम गर्भाधान, आईवीएफ और सरोगेसी मुहैया कराने वाले करीब दो लाख से अधिक क्लिनिक हैं. भारत में सरोगेसी को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं है.
कानून के अभाव को देखते हुए भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) ने भारत में एआरटी क्लिनिकों के प्रमाणन, निरीक्षण और नियंत्रण के लिए 2005 में दिशा-निर्देश जारी किए थे. लेकिन इसे कोई मानता नहीं और बड़े पैमाने पर सरोगेट मांओं के शोषण और जबरन वसूली का धंधा बेतहाशा चल रहा है. यूपी की राजधानी लखनऊ में सरोगेसी का धंधा खूब पनपा है. अस्पतालों, नर्सिंग होम्स और क्लिनिक्स में सक्रिय दलाल गरीब महिलाओं को गर्भधारण के लिए पैसे का झांसा देकर चंगुल में फंसा रहे हैं.
दलालों और अस्पताल के अमानुषिक रवैये से परेशान सीतापुर की एक महिला ने अभी हाल ही सरोगेसी के धंधा का भंडाफोड़ किया. महिला ने पुलिस में शिकायत की कि तेलीबाग इलाके के एक नर्सिंग होम में सरोगेसी का धंधा चलता है और वह खुद भी इस धंधे से जुड़ी थी. एक मामले में उसे दो लाख रुपए देने का झांसा दिया गया था. गर्भधारण के दरम्यान महिला के इलाज पर जो खर्च हुआ, उस पैसे को लेने के लिए अस्पताल संचालक ने महिला और उसके पति को बुरी तरह पीटा. सरोगेसी के धंधे में गरीब महिलाओं के भीषण शोषण के बावजूद देश में हर साल करीब 15 से 20 लाख बच्चे किराए की कोख से पैदा हो रहे हैं.
गरीब और मजबूर महिलाओं की कोख को किराए पर लेकर सम्पन्न भारतीय और विदेशियों के लिए बच्चों को पैदा कराया जा रहा है. सरोगेसी के जरिए बच्चा प्राप्त करने की रेट भी अलग-अलग है. अत्याधुनिक सुविधाओं वाले स्टार अस्पतालों और सेंटरों में इसकी रेट 50 लाख रुपए तक है. सामान्य सेंटर और अस्पतालों में सेरोगेट मदर की रेट 10 से 15 लाख रुपए और लुकाछिपी से चलने वाले सेंटरों पर ग्राहक की आर्थिक औकात से रेट तय होता है. कई कॉल सेंटर्स भी इस काम में लगे हैं, जो ग्राहकों को उनके सुविधानुसार यूपी, दिल्ली, मुंबई या किसी अन्य जगह सरोगेट मां और स्थानीय डॉक्टर उपलब्ध कराते हैं.
भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र में भी ‘किराये की कोख’ का धंधा पसरता जा रहा है. सीमा क्षेत्र की गरीब महिलाएं इस धंधे में उतर रही हैं और धंधेबाजों के शोषण का जरिया बन रही हैं. नेपाल की राजधानी काठमांडू, नेपालगंज, पोखरा, बीरगंज और बिहार के रक्सौल, अररिया, किशनगंज जैसे क्षेत्र इस धंधे का केंद्र बने हुए हैं. इन स्थानों पर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, कर्नाटक से भी लड़कियां ओवम (अंडाणु) दान करने आती हैं. ओवम को नेपालगंज और पोखरा के टेस्ट ट्यूब सेंटर में फ्रीज करके रखा जाता है. इसके बाद आईवीएफ तकनीक से नेपाली महिलाओं को गर्भधारण कराया जाता है. भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र के रुपईडीहा में पकड़ी गईं दो महिलाओं ने सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के समक्ष यह खुलासा किया है.
