धुनिक खेती, कृषि आगतों की बढ़ती कीमतें, कीटनाशक और रासायनिक खादों के दंश ने पंजाब की खेती में ज़हर घोल दिया है. इसकी विषबेल किसानों की मौत का कारण बन रही है. हरित क्रांति के बूते देश के खाद्यान्न भंडार में अकूत अनाज भर देने वाले पंजाब में  आत्महत्याओं का दौर चल पड़ा है. ग़रीबी, क़र्ज़, आर्थिक तंगी और घाटे की खेती से जूझ रहे पंजाब के हर जाति, हर वर्ग के किसान और कृषि मज़दूर मौत को गले लगा रहे हैं. यह तस्वीर ऐसे समय में उभर रही है, जब हरित क्रांति के 40 साल पूरे हो चुके हैं और सरकार दूसरी हरित क्रांति की बात कर रही है.
बठिंडा से तलवंडी की ओर जाते हुए क़रीब 15 किलोमीटर का स़फर तय करने पर कोरसमीर नाम का गांव है. मुख्य सड़क पर ही दो भाइयों संदूरा सिंह और दर्शन सिंह का संयुक्त परिवार रहता है. घर में प्रवेश करने पर खूंटे से बंधी गाय-भैसें, बड़ा सा घर-आंगन देखकर पहली नज़र में एक खाए-अघाए परिवार की तस्वीर उभर कर आती है. लेकिन शांत से दिखने वाले इस चौबारे में रहने वालों की आंखों में आंसुओं का सैलाब भरा था. घाटे की खेती, कीटनाशकों और ट्रैक्टर के क़र्ज़ ने संदूरा सिंह और दर्शन सिंह के जवान बेटों को ही नहीं छीना, बल्कि उनकी 12 कीले ज़मीन भी क़र्ज़ की भेंट चढ़ गई. इस ज़मीन पर वे गेहूं और कपास की खेती करते थे. आठ सालों में संदूरा सिंह के घर में दो आत्महत्याएं हो चुकी हैं. 10 अगस्त 2008 को उनके 29 वर्षीय बेटे भोला सिंह ने कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. नौजवान बेटे की तस्वीर देखते ही संदूरा सिंह अपने आंसू नहीं रोक पाते और फफक कर रो पड़ते हैं. इससे पहले 15 अगस्त 2001 में दर्शन सिंह के 18 वर्षीय बेटे गुरप्रीत सिंह ने भी क़र्ज़  के बोझ और आत्मसम्मान खोने के भय से ख़ुदकुशी कर ली थी. बकौल दर्शन सिंह, पिछले कई सालों से नरमा (कपास) की पैदावार ठीक नहीं हो रही थी. नहर में पानी नहीं है और ज़मीन का पानी खारा है, इसलिए सिंचाई की समस्या है. बरसात कभी तो फसल को डुबो देती है, तो कभी फसलों को सूखा अपनी चपेट में ले लेता है. बकौल दर्शन सिंह, 2001 में भी ज़्यादा बारिश के कारण नरमा मर गया, जिसकी क़ीमत उनके बेटे को जान देकर चुकानी पड़ी.
संदूरा सिंह बताते हैं कि, कपास में सुंडी (कीड़ा) बहुत लगता है. कई बार तो फसल स़िर्फ 20 हज़ार की होती है, जबकि कीटनाशक का ही ख़र्च 80 हज़ार रुपये हो जाता है. आज भी संदूरा सिंह और दर्शन सिंह दोनों पर सोसायटी, आढ़तिए और गांव के कुछ लोगों का कुल मिलाकर क़रीब 15 लाख रुपये का क़र्ज़ है. ज़मीन बिक जाने के कारण भोला सिंह ने ट्रैक्टर फाइनेंस कराया था और उसे ठेके पर चलाता था. गांव के कुछ अन्य लोगों के ट्रैक्टर भी भोला ठेकेदार के पास चलवाता था. इस तरह ठेकेदार पर क़रीब पांच लाख रुपये बकाया थे, लेकिन वह पैसे देने से मुकर गया. गांव वालों को क्या जवाब दिया जाएगा, इस भय से भोला सिंह ने आत्महत्या कर ली. भोला की मौत के बाद फाइनेंस कंपनी उसके ट्रैक्टर को भी ज़ब्त कर ले गई. संदूरा सिंह के मुताबिक ब्याज की दर दो से 10 प्रतिशत तक है. लेकिन लगातार ब्याज बढ़ते रहने और फसल नहीं होने से क़र्ज़ बढ़ता जाता है. परिवार में संदूरा सिंह की पत्नी और  उनके दूसरे बेटे के अलावा भोला सिंह की विधवा व एक छह वर्षीया बेटी और 11 साल का लड़का है. दर्शन सिंह का परिवार भी साथ में ही रहता है. अब दोनों भाई ज़मीन अधिया लेकर खेती करते हैं.
