जयप्रकाश नारायण (15 मई 1964 को हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित आर्टिकल)
कश्मीर पर मेरे हाल के एक आर्टिकल से तीव्र विवाद पैदा हुआ. यह ठीक भी है, क्योंकि भावनात्मक तनाव के निकल जाने के बाद मिजाज शांत हो जाना चाहिए. इससे एक ऐसे सवाल के प्रति तार्किक दृष्टिकोण पैदा होती है, जिससे यह उपमहाद्वीप पिछले 17 सालों से जूझ रहा है. इस सवाल पर तत्काल फिर से विचार किए जाने की जरूरत है. मैंने इस आर्टिकल में सिर्फ कुछ तर्क रखे हैं, कुछ निवेदन किए हैं. जिनलोगों ने भी मुझे देशभक्ति पर क्रोधित होकर उपदेश दिए हैं, वे उस सत्य की ओर देखना ही नहीं चाहते, जिधर मैंने ध्यान खींचने की कोशिश की थी.
अभी भी, मेरी इच्छा इस विवाद को लंबा खींचने की नहीं है, क्योंकि मैं मानता हूं कि इससे जुड़े उन सभी लोगों को मदद मिलेगी, जिनके इस मुद्दे पर अपने-अपने विचार हैं, लेकिन हाल में कुछ चौंकाने वाले बयान और खतरनाक मनोवृत्ति सामने आए हैं. इसलिए यह जरूरी है कि इनमें से कुछ चिंताजनक मुद्दों पर विस्तार से बात की जाए और संभव हो, तो एक रचनात्मक रास्ता तलाशा जाए.
जब मैंने अपने आर्टिकल में इस शोरगुल के बारे में लिखा था, तो मुझे इस तरह की संगठित मनोवृत्ति, जो उन्मत व असहमत स्वर के खिलाफ करीब-करीब हिंसक थी, का अंदाजा था. दिल्ली में शेख अब्दुल्ला के आगमन पर लोगों का उन्माद उसी तरह का था, जिसकी वजह से राष्ट्रपिता को कुर्बान किया गया था. दुखद रूप से संसद ने खुद इस तरह की असहिष्णुता को बढ़ावा देने में मदद दी. कुछ संसद सदस्यों की मानसिकता का पता इसी से चलता है कि एक समय केंद्रीय मंत्री रहे और अब के यूपी कांग्रेस अध्यक्ष एपी जैन ने कथित तौर पर कहा है कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जिनकी राय मुझसे अलग है और जिस तरह की बात लगातार श्री नारायण कर रहे हैं, उससे उनका धैर्य जवाब दे सकता है.
मुझे नहीं मालूम कि श्री जैन किस तरह की धमकी देना चाहते हैं, शायद वे और उनके मित्र मुझे जेल भेजना चाहते हैं. व्यक्तिगत तौर पर मैं ऐसे किसी भी कदम का स्वागत करूंगा और इस अवसर का फायदा आराम करने और अध्ययन के रूप में उठाऊंगा. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जब श्री जैन जैसे व्यक्ति इस तरह की बात कर सकते हैं, तब तो कोई उन्मादी युवा किसी की हत्या भी करने की सोच सकता है.
जब मैंने दिल्ली की एक जनसभा में इसे बताने का जिक्र किया, तो राज्यसभा में मेरे कुछ दोस्तों ने मेरे लिए सुरक्षा की मांग की, बजाए इस गंभीर मुद्दे और इसके खतरे पर विचार करने के. (मुझे सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं है). क्या मैं यह कह सकता हूं कि इस हालात को सुधारने के लिए माननीय संसद सदस्य खुद के व्यवहार में ही थोड़ी सहिष्णुता और धैर्य दिखाएं.