उनसे यह भी उजागर हुआ कि किराये की कोख के कारोबार में दिल्ली और नेपाल के डॉक्टर करोड़ों की कमाई कर रहे हैं. पूछताछ में दोनों महिलाओं ने बताया कि दिल्ली की एक डॉक्टर ओवम डोनेट करने के लिए लड़कियों को यहां भेजती है. पोखरा के कुछ डॉक्टरों के साथ मिलकर इस नेटवर्क को चलाया जा रहा है. पकड़ी गई महिलाओं ने बताया कि नेपालगंज के सेंटर में उन्होंने ओवम डोनेट किया. उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय मूल की युवतियों का ओवम चीन, जापान और कुछ अन्य देशों में निर्यात भी किया जा रहा है और इससे खूब कमाई की जा रही है. खुफिया एजेंसियां यह भी कहती हैं कि युवतियों का अपहरण करके भी उनसे सरोगेसी का धंधा कराया जा रहा है. गुजरात की 30 साल की प्रेमिला वाघेला की मौत का मसला काफी चर्चा में आया था.
वाघेला बच्चे पैदा करने के लिए स्वास्थ्य के आधार पर फिट नहीं थी, लेकिन पैसों के लिए उससे जबरदस्ती यह काम कराया जा रहा था. डिलीवरी के दौरान ही उसकी मौत हो गई थी. वाघेला की मौत की छानबीन में यह बात सामने आई कि इस धंधे में लगे दलाल विदेश से आने वाले ग्राहकों को महज तीन महीने में बच्चे दिला देते हैं. दलालों के गैंग के डॉक्टरों की मिलीभगत रहती है. यहां तक कि किराए की मां की कोख में एक से ज्यादा एम्ब्रियो डाल कर ये डॉक्टर एक बार में कई बच्चे पैदा कराते हैं और एक साथ कई ग्राहकों को बच्चे बेच देते हैं.
केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि किराये की कोख का अवैध धंधा तकरीबन दो अरब डॉलर का हो गया है. केंद्रीय मंत्री ने यह भी माना है कि यह धंधा आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के शोषण का जरिया बन गया है और गरीब महिलाएं ‘बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्री’ बन गई हैं. उन्होंने कहा कि किराये की कोख अंतिम विकल्प होना चाहिए.
भारतीय कानून में भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 के तहत पितृत्व निर्धारण के लिए एकमात्र प्रावधान धारा-112 के अंतर्गत है. इसके अनुसार बच्चे का पिता वह व्यक्ति होगा जो बच्चे के जन्म के समय उसकी माता से कानूनी रूप से विवाहित होगा अथवा विवाह-विच्छेद के 280 दिन के अंदर बच्चे का जन्म हुआ हो. कानून ऐसा मानता है कि नियमानुसार विवाहित पति-पत्नी से जन्मे बच्चे ही वैध होंगे.
-डॉ. जीके गोस्वामी, प्रख्यात कानूनविद्, फॉरेंसिक विज्ञान के विशेषज्ञ और वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी
…पर एनडी तिवारी रोहित के क़ानूनी पिता नहीं हैं
डीएनए टेस्ट में नारायण दत्त तिवारी के रोहित शेखर का जैविक पिता प्रमाणित होने के बावजूद वे रोहित के कानूनी पिता साबित नहीं हो सकते. रोहित के कानूनी पिता बीपी शर्मा ही रहेंगे. डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट के आधार पर 27 जुलाई 2012 को एनडी के जैविक पिता साबित होने के बाद रोहित की मां उज्जवला शर्मा ने मई 2014 में नारायण दत्त तिवारी से बाकायदा शादी कर ली.
इसके बावजूद रोहित एनडी तिवारी के कानूनी पुत्र नहीं हुए, क्योंकि रोहित के जन्म के समय बीपी शर्मा और उज्जवला पति-पत्नी थे. दोनों की शादी 1963 में हुई थी, रोहित का जन्म 1979 में हुआ और दोनों का तलाक वर्ष 2006 में हुआ. वर्ष 2007 में रोहित शेखर ने अपने जैविक पिता की आधिकारिक पुष्टि के लिए सिविल सूट के जरिए अदालत में याचिका दाखिल की थी. 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट ने रोहित शेखर की इस जिज्ञासा को उसका वाजिब अधिकार माना और नारायण दत्त तिवारी का डीएनए टेस्ट कराए जाने की मंजूरी दे दी.