केंद्र सरकार द्वारा किसानों केक़र्ज़ माफी योजना का लाभ इन लोगों को नहीं मिला है. संदूरा सिंह के मुताबिक बठिंडा के कलेक्टर की ओर से भोला की मौत पर एक लाख रुपये ज़रूर दिए गए. उल्लेखनीय है कि कुछ समय पूर्व राज्य सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसानों को दो  लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की थी, लेकिन पीड़ित परिजनों को उसका पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है.
तलवंडी तहसील के गांव चट्‌ठेवाला की रंजीत कौर के दो बेटे हैं. एक सातवीं कक्षा में तो दूसरा बेटा आठवीं में पढ़ता है. रंजीत कौर के पति जगजीत सिंह ने आर्थिक तंगी और क़र्ज़ से परेशान होकर 21 सितंबर 2003 में कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली. रंजीत कौर बताती हैं कि, जगजीत ने ट्रैक्टर लिया था, लेकिन फसल ठीक नहीं होने से क़र्ज़ का बोझ बढ़ गया और हमारी दो कीले ज़मीन बिक गई. आज क़रीब आठ-नौ लाख रुपये का क़र्ज़ है. घर में खाने की भी तंगी है. रंजीत कौर कहती हैं, हम गांव के एक जमींदार से ज़मीन अधिया पर लेकर खेती करते थे. फसल में उसका हिस्सा देने के बावजूद भी वह ब्याज पर ब्याज लगाता जा रहा है. लाचार रंजीत कौर को अ़क्सर ज़मींदार की धमकियां सुननी पड़ती हैं. गुजारे के लिए उन्हें मिट्‌टी के चूल्हे बेचकर और दिहाड़ी करके बच्चों का पालन करना पड़ता है. विधवा पेंशन भी अनियमित रहती है. अन्य किसी तरह का मुआवज़ा या क़र्ज़ माफी का लाभ रंजीत कौर को नहीं मिला है. इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है. वह अपने दोनों बेटों को पढ़ाना चाहती हैं. लेकिन स्कूल में बच्चों को कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल पाने से वह निराश हैं और कहती हैं कि सरकार कोई काम दे तो मैं कर सकती हू. बच्चे आख़िर क्या कर सकते हैं?
चट्‌ठेवाला गांव के ही जगरूप सिंह ने भी चार मई 2002 को क़र्ज़ के बोझ से दबकर आत्महत्या कर ली थी. उनकी विधवा जसपाल कौर बताती हैं कि, घर में पांच लोग हैं. डेढ़ कीले ज़मीन है, जिस पर बेटा कनक (गेहूं) और नरमा (कपास) की खेती करता है. इसी से परिवार का गुजारा चल रहा है. जसपाल कौर बताती हैं कि उन पर बैंक का 40 हज़ार, बनिए का 70 हज़ार और सोसायटी का 50 हज़ार क़र्ज़ है. ब्याज समेत यह कर्ज़ दो लाख रुपये से ऊपर हो जाता है. पति ने ख़ुदकुशी करने से पहले ठेके पर क़रीब छह कीले ज़मीन लेकर कनक की खेती की. क़रीब 150 मन कनक इस साल पैदा हुआ था. इसी बीच 40 हज़ार रुपये क़र्ज़  लेकर बोरवैल भी उन्होंने लगाया था. बोरवैल की किस्त जब आई तो जगरूप सिंह आढ़ती से पैसे लेने गए, लेकिन वह पैसे देने से मुकर गया. निराश जगरूप सिंह के सम्मान को क़र्ज़ न भर पाने से ठेस लगी और उन्होंने कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली. जसपाल कौर बताती हैं कि उनका बेटा पढ़ना चाहता था, लेकिन पिता की मौत से उसे 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ गई. जसपाल कौर को भी किसी तरह का मुआवज़ा या क़र्ज़ माफी का लाभ नहीं मिला. सरकार की ओर से विधवाओं को दी जाने वाली 10 हज़ार रुपये की मदद के लिए उन्होंने कई बार आवेदन किया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ.