इस विवाद के क्रम में दिए गए बयानबाजी में कांग्रेस के 27 सांसद (कांग्रेस सचिव समेत महत्वपूर्ण सदस्य) निश्चित तौर पर बाजी मार ले जाएंगे. सबसे पहले तो उनकी तरफ एक बात सामने आती है, नैतिक और मानवीय मूल्यों पर कानून की सर्वोच्चता की. एक विधायिका के रूप में सांसदों को कानून की प्रकृति और सीमा को समझना चाहिए, क्योंकि वे ही कानून बनाते हैं, खत्म करते हैं और उसमें संशोधन करते हैं. मानवीय मामलों में कानून का महत्वपूर्ण रोल है, लेकिन उसकी भी एक सीमा है. नैतिकता और मानवीय मूल्य अंत में कानून पर भारी पड़ते हैं.
नैतिक क्या है, यह किसी एक व्यक्ति के विचार की बात नहीं है. यह पहचानना मुश्किल नहीं है कि आज के दौर में क्या नैतिक है और क्या मानवीय है. यह महात्मा गांधी ही थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन राजनीति को आध्यात्मिक बनाने के लिए झोंक दिया. यह दुखद है कि जिस संगठन को गांधी जी ने बनाया, उसी के ज्यादातर सदस्य आज नैतिकता और मानवतावाद का तिरस्कार करते नजर आ रहे हैं.
कश्मीर मुद्दे पर बात करते हैं. यह कैसे हुआ कि वे लोग अधिकारपूर्वक यह बोल सके कि कश्मीर के लोगों को अब और अधिक आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं मिल सकता है. आगे वे कहते हैं कि क्या आजादी मिलने के बाद अमेरिका के राज्यों ने आत्मनिर्णय की बात की? इसका जवाब कांग्रेस के सांसदों को बेहतर पता होगा. फिर ऐसी घबराहट क्यों?
जनता, जिसकी याद्दाश्त कमजोर होती है, उसे समझाया गया कि कश्मीर के मसले पर आत्मनिर्णय की बात जयप्रकाश नारायण के दिमाग की उपज थी. इस बारे में मुझे रिकार्ड दुरुस्त करने दीजिए. जब विभाजन की बात हुई, तब यह तय हुआ कि हिंदू और मुस्लिम आबादी की बहुलता वाले क्षेत्र के आधार पर बंटवारा होगा और राजशाही वाले राज्यों को भारत और पाकिस्तान में से किसी को चुनने का विकल्प मिलेगा. बंबई या बिहार में किसी भी तरह के जनमत की बात थी ही नहीं.
इसलिए जब महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर का विलय भारत में किया, तो फिर किसी शंका के लिए कोई जगह बची ही नहीं. लेकिन यहां एक रोड़ा था. अधिग्रहण को स्वीकार किया जाना था. उसी वक्त आत्मनिर्णय की बात को घुसाया गया. 27 अक्टूबर 1947 को अधिग्रहण को स्वीकार करते हुए लार्ड लुइस माउंटबेटेन ने महाराजा हरि सिंह को उसी तारीख को एक पत्र लिखा. पत्र में लिखा था कि आपके द्वारा उल्लेखित विशेष परिस्थितियों में मेरी सरकार, भारत में कश्मीर के विलय को स्वीकारती है. यदि किसी राज्य का अधिग्रहण विवादित हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में अधिग्रहण के सवाल पर निर्णय राज्य के लोगों की इच्छा के आधार पर लिया जाएगा. इसलिए मेरी सरकार चाहती है कि जैसे ही कानून-व्यवस्था की स्थिति सामान्य हो और आक्रमणकरी बाहर कर दिए जाएं, तब राज्य के अधिग्रहण के सवाल को लोगों की राय से सुलझाया जाना चाहिए.
इसके कुछ दिनों बाद (2 नवंबर 1947) को श्री नेहरू ने एक प्रसारण में गवर्नर जनरल के आश्वासन को स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया. इसमें उन्होंने कहा है कि-
हमने इस अधिग्रहण को स्वीकार करने का निर्णय लिया है और हवाई जहाज से सेना को भेजा है. लेकिन हमने एक शर्त रखी है कि शांति-व्यवस्था कायम होने के बाद अधिग्रहण पर कश्मीर के लोगों द्वारा विचार किया जाएगा. हम संकट की स्थिति में और कश्मीरी लोगों को सुने बिना इसको अंतिम रूप नहीं देना चाहते हैं. आखिरकार, कश्मीरियों को ही निर्णय लेना है. मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि हमारी यह नीति है कि जहां कहीं भी किसी राज्य के अधिग्रहण को लेकर विवाद हो, वहां राज्य के लोगों को निर्णय लेना है. इसीलिए हमने कश्मीर के अधिग्रहण के दस्तावेज में इस शर्त को डाल दिया.