एनडी के ना-नुकर करने पर अदालत ने जबरन खून का सैम्पल निकालकर उसकी जांच कराने का फरमान जारी किया और टेस्ट रिपोर्ट आने पर उसे सार्वजनिक भी कर दिया. गौतम कुंडू बनाम प. बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश की ऐसी-तैसी हो गई. हालांकि इस जरिए रोहित शेखर के जैविक पिता के बारे में तो आधिकारिक पुष्टि हो गई, लेकिन कानूनी सवाल वहीं का वहीं रह गया कि इससे क्या रोहित शेखर को कानूनी पिता के रूप में नारायण दत्त तिवारी का नाम मिल गया? क्या रोहित शेखर को पितृत्व अधिकार मिल गया? इस सवाल का जवाब ‘ना’ है और अदालतें इस सवाल का जवाब देने में अक्षम हैं.
स्कूलों में बच्चों के पहचान-पत्र पर लगेगा डीएनए चिप
जैविक पिता की पहचान जानने के अधिकार की जागरूकता समाज में इस तरह पैठ बनाती जा रही है कि अब बच्चे के पैदा होते ही उसका और उसके पिता का डीएनए मैच करा लेने की प्रक्रिया अनिवार्य करने पर विचार हो रहा है. इस प्रक्रिया के लागू होने के बाद बच्चों के डीएनए चिप युक्त पहचान पत्र बनाने की व्यवस्था भी लागू कर दी जाएगी.
महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि नवजात बच्चों का डीएनए टेस्ट आसान होता है. बच्चों के आइडेंटिटी कार्ड पर डीएनए-चिप लगाए जाने के बारे में पूछने पर उक्त अधिकारी ने कहा कि बच्चों के डीएनए चिप में माता-पिता का नाम, स्थाई पता समेत उसके जन्म लेने का स्थान और तारीख दर्ज रहेगी. बच्चों की यह पहचान पितृत्व अधिकार को कानूनी रूप से सरल बनाने के साथ-साथ भविष्य में पासपोर्ट और मतदाता परिचय पत्र जैसी तमाम जरूरतों में कारगर तरीके से काम आएगा.
इस कॉन्सेप्ट पर तेजी से काम हो रहा है. देश के बड़े शहरों से लेकर नोएडा, गाजियाबाद, आगरा, लखनऊ, चंडीगढ़, गुड़गांव जैसे भारत के मंझोले शहरों में भी बच्चे के पिता की पुष्टि के लिए डीएनए टेस्ट का चलन बढ़ता जा रहा है. इन शहरों में बच्चे के जैविक पिता की जांच के लिए पैटरनिटी केंद्र खुलते जा रहे हैं. यहां पुरुष बच्चे और अपना ब्लड-सैंपल डॉक्टरों के माध्यम से दिल्ली, हैदराबाद, पुणे और अहमदाबाद की प्रयोगशालाओं में भेज रहे हैं.
यूपी के मंझोले शहरों के अस्पतालों में हर महीने 10 से 15 मामले पैटरनिटी टैस्ट के आ रहे हैं. दस हजार रुपए की फीस और टेस्ट के लिए तीन एमएल खून देना होता है, जिसकी रिपोर्ट एक हफ्ते में आती है. नेशनल एक्रेडिटेशन बोर्ड ऑफ हॉस्पिटल (एनबीएच) से सम्बद्ध कोई भी सेंटर डीएनए परीक्षण के लिए खून के नमूने ले सकता है. यदि बच्चों और पिता के नमूने मेल नहीं खाते, तो यह तलाक का आधार बन जाता है. पैटरनिटी टेस्ट बाकायदा कॉमर्शियल हो चुका है. कोई भी दम्पति अपना संशय मिटाने के लिए पैथोलाजी लैब से टेस्ट करा सकते हैं. इसके लिए कोई कानूनी रास्ता अख्तियार करने की भी जरूरत नहीं रही, एनएबीएच से सम्बद्ध किसी भी लैब की रिपोर्ट को अदालत भी मान्यता देती है.