तलवंडी साबो के गांव मौड़ निवासी तेजा सिंह बताते हैं, हमारे गांव  में आधे से अधिक लोग क़र्ज़ में डूबे हैं. 1990 से लेकर अब तक मौड़ में 30-35 किसानों ने आत्महत्या की है. मरने वालों में ज़्यादातर लोगों की उम्र 18 से 35 साल के बीच है. कई गांवों में तो 50 से अधिक लोगों ने ख़ुदकुशी की है.
मौड़ के रहने वाले जगसीर सिंह ने हाल ही में पांच मई 2009 को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उनके पीछे घर में पत्नी के अलावा दो बेटियां और दो बेटे हैं. उनकी पत्नी सिमरजीत कौर  बताती हैं कि, हम पर सरकारी और ग़ैर सरकारी मिलाकर क़रीब 12 लाख रुपये का क़र्ज़ है. वह (जगसीर सिंह) कर्ज़ की चिंता में रात-दिन डूबे रहते थे. पांच कीले ज़मीन भी बिक चुकी है, जबकि महज़ 4 कीले खेती योग्य भूमि बची है. बच्चों का पालन-पोषण कैसे होगा, इस बात की चिंता सिमरजीत को सताने लगी है.
2. डरावने हैं सर्वे के नतीजे
निरतंर घटते उत्पादन, बढ़ते क़र्ज़ और कृषि के अलाभकारी होने से पंजाब की खेती संकट में है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के सर्वे के मुताबिक 2000 से लेकर 2008 के बीच बठिंडा और संगरूर जिलों के 2,990 किसानों एवं कृषि मजदूरों ने कर्ज के बोझ, गरीबी एवं आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या की है. सर्वे में बताया गया है कि कपास की घटती पैदावार ने पंजाब की कपास पेटी को संकट में डाल दिया है. 2001 से 2005 के दौरान अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट होने से गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य नियंत्रित कर दिये गये. इस बीच गेहूं का समर्थन मूल्य 1.5 फीसदी और धान का 2.5 फीसदी की दर से बढ़ा, जबकि इनकी लागत में क्रमश: 8 फीसदी एवं 9 फीसदी तक बढ़ोत्तरी हो गई. इसके कारण प्रदेश में आर्थिक संकट बढ़ गया, जिसका परिणाम आत्महत्याओं के रूप में सामने आ रहा है. पीएयू के ताजा सर्वे के मुताबिक पंजाब के दक्षिण पश्चिमी जिलों की कपास पेटी के 93 फीसदी किसान परिवार क़र्ज़ में डूबे हैं. समस्या स़िर्फ कपास पेटी तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य इलाक़ों में भी आत्महत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं. इन जिलों में औसतन 69,518 रुपये का क़र्ज़ है. जबकि सर्वे में प्रति परिवार औसतन क़र्ज़ 2,66,636 रुपये आंका गया है.
खेतिहर मज़दूरों की आर्थिक स्थिति कृषि के बेहतर प्रदर्शन पर निर्भर करती है. 1990 से लेकर अब तक खेती में गिरावट से इन मज़दूरों की आर्थिक स्थिती कमज़ोर हुई है. दूसरी ओर,  मशीनीकरण से कृषि रोज़गार कम होने और ग़ैर कृषि क्षेत्र में भी रोज़गार के अवसर घट जाने से समस्या बढ़ती रही. इस बीच खाद्यान्नों और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी से ग़रीब परिवारों का जीवन यापन मुश्किल हो गया. भारतीय किसान यूनियन एकता (उगराहां) के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1990 से 2006 के डेढ़ दशक में मालवा के आठ जिलों में 13 हज़ार से अधिक किसानों ने क़र्ज़ न चुका पाने के कारण आत्महत्या की है. इस दौरान लिए क़र्ज का 44 फीसदी खाद इत्यादि पर, तो 13 फीसदी क़र्ज़ ट्रैक्टर आदि के लिए लिया गया है.
