मां-बाप बूढ़े हो गए हैं। पहले खेती करते थे, अब वो भी बंद हो गई है। घर में कमाने वाले भैया ही थे, अब वो भी नहीं रहे। जैसे-तैसे करके घर का गुजारा चल रहा है। लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस वालों ने कहा था कि भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ो, मना कर दिया तो नौकरी के लिए यहां से वहां चक्कर लगवा रहे हैं। स्थानीय कांग्रेस नेता कहते हैं कि तुम तो भाजपा वाले हो तो उन्हीं से मदद मांगो, मैं कुछ नहीं कर सकता। आप ही बताइए हमने क्या गलत किया? ये कहना है, दो साल पहले पुलवामा हमले में शहीद हुए रोहिताश लांबा के भाई जितेंद्र लांबा का। 14 फरवरी 2019 को हुए उस हमले में CRPF के 40 जवान शहीद हो गए थे।
जयपुर जिले के अमरसर थाना इलाके के रहने वाले रोहिताश लांबा 2013 में CRPF में भर्ती हुए थे। परिवार में माता-पिता, छोटा भाई, पत्नी और दो साल का एक बेटा है। जितेंद्र बताते हैं कि भैया जनवरी 2019 में बेटे के जन्म के बाद घर आए थे। एक फरवरी को वापस ड्यूटी ज्वॉइन करने गए थे।
खुद ही बनवाया भैया का स्मारक
जितेंद्र कहते हैं कि भाभी बीमार रहती हैं, पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उन्होंने लिखकर दे दिया है कि देवर को नौकरी दे दी जाए, सरकार ने घोषणा भी की थी, लेकिन अब बस यहां से वहां चक्कर लगवा रहे हैं। इन्होंने तो शहीद स्मारक भी नहीं बनवाया, हमने खुद ही भैया का स्मारक बनवाया है। एक सरकारी स्कूल के नामकरण की घोषणा हुई थी, वो भी आज तक पूरी नहीं हुई।
रोहिताश की पत्नी मंजू लांबा कहती हैं कि जब पति शहीद हुए तो घर पर सब आए, सरकार ने देवर को नौकरी देने की भी बात कही, लेकिन अब कोई पूछने नहीं आ रहा कि हम कैसे जी रहे हैं? मुआवजे के रूप में जो पैसा मिला था, उसी से घर का खर्च चल रहा है। इसके बल पर हम कब तक गुजारा करेंगे?
हमने तो देश को अपना बेटा दे दिया, अब और किसी से क्या मांगू?
बिहार के भागलपुर जिले के रहने वाले शहीद रतन ठाकुर के पिता राम निरंजन ठाकुर अब बूढ़े हो गए हैं। किराए के मकान में रहते हैं। कहते हैं, ‘जरूरतें तो बहुत हैं, बेटी के हाथ पीले करने हैं, रतन के बेटों को पढ़ाना है। सरकार ने फ्लैट देने की बात कही थी, जो अब तक पूरी नहीं हुई। रतन के नाम से गांव में शहीद स्मारक बनाने की घोषणा हुई थी। तब नेताओं ने कहा था कि उसके नाम से सड़क बनेगी, ये होगा, वो होगा, लेकिन कुछ नहीं हुआ।’
इतना कहते-कहते निरंजन का गला भर आता है। कुछ देर बाद खुद को संभालते हुए कहते हैं, ‘हमारा रतन तो रतन ही था, हमने तो देश को अपना बेटा दे दिया, अब और किसी से क्या मांगू, क्यों मांगू? सरकारें तो मुआवजा देकर अपना पीछा छुड़ा लेती हैं, उसके बाद हम पर क्या गुजरती है, इससे किसे क्या फर्क पड़ता है? प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव के समय भागलपुर की सभा में मेरे बेटे का नाम लिया था, लेकिन जीतने के बाद कभी मिलने नहीं आए।’
रतन के दो बेटे हैं। पहला बेटा पांच साल का और दूसरा बेटा दो साल का है। छोटे बेटे का जन्म रतन की शहादत के दो महीने बाद हुआ था। बिहार सरकार ने रतन के छोटे भाई को नौकरी दी है।
6 साल की बेटी कहती है- मैं तो पापा की तरह बंदूक चलाऊंगी
उत्तर प्रदेश के उन्नाव के रहने वाले अजीत कुमार आजाद भी पुलवामा हमले में शहीद हुए थे। एक माह की छुट्टी के बाद हमले से चार दिन पहले वे ड्यूटी के लिए गए थे। उनकी दोनों बेटियों श्रेया (6 साल) और ईशा (8 साल) ने रोका था, तो कह के गए थे कि जल्द ही आऊंगा, लेकिन वे कभी लौट नहीं सके। बड़ी बेटी कहती है कि उसे डॉक्टर बनना है। जबकि छोटी बेटी कहती है कि मैं तो पापा की तरह बंदूक चलाऊंगी।