क्या है डीएनए टेस्ट
डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड टेस्ट विभिन्न व्यक्तियों के बीच परिवार के रिश्तों का सबूत प्रदान करता है. इस टेस्ट से रक्त संबंध और एक ही परिवार से होने का पता चलता है. एक पिता का डीएनए हमेशा अपने बच्चों के डीएनए से मैच होता है. दादा का डीएनए अपने पोते के डीएनए से मैच होता है. डीएनए टेस्ट इन कारणों से भी कराया जा रहा हैः
- आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) – ‘सरोगेसी’ से बच्चे पैदा करने का धंधा भारत में बहुत फल-फूल रहा है. देश में प्रजनन केंद्रों की बढ़ती संख्या इसके बढ़ते धंधे का प्रमाण है. अब तो भारत प्रजनन-पर्यटन का केंद्र बनता जा रहा है. किसी युगल को अगर यह संदेह हो कि आईवीएफ प्रयोजन के लिए उनके वास्तविक ओवम और स्पर्म का इस्तेमाल फर्टिलाइजेशन के लिए नहीं किया गया है, तो मैटरनिटी डीएनए टेस्ट या पैटरनिटी डीएनए टेस्ट कराया जा सकता है.
- अस्पताल में बच्चे की अदला-बदली का संदेह- अगर माता-पिता को संदेह है कि अस्पताल में उनके बच्चे की अदला-बदली हुई है, तो वह मैटरनिटी डीएनए टेस्ट या पैटरनिटी डीएनए टेस्ट के द्वारा इस आशंका को दूर कर सकते हैं.
- पत्नी पर विश्वास की कमी – डीएनए पैटरनिटी टेस्ट कराने का सबसे आम कारण आपसी संदेह है. पति पैटरनिटी डीएनए टेस्ट से यह भी जानना चाहता है कि बच्चा उसका है या नहीं. कई बार यह टेस्ट परिवार के विवाद को सुलझाने के लिए और संदेह के आधार पर तलाक आने की स्थिति को रोक लेता है तो कई बार यह टेस्ट निर्णायक विभाजन करा देता है.
- विरासत साबित करने के मामले में – विरासत साबित करने के कई मामलों में भी डीएनए टेस्ट की जरूरत पड़ती है.
- आव्रजन (इमीग्रेशन) के संदर्भ में – स्थाई निवास या नागरिकता देने से पहले प्राथमिक आवेदक और उनके परिवार के बीच के संबंध को साबित करने के लिए डीएनए टेस्ट कराया जा सकता है.
प्रतीक यादव के सामने भी आएगा पितृत्व क़ानून का रोड़ा
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सौतेले भाई प्रतीक यादव के समक्ष भी पितृत्व अधिकार का कानूनी संकट खड़ा होने वाला है. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह को प्रतीक के पिता के रूप में कानून मान्यता नहीं देता. प्रतीक यादव का जन्म 7 जुलाई 1987 को हुआ था, लेकिन मुलायम की पहली पत्नी मालती देवी का निधन वर्ष 2003 में हुआ. पहली पत्नी के निधन के बाद ही 23 मई 2003 को मुलायम ने साधना गुप्ता को अपनी पत्नी घोषित किया. 1994 में प्रतीक यादव के स्कूल फॉर्म में पिता के नाम पर एमएस यादव और पते की जगह मुलायम सिंह यादव के ऑफिस का पता दिया गया था. वर्ष 2000 में प्रतीक के अभिभावक के रूप में मुलायम का नाम दर्ज हुआ. साधना गुप्ता इटावा के बिधुना तहसील की रहने वाली हैं. 4 जुलाई 1986 को साधना गुप्ता की शादी फर्रुखाबाद के चंद्रप्रकाश गुप्ता से हुई थी. इनकी शादी के बाद 7 जुलाई 1987 को प्रतीक यादव का जन्म हुआ था. इसके दो साल बाद साधना और चंद्रप्रकाश अलग-अलग हो गए थे. देश में लागू पितृत्व कानून के मुताबिक प्रतीक यादव अभी भी चंद्र प्रकाश गुप्ता का ही बेटा है. गोद लेने के लिए भी चंद्र प्रकाश गुप्ता की औपचारिक सहमति अनिवार्य होगी. लिहाजा, आने वाले समय में यह मसला भी कानूनी पेंच में फंसने वाला है.