बठिंडा जिले के कर्मगढ़ छतरा गांव निवासी स्वर्ण सिंह की उम्र क़रीब 70 वर्ष है. उन्होंने बचपन से लेकर बुढ़ापे तक किसानी को क़रीब से देखा-समझा है और खेती-बाड़ी का अर्थशास्त्र वह  बख़ूबी जानते हैं. गांव में रहकर भी अपने अनुभवों से उन्होंने कृषि के गहराते संकट को काफी पहले भांपते हुए 80 के दशक में ही बच्चों को खेती से अलग हो जाने की नसीहत दे दी थी. अब उनका बेटा और बेटी विदेश में रह रहे हैं. बकौल स्वर्ण सिंह, परिवार में कुल छह सदस्य हैं, जबकि ज़मीन 5 एकड़ है. यदि मैं बच्चों को खेती से अलग होने के लिए नहीं कहता, तो आज तक मेरी ज़मीन कब की बिक गई होती. 1967-68 में मैंने खेती शुरू की थी. तब से लेकर अब तक महंगाई कई गुणा बढ़ चुकी है, लेकिन सूचकांक के आधार पर आज भी किसानों को फसलों का मूल्य नहीं मिल रहा है.
नजदीक की गिदिरबा मंडी का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं-वहां बीजों के प्रचार का कोई बोर्ड  दिखाई नहीं देता था, लेकिन आज वहां विभिन्न कंपनियों के बीज देखने को मिल जाते हैं. सवाल करते हुए स्वर्ण सिंह कहते हैं कि यह बदलाव आख़िर कैसे आया? इस बात को समझाने के लिए वह 60 के दशक में लौट पड़ते हैं और बताते हैं कि जब देश को खाद्यान्नों की ज़रूरत थी तो अमेरिका से पीएल-480 समझौता हुआ. इसके साथ सौगात में भारत को कीटनाशक, यूरिया और कृषि विश्वविद्यालय खोले जाने की शर्तें भी मिली थीं. 1968 में ग्रामसेवक ठेले पर रखकर यूरिया लाया और मुफ़्त सैंपल बांटते हुए कहा कि इससे फसलें, मोर के पंख जैसी खिल जाएंगीं. अगले साल ग्रामीणों से पांच रुपये प्रति क्वटल की दर से किराया भी लिया गया. तब से हमारे गांव में उसकी मांग निरंतर बढ़ती रही और आज तो डीएपी व  पोटाश के लिए हमें विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है.
केंद्र सरकार द्वारा किसानों के क़र्ज़ माफ करने की योजना की बात पर स्वर्ण सिंह कहते हैं कि यह तो पता ही नहीं चल रहा कि किसके क़र्ज़ माफ किए जा रहे हैं? वह कहते हैं कि बैंकों में क़ज़र्र् के ऐसे हज़ारों मामले लंबित पड़े थे, जिनका भुगतान नहीं हो पा रहा था. बताया जाता है कि क़र्ज़ माफी योजना के तहत ऐसे बकायेदारों के क़र्ज़ माफ किए गए हैं, जिनके खातों को देखरेख करना बैंकों के लिए सिरदर्दी बन चुका था.जानकारों के मुताबिक क़र्ज़ माफी योजना की  एक अन्य शर्त के मुताबिक जो किसान एक साथ पैसा लौटाएगा उसकी 20 फीसदी राशि माफ कर दी जाएगी. जो लोग क़र्ज़ भरने को तैयार थे, उन्हें इसी श्रेणी में रखा गया. इस तरह से सीमांत एवं मझोले किसानों पर तो क़र्ज़ का बोझ जस का तस बना रहा, जबकि अधिकतर बड़े किसानों ने इसका फायदा उठाया है.