अजीत जम्मू में CRPF की 115वीं बटालियन में तैनात थे। उनके भाई रंजित कहते हैं कि हम लोग तो जैसे-तैसे खुद को संभाल लेते हैं, लेकिन दोनों बच्चियों को समझाना मुश्किल है। छोटी बेटी को तो लगता है कि उसके पापा अभी भी जिंदा हैं, वे ड्यूटी पर हैं, वो आज भी उनके लौटने का इंतजार कर रही है।
रंजित बताते हैं कि इन दो सालों में बहुत कुछ बदल गया है। सब कुछ होते हुए भी घर वीरान-सा लगता है। हम तो अब कोई त्योहार भी नहीं मनाते हैं। सरकार से हमें कोई शिकायत नहीं है। भाभी को नौकरी मिली है। शहीद स्मारक भी बन गया है, लेकिन वहां तक जाने के लिए पक्की सड़क नहीं है।
न नौकरी मिली, न ही सरकार ने स्मारक बनवाया
राजस्थान के भरतपुर जिले में एक गांव है सुंदरावली। यहीं के रहने वाले थे जीतराम गुर्जर, जो दो साल पहले पुलवामा हमले में शहीद हो गए। घर में बूढ़े माता-पिता, भाई, दो बेटी व पत्नी समेत 6 लोग रहते हैं। परिवार का कहना है कि सरकार से मुआवजा तो मिला, लेकिन परिवार के किसी सदस्य को अभी तक नौकरी नहीं मिली। आज भी उनकी फाइलें सरकारी महकमे में इधर से उधर चक्कर काट रही हैं।
शहीद के भाई विक्रम कहते हैं कि सरकार की तरफ से कहा गया था कि एक महीने में नौकरी मिल जाएगी, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। कोई साफ बता भी नहीं पाता कि आखिर नौकरी क्यों नहीं मिल रही। भाभी ने लिखित में दे दिया है कि मैं नौकरी नहीं कर पाऊंगी, मेरे देवर को नौकरी दी जाए। फिर भी कोई सुनवाई नहीं हो रही। स्मारक के लिए भी सरकार ने कोई सहायता नहीं की। हम खुद से ही स्मारक बनवा रहे हैं।
विक्रम नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं कि अभी पुलवामा की बरसी आ रही है तो सबको हमारी याद आ रही है। दो साल से लोग कहां थे? किसी को इस बात की चिंता है कि इस परिवार का आगे क्या होगा? इन बच्चियों की पढ़ाई और शादी कैसे होगी?
पापा की नई पोस्टिंग हो गई थी, कुछ दिन बाद ही असम जाने वाले थे
पटना के पास मसौढ़ी के रहने वाले संजय कुमार सिन्हा CRPF की 176वीं बटालियन में हवलदार थे। वे एक माह की छुट्टी के बाद आठ फरवरी को ड्यूटी के लिए रवाना हुए थे। अभी कैंप भी नहीं पहुंचे थे कि रास्ते में आतंकी हमले में शहीद हो गए। संजय के बेटे सोनू कुमार दिल्ली के एक मेडिकल कॉलेज से MBBS कर रहे हैं। कहते हैं,’ दो साल पहले मैं कोटा में था, जब पापा शहीद हुए।13 फरवरी को मेरी उनसे बात हुई थी। अगले दिन शाम को उनके कंट्रोल रूम से फोन आया। मुझसे पूछा गया कि आपकी बात आज पापा से हुई है क्या? मैंने नहीं में जवाब दिया और फोन कट गया।’
सोनू कहते हैं कि मुझे समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है। घर पर फोन किया तो वहां भी किसी को कोई जानकारी नहीं थी। थोड़ी देर बाद समाचारों से पता चला कि पुलवामा में आतंकी हमला हुआ है। एकदम से सहम गया, भगवान से प्रार्थना करने लगा कि पापा को कुछ ना हो। उनका फोन बंद आ रहा था। मैं बार-बार कंट्रोल रूम फोन कर रहा था, लेकिन कोई साफ बता नहीं रहा था। अगले दिन सुबह बताया गया कि पापा शहीद हो गए हैं। वे बताते हैं कि पापा की नई पोस्टिंग आ गई थी। कुछ दिनों बाद उन्हें असम जाना था।
संजय के माता-पिता बूढ़े हो गए हैं। जब कभी बेटे की याद आती है, उसकी तस्वीरें देख कर खुद को समझाते हैं। पत्नी के लिए अब सबकुछ उसके बच्चे ही हैं। वे उन्हीं के बल पर आगे की लाइफ जी रही हैं। एक बेटी को सरकार ने नौकरी दी है जबकि दूसरी अभी पढ़ाई कर रही है।
Story source : Dainik Bhaskar