उत्तर प्रदेश में जनता से जुड़े मसले सत्ता की राजनीति से गायब हैं. विपक्ष की राजनीति से भी जनता के मसले गायब हैं. भारतीय जनता पार्टी जिन मुद्दों पर चुनाव जीत कर सत्ता तक पहुंची, वे सारे मुद्दे अनछुए रह गए और अब लोकसभा चुनाव भी आने वाला है. विपक्ष की राजनीति बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोपों तक सिमट गई है. जन-मुद्दों पर सड़कों पर आंदोलन और उनमें आम जनता की भागीदारी अब बीते दिनों की बातें रह गई हैं. मुख्यमंत्री आवास के सामने या विधानसभा के सामने आलू बिखेर देने भर से किसानों का भला नहीं होने वाला, यह बात समझते हुए भी समाजवादी पार्टी इससे आगे नहीं बढ़ पा रही. अन्य विपक्षी दल तो इससे भी गए. विपक्षी दलों को रंग की राजनीति खूब भा रही है. खुद सत्ता में रहते हैं तो अपने रंग से खेलते हैं और दूसरे जब सत्ता में आकर अपना रंग दिखाते हैं तो इन्हें वह नहीं सुहाता. हरा नीला खेलने वालों को आज भगवा से एलर्जी हो रही है.
पूरी राजनीति रंग के ही आगे-पीछे चक्करघिन्नी है. विपक्ष में किसी भी मुद्दे पर कोई एकता नहीं दिख रही है. विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ तालमेल करके मैदान में उतरी थी, लेकिन आज कांग्रेस मैदान से गायब है. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव संयुक्त बैठक बुलाते हैं, तो उसमें भी कांग्रेस शरीक नहीं होती. बसपा तो नहीं ही