स्वर्ण सिंह बताते हैं कि छतरा में 250 परिवार हैं. उनमें से स़िर्फ दो लोगों के क़र्ज़ माफ हुए हैं. क़ज़र्र् माफी की बात पर सुखदर्शन सिंह की भी यही प्रतिक्रिया है. छतरा के ही एक अधेड़ सुखदर्शन सिंह पांच कीले के काश्तकार हैं और वह नरमा (कपास) और कनक (गेहूं) की खेती करते हैं. वह बताते हैं कि कपास में सुंडी (कीड़ा) लग गया, जिसकी दवाई के पैसे बनिए ले गए और गुजारा मुश्किल हो गया. ऐसे में क़र्ज़ लेकर उन्होंने गायें और भैंसे ख़रीद कर दूध का काम शुरू कर दिया है. वह कहते हैं कि क़र्ज़ उनका माफ करना चाहिए, जो पैसे भरने को तैयार हों, लेकिन जो लोग पैसे वापस ही नहीं करना चाहते थे उन्हें ही क़र्ज़ माफी दी जा रही है. इस तरह ग़रीब किसानों को उसका लाभ नहीं मिल पा रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता मोहणा सिंह केंद्र सरकार की क़र्ज़ माफी योजना को नाटक करार देते हैं. वह कहते हैं कि अकाली दल की सरकार होने से पंजाब के ग़रीब किसानों को उसका लाभ केंद्र की यूपीए सरकार ने नहीं दिया.
कृषि आगतों पर कंपनियों के एकाधिकार और बाज़ारीकरण से किसानों को उसकी भरपाई के लिए क़र्ज़ लेना खेती का एक अनिवार्य हिस्सा बनता चला गया. दूसरी ओर कीटनाशकों और  रासायनिक खादों का धीमा ज़हर खाद्यान्नों में प्रवेश कर जाने से उसका असर धीरे-धीरे स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा. लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां हो रही हैं. बीकानेर में कैंसर का बड़ा अस्पताल है और बठिंडा से बीकानेर जाने वाली गाड़ी को अब कैंसर वाली गाड़ी कहा जाने लगा है. इसलिए कि इस गाड़ी से बड़ी संख्या में लोग कैंसर का इलाज कराने बीकानेर जाते हैं. उल्लेखनीय है कि कुछ अध्ययनों में खेती में कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की बात सामने आ चुकी है. कई इलाक़ों में तो रासायनिक उर्वरकों से ज़मीन के बंजर होने की बात भी सामने आई है.
नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइज़ेशन के मुताबिक देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा पंजाब में क़र्ज़ का स्तर अधिक है. ग़ैर संस्थागत क़र्ज़ दायरा भी काफी अधिक है, जिस पर 57 प्रतिशत तक ब्याज वसूले जाने की बात कही जा रही है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) ने 2006 के दौरान क़र्ज़ का स्तर 24 हज़ार करोड़ रुपये आंका है. इसमें से 12 हज़ार करोड़ रुपये ग़ैर संस्थागत क़र्ज़ है. इसकी वसूली के लिए अपनाए जाने वाले बाध्यकारी तरीक़े कई बार किसानों पर सामाजिक एवं मानसिक दबाव का कारण बन जाते हैं. कुछ मामलों में संस्थागत क़र्ज़ वसूली के लिए इसी तरह के तरीक़े अपनाए जाने की बात भी सामने आई हैं. आय में गिरावट के साथ क़र्ज़े का अनुत्पादक गतिविधियों में उपयोग भी देनदारी बढ़ने का कारण बताया जा रहा है. भारतीय किसान यूनियन के सुखदेव सिंह खोखरी कलां कहते हैं कि खेती से मुना़फा नहीं होने से अनुत्पादक गतिविधियों में क़र्ज़ का उपयोग किसानों की मजबूरी बन जाती है. वह किसानों को कोऑपरेटिव सोसायटियों के ज़रिए कृषि इनपुट मुहैया कराने की वकालत करते हुए कहते हैं कि इससे किसानों को क़र्ज़ लेने से मुक्ति मिल सकती है. सूदखोरों और कमीशन एजेंटों द्वारा मनमानी वसूली पर सरकार की लगाम न होने को वह चिंताजनक मानते हैं. साथ ही वर्तमान सीलिंग एक्ट को भी वह दोषपूर्ण बताते हुए कहते हैं कि राज्य में 16 लाख 66 हज़ार हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि बेकार पड़ी है, जबकि भूमिहीन कृषकों की संख्या बढ़ रही है.