बाद में, इसी प्रसारण में प्रधानमंत्री ने दुनिया के सामने यहां स्पष्ट किया कि-
हमने साफ कर दिया है कि कश्मीर के भाग्य का फैसला कश्मीर के लोगों को करना है. हमारे इस वादे का समर्थन महाराजा ने भी किया है और यह वादा न सिर्फ कश्मीरियों, बल्कि पूरी दुनिया से है. हम इससे पीछे नहीं हट सकते और न ही हटेंगे. हम शांति व्यवस्था बहाल होने के बाद यूएन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था की निगरानी में जनमत संग्रह के लिए तैयार हैं. हम जनता के निर्णय को स्वीकार करेंगे. इससे अधिक संतोषजनक और न्याययुक्त क्या बात होगी?
शीशे की तरह साफ इस स्थिति को देखने के बाद आज यह देख कर आश्चर्य होता है कि कैसे ये लोग इस मसले पर उत्तेजना दिखा रहे हैं.
बाद में यह कहा गया कि अधिग्रहण में जो शर्त जोड़ी गई थी, उसका पालन हुआ. कैसे, जब 1956 में कश्मीर की संविधान सभा ने एक संविधान को अपनाया, जिसमें यह कहा गया है कि जम्मू और कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है और रहेगा. यह सब कुछ शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के तीन साल बाद हुआ. लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान सभा के निर्णय को जनमत संग्रह के बराबर नहीं माना जा सकता है, जिसकी बात खुद प्रधानमंत्री ने की थी.
महाराजा की ओर से कानून के तहत अधिग्रहण होने के बाद, शेख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेस ने इस अधिग्रहण को स्वीकार कर लिया था. ये सब निर्विवाद था, लेकिन अभी भी अधिग्रहण में जोड़ी गई शर्त को प्रभाव में लाया जाना बाकी था. कश्मीर के लोगों की भावना की जगह खुद शेख अब्दुल्ला या नेशनल कांफ्रेंस नहीं ले सकती.
एक दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि पाकिस्तान ने एसईएटीओ और सीईएनटीओ ज्वॉयन कर लिया था और अमेरिका की तरफ से उसे भारी मात्रा में हथियार की आपूर्ति की गई और बाकी घटनाओं की वजह से स्थिति बदल गई और ऐसे में जनमत संग्रह की पेशकश ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकती थी. लेकिन यह भुला दिया गया था कि वह वादा पाकिस्तान से नहीं, बल्कि कश्मीर के लोगों से किया गया था. पाकिस्तान की गलती के लिए कश्मीर को सजा नहीं दी जा सकती है.
इन सब बातों से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि एक सही और रचनात्मक तरीका यही होगा कि कश्मीरियों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित न रखा जाए या ये कहा जाए कि आपने अपने आत्मनिर्णय के अधिकार का इस्तेमाल कर लिया है. इसकी जगह तार्किक रूप से ये बताना चाहिए कि आज के संदर्भ में इस अधिकार का इस्तेमाल कैसे अव्यावहारिक है.
निम्नलिखित चार तथ्यों को सामने रखा जाना चाहिए. कैसे पाकिस्तान ने अतिक्रमण किया हुआ है और वह इसे खाली भी नहीं करना चाहता, जनमत संग्रह का गंभीर असर भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर पड़ सकता है, जनमत संग्रह से आगे जम्मू और कश्मीर राज्य की अखंडता पर असर पड़ सकता है और इस सब की वजह से भारत के डिफेंस (रक्षा) पर गंभीर असर हो सकते हैं. शेख अब्दुल्ला या कोई भी कश्मीरी नेता इन तथ्यों को खारिज नहीं कर सकते क्योंकि वे भी भारत की भलाई ही चाहते हैं.