बहरहाल विभिन्न पहलुओं को देखते हुए जब तक कोई व्यवस्थित मूल्यांकन नहीं किया जाता, तब तक अकेले क़र्ज़ को आत्महत्याओं का कारण नहीं माना जा सकता. जो भी हो, आत्महत्याओं का दायरा काफी विस्तृत जान पड़ता है. कुछ लोगों के मुताबिक, मरने वालों की संख्या महज़ 130 है तो कुछ लोग 40 हज़ार से भी अधिक आत्महत्याएं होने की बात कह रहे हैं. जो भी हो, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सर्वेक्षण के नतीजे आंखें खोलने वाले हैं और इससे सबक़ लेने की ज़रूरत है.
3. उद्योगपतियों की है सरकार, किसानों की नहीं परवाह
पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में कृषि की असफलता का पर्याय पूरे भारत की कृषि व्यवस्था की असफलता के रूप में देखा जाने लगेगा. इसी भय से सरकार पंजाब के किसानों की आत्महत्या के मामलोें स्वीकार करने से बच रही है. जबकि हालात बेहद ख़राब हैं और एक ही परिवार में दो से चार सदस्य तक आत्महत्या कर रहे हैं. मूवमेंट अगेंस्ट स्टेट रिपे्रशन (एमएशसआर) के संयोजक डॉ. इंद्रजीत सिंह जैजी ने संगरूर जिले के मूणक एवं लहरा सब डिवीजन के 91 गांवों में किए गए अपने अध्ययन के आधार पर किसान आत्महत्याओं की परिघटना को 80 के दशक में ही महसूस कर लिया था. 1988-89 में गुलाड़ी गांव के नौ किसानों ने जब आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या की, तो जैजी ने पत्र लिख कर सरकार को इसकी जानकारी दी थी. सरकार ने भी अपने स्तर पर जांच कराई और आत्महत्याओं को स्वीकार किया, लेकिन इसके पीछे अन्य कारण बताए गए. बकौल जैजी, 1992 में तो सरकार बिल्कुल ही चुप हो गई, क्योंकि सरकार किसान आत्महत्याओं एवं आतंकवाद दोनों को एक साथ स्वीकार करने से कतरा रही थी. यह चुप्पी 1997 तक बनी रही. 1998 में एमएएसआर की ओर से राष्ट्रपति को इस बाबत पत्र लिखा गया. राष्ट्रपति की स़िफारिश पर राज्य सरकार ने इंस्टीट्‌यूट ऑफ डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन के चेयरमैन की देखरेख में सर्वेक्षण कराया. इसकी रिपोर्ट में भी किसान आत्महत्याओं की बात को स्वीकार किया गया. लेकिन कितनी हो रही हैं, इस बात को उजागर नहीं किया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे. हालांकि इस सर्वे रिपोर्ट का प्रभाव दक्षिण भारत में हो रही किसान आत्महत्याओं पर पड़ा और इसके मद्देनज़र वहां किसानों को राहत पहुंचाने के कुछेक क़दम उठाये जाने लगे. आख़िरकार बादल ने 2001 में पीड़ित परिवारों को दो लाख मुआवज़ा दिए जाने की घोषणा कर दी, लेकिन इस पर अमल नहीं हो सका. एक साल बाद सत्ता अमरिंदर सिंह के हाथ में आ गई. उन्हें भी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समस्या से अवगत कराया, लेकिन जब क़रीब डेढ़ साल तक उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी तो हाईकोर्ट में पीड़ितों को मुआवज़ा दिलाने के लिए केस दायर कर दिया गया. 2004 में अमरिंदर सरकार ने हाईकोर्ट में कहा कि हम किसान आयोग बना रहे हैं. इस कवायद में डेढ़ साल और बीत गए. किसान आयोग के अध्यक्ष डॉ. कालकर ने 2006 में अपनी संस्तुतियां प्रदेश सरकार को सौंप दी. उसमें पीड़ित परिवार को 50 हज़ार रुपये तत्काल देने और मृतक के आश्रित को 1500 रुपये मासिक पेंशन देने की बात शामिल थी. कालकर ने सरकार से गेहूं की क़ीमत सीधे किसान को देने, क़र्ज़ पर दोगुने से अधिक की रिकवरी न करने, ब्याज दर 10 प्रतिशत तय करने और क़र्ज़ के बदले ज़मीन ज़ब्त न करने की स़िफारिश की.
2007 में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पुलिस विभाग से किसान आत्महत्याओंं की जांच कराई. इसमें पांच साल के दौरान महज़ सात किसानों की आत्महत्याओं की बात कही गई थी. दूसरी ओर, रिवेन्यु डिप्टी कमीश्नर की रिपोर्ट पांच साल में आत्महत्याओं की संख्या 132 बता रही थी. वहीं एमएएसआर के मुताबिक संगरूर जिले के स़िर्फ मूणक और लहरा सब-डिवीजन में ही 1990 से लेकर अब तक 91 गांवों के 1665 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इनमें से 1582 किसानों के एफीडेविट भी संस्था के पास मौजूद हैं. आज जब पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की सर्वे रिपोर्ट संगरूर और बठिंडा जिलों में 2990 किसानों द्वारा आत्महत्या कर लेने की बात बयां कर रही है, तब सब की आंखें खुली रह गई हैं. यह स़िर्फ दो जिलों की दास्तान है, जिसके आधार पर पंजाब के सभी 20 जिलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. वैसे  ये आंकड़े भी अभी वास्तविक संख्या से काफी कम हैं.
आत्महत्या के ज़्यादा मामले उन इलाक़ों से आ रहे हैं, जहां कपास की खेती होती है. यहां किसानों को मूल्य संवर्धन के अवसर नहीं मिलना भी समस्या के कारणों में रहा है. सीलिंग एक्ट के तहत कोई भी किसान 17.5 एकड़ से अधिक ज़मीन गांव में नहीं रख सकता. दूसरी ओर उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने के लिए खाद्यान्नों के दामों को नियंत्रित कर दिया गया. इस तरह से किसान उपभोक्ताओं को सब्सिडी दे रहा है, जिसकी क़ीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. जबकि दूसरे देशों में खाद्यान्नों पर सब्सिडी राज्य देता है. वस्तुत: आत्महत्याओं के मूल में लागत और मूल्य का सही निर्धारण नहीं होना मुख्य है. इसके अलावा पानी का समुचित बंटवारा न होने से सिंचाई की समस्या भी पैदा हुई है. पंजाब का तीन चौथाई पानी अन्य राज्यों में बांट दिया गया. कई मामलों में बीटी कॉटन के दुष्प्रभावों की बात कही जाती है, लेकिन यह मुद्दा इतना बड़ा नहीं है. बीजों का एकाधिकार हमारे पास रहे, यह ज़रूरी है. विडंबना है कि सरकार उद्योगपतियों के इशारों पर चलती है और उन्हीं के अनुकूल नीतियां भी बनाती है. राज्यों में आढ़तियों का सिक्का चलता है और सरकार पर उनका एक तरह से नियंत्रण रहता है. आज सरकारी अनुदानों का क़रीब 66 फीसदी हिस्सा इंडस्ट्री को जा रहा है, जबकि महज़ 33 फीसदी गांवों को मिल रहा है.
हरित क्रांति के कारण खेती तेज़ी से की जाने लगी और ज़मीन को ख़ाली छोड़ने के  बजाय एक वर्ष में दो से तीन ़फसलें ली जाने लगी. इसके लिए कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों एवं जेनेटिक बीजों के उपयोग की बाध्यता ने खेती को महंगा बना दिया. खेती की लागत जुटाने के लिए किसानों को क़र्ज़ लेना पड़ता है. इसमें संस्थागत क़र्ज़ 45 फीसदी, जबकि 55 फीसदी ग़ैर संस्थागत क़र्ज़ होते हैं.
सरकार ने किसानों के 71 हज़ार करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ करने की घोषणा की थी, लेकिन इसमें पंजाब का हिस्सा महज़ एक फीसदी था. स़िर्फ इसलिए कि रिकवरी की दर यहां अधिक है. पंजाब की हर बार उपेक्षा की गई है. आत्महत्याग्रस्त राज्यों को चार हज़ार करोड़ का पैकेज दिया गया, लेकिन पंंजाब को नहीं मिला. फिर 25 हज़ार करोड़ रुपये ड्राईलैंड एरिया के तहत दिए गए, लेकिन पंजाब को यहां भी कुछ नहीं मिला.