इसलिए मेरा विनम्र आग्रह है कि अधिग्रहण अंतिम और अटल है, इसे लेकर चल रहे इस गरमा-गरम बहस को किनारे रखिए. शेख अब्दुल्ला के साथ बैठिए व्यावहारिक रास्ता तलाशिए. यदि हम यह समझते हैं कि अंतिम रास्ता यही है कि शेख अब्दुल्ला भी इस अधिग्रहण को अंतिम और अटल मान लें, तब तो फिर हमें उन्हें जेल भेजना पड़ेगा. लेकिन एक आपसी सहमति वाला रास्ता तलाशना है, तो किसी को भी अपनी पोजिशन छोड़ने की जरूरत नहीं है. सबके लिए महत्वपूर्ण यह समझना है कि सिर्फ अपने पोजिशन से चिपके रहने से रास्ता नहीं निकलने वाला है. हम कितना भी कह लें कि अधिग्रहण अंतिम और अटल है, दुनिया इसे नहीं स्वीकारती. आजाद कश्मीर अभी भी पाकिस्तान के कब्जे में है, सीजफायर लाइन अभी भी है, दोनों तरफ की सेनाएं आमने-सामने हैं. भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक डर के साये में जी रहे हैं. कश्मीर में असंतोष है इसलिए भविष्य में हम अपने इस रुख से क्या हासिल कर लेंगे या अब तक हमने क्या हासिल किया है? दूसरी तरफ शेख अब्दुल्ला लगातार आत्म निर्णय के अधिकार की बात कर रहे हैं और हालात इसकी मंजूरी नहीं देती.
इसलिए हर किसी को अपने पोजिशन पर बने रहते हुए एक व्यावहारिक रास्ता तलाशना चाहिए. हमें याद रखना चाहिए कि अल्सेस लोरेन में तीन जनमत संग्रह हुए थे और आज यह कहां है, इसकी फिक्र कोई नहीं करता.
मैं नहीं सोचता कि किसी को भी मालूम है कि समाधान क्या हो सकता है. फिर भी कुछ सकारात्मक बातें कही जा सकती हैं. पहला तो ये कि हरेक पक्ष के मन में समाधान तलाशने की एक ईमानदार इच्छा होनी चाहिए. दूसरा, जैसा कि एक अंग्रेज राजनेता ने कहा है कि कुछ भी व्यवस्थित नहीं हुआ है, अगर वह सही से व्यवस्थित नहीं किया गया है, को याद रखना चाहिए. जाहिर है, यह जानना आसान नहीं है कि इस उलझे हुए मुद्दे का सही समाधान क्या है, फिर भी यह हरेक पक्ष को संतुष्ट करने वाला होना चाहिए. इसलिए, समाधान ऐसा हो, जो भारत, कश्मीर के लोगों और पाकिस्तान को भी संतुष्ट करने वाला हो.
कश्मीर समाधान के संदर्भ में शेख अब्दुल्ला का भारत-पाक की सहमति पर जोर देने से जनता के बीच गुस्सा पनपा है और जनता यह मानने लगी है कि शेख का झुकाव पाकिस्तान की तरफ है. ऐसा मानना गलत है. दरअसल, शेख अब्दुल्ला यह सोचते हैं कि अगर पाकिस्तान को इस मसले में पार्टी नहीं बनाया गया, तो इसका समाधान निकालना मुश्किल है. कश्मीर का सवाल ही पाकिस्तान की तरफ से आया है और यह भारत ही है, जिसने यूएन में पाकिस्तान को पार्टी बनाया. इसके अलावा, शेख अब्दुल्ला यह भी मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान का भविष्य इस पर भी निर्भर करता है कि वे दोनों दोस्त हैं या दुश्मन.
यह एक ऐसा विचार है, जिस पर देश में ज्यादा विरोध नहीं होगा और इसे प्रधानमंत्री का भी समर्थन हासिल है. लोकसभा में एक साहसिक और स्टेट्समैन जैसे भाषण में, (विदेश मामलों पर चल रही एक बहस के जवाब में) श्री नेहरू ने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि भारत और पाकिस्तान नजदीक आएंगे, यहां तक कि संवैधानिक तरीके से भी. लेकिन इससे पाकिस्तानी प्राधिकारी वर्ग नाराज होगा. इसलिए, वे खुद ही इस बात की घोषणा करेंगे कि हमारे समक्ष शांति से जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. यह भाषण उस वक्त दिया गया था, जब देश गहन सांप्रदायिक भावना से गुजर रहा था. ऐसे में यह भाषण देना बहुत ही साहस का काम था.
दोनों देशों के बीच संवैधानिक संपर्क की जो बात प्रधानमंत्री ने की, वह आज के संदर्भ में काफी दिलचस्प है. यह नहीं मानना चाहिए कि पाकिस्तान हमेशा ऐसे विचार को नकारता ही रहेगा. आखिरकार, हर देश अपने आर्थिक मसले और सुरक्षा को लेकर सबसे अधिक चिंतित रहता है. क्या इसमें कोई शक है कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक संवैधानिक संपर्क से इन दोनों देशों को सुरक्षा और आर्थिक तरक्की की गारंटी नहीं मिलेगी? इसके अलावा, शेख अब्दुल्ला भी इसी लाइन पर सोच रहे हैं, जिससे इस स्थिति के लिए एक नई आशा जागती है. इसलिए अगर सख्त पोजिशन को छोड़ दिया जाए, तो एक ऐसे सही समाधान निकलने की उम्मीद की जा सकती है, जिससे भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के लोग भी संतुष्ट हों. एक स्टेट्समैन को यही काम करना है.
अपनी बात खत्म करने से पहले मैं कश्मीर के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की ओर भी नज़र घुमाना चाहता हूं. बाकी चीजों के अलावा, कश्मीर हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्य के लिए भी एक बेहतरीन उदाहरण है. यही कश्मीर, जो भारतीय धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण है, हिन्दू सांप्रदायिकता की घृणित तरक्की का निमित्त बना. यह सब राष्ट्रवाद की आड़ में हो रहा है. भारत एक हिंदू बहुल देश है और ऐसे में भारतीय राष्ट्रवाद की आड़ में हिन्दू सांप्रदायिकता का उभार कठिन नहीं है. इसलिए, यह अत्यंत आवश्यक है कि जो भी लोग धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखते हैं, वे इसकी (धर्मनिरपेक्षता) रक्षा करें. कश्मीर भारतीय धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण क्यों है और इसका क्या अर्थ है? मैं समझता हूं कि भारतीय लोगों ने अपने गैर सांप्रदायिक नजरिए का सबूत दिया है. तभी कश्मीर के मुस्लिम, जो वहां बहुमत में हैं, ने पाकिस्तान (मुस्लिम बहुल) के बजाए भारत जैसे देश में शामिल होना पसंद किया, जो हिन्दू बहुल होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष देश है. लेकिन कश्मीर में मुस्लिमों को बलपूर्वक भारत के साथ रखना क्या हमारी धर्मनिरपेक्षता है? और आज भी एक बड़ी मानसिकता ऐसी है, जो अपने राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष आधार की रक्षा के लिए कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर बनाए रखना चाहतेे हैं, अगर जरूरी हो, तो बलपूर्वक भी.
इसलिए, मैं प्रधानमंत्री से गंभीरता से यह अनुरोध करता हूं कि कांग्रेस अध्यक्ष और अन्य कांग्रेसी नेता सावधानीपूर्वक अपनी पार्टी में पनप रही इस कैंसरकारी प्रक्रिया की ओर ध्यान दें. जो स्थितियां बन रही हैं, उसके हिसाब से जनसंघ और कांग्रेस दोनों एक ही तरह के हो गए हैं. कुल मिलाकर लोगों की सोच सही है. अगर नेहरू सही दिशा में साहसिक नेतृत्व देने के लिए तैयार हैं, तो जनता उनका साथ देगी. अगर इस तरह की कोई घटना नहीं घटती है, तो मुझे भय है कि भारत के सेकुलर बुनियाद को एक बड़ी क्षति पहुंचेगी.