(डॉ. इंद्रजीत सिंह जैजी से बातचीत पर आधारित)
4. छोटे-छोटे बॉक्स

.1 पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने राज्य में किसानों और खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याओेंं के कारणों को समझने के लिए बठिंडा और संगरूर जिले के 875 गांवों की सवेर्र्क्षण रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है. रिपोर्ट के मुताबिक इन जिलों में ग़रीबी, आर्थिक तंगी और क़र्ज़ से त्रस्त 2,990 किसानों व खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की है.
2 पंजाब के 89 प्रतिशत किसान परिवार क़र्ज़ में डूबे हैं. प्रत्येक परिवार पर क़रीब 1.78 लाख रुपये का क़र्ज़ है और प्रति एकड़ ज़मीन पर 50,140 रुपये का बकाया है. हरित क्रांति के 40 साल बाद पंजाब के किसान की औसत आय महज़ 3,200 रुपये है. क्या यह शर्म की बात नहीं है कि किसान खेती छोड़ रहे हैं और हज़ारों आत्महत्याएं हो रही हैंै?
3 आज भले ही गेहूं का आयात न हो रहा हो, लेकिन हमें गेहूं पैदा करने वाली चीज़ों  का आयात तो करना ही पड़ता है. कंपनियों ने कृषि इनपुटों पर एकाधिकार जमा लिया है. इसके लिए किसानों को क़र्ज़ लेना पड़ता है. क़र्ज़ की यह विषबेल निरंतर बढ़ती है और अंतत: किसानों को अपने फंदे में जकड़ कर उनका दम घोंट देती है.
4 चावल और गेहूं के ख़रीद मूल्य में क्रमश: 61 और 69 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. कपास का ख़रीद मूल्य भी 2,050 रुपये से बढ़कर 3,000 रुपये तक पहुंच गया. लेकिन पंजाब में किसान आत्महत्याएं सोचने पर विवश कर देती हैं कि क्या किसानोंे की जेब में ़फसलों के लिए कुछेक सौ रुपये डाल देने से खेती की तस्वीर बदल जाएगी?
5 पंजाब में मां के दूध में कीटनाशक पाए जाने की पुुष्टि पहले ही हो चुकी है. कीटनाशक कैंसर जैसे भयानक रोगों और कन्या भ्रूण क्षरण का कारण बन रहे हैं. ज़मीन बंजर हो रही है और पर्यावरण में हुई उथल-पुथल, वातावरण में घुले रासायनों एवं प्रदूषित जल ने समूची भोजन श्रृंखला को विषाक्त बना दिया है.
5. कोट
1- देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ

कृषि के निरंतर गर्त में जाने से सबक़ लेने के बजाय सरकार ने दूसरी हरित क्रांति का बिगुल फूंक दिया है. यह न केवल संकट को अधिक बढ़ाएगा, बल्कि किसानों को खेती-बाड़ी से बाहर भी धकेल देगा.
2-उमेंद्र दत्त
खेती विरासत मिशन, बठिंडा

हरित क्रांति की ख़ुशहाली 20 साल भी नहीं टिक सकी और 1985 से ही आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया. संगरूर, मानसा और बठिंडा से शुरू हुई संताप की लपटें मालवा के मुक्तसर, फरीदकोट, फिरोज़पुर, मोगा समेत पूरे पंजाब में पहुंच चुकी हैं.
3-सुखदेव सिंह खोखरी कलां
भारतीय किसान यूनियन

सरकार किसानों के प्रति उदासीन है. ़फसलों पर सरकारी समर्थन मूल्य मेंे से कृषि लागत निकाल पाना भी मुश्किल हो जाता है. खेती मेें लाभ न होने से कृषि आगतों के अलावा अनुत्पादक गतिविधियों के लिए भी किसानों को क़र्ज़ लेना पड़ता है. विकास का पैमाना उत्पादन नहीं, उत्पादक को मानना चाहिए.
4-डॉ. सुखपाल सिंह
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय

किसानों की असल शुद्ध आय में कमी आत्महत्याओं का कारण है. कपास की शुद्ध आमदनी 1997 से 2003 के बीच ऋणात्मक रही. धान की असल शुद्ध आमदनी 2002 के 2000 रुपये प्रति हेक्टेयर से घटकर 2005 में 1100 रुपये रह गई. इसी तरह गेहूं पर शुद्ध लाभ 2002 में 2200 रुपये प्रति हेक्टेयर था, जो 2005 में घटकर मात्र 300 रुपये रह गया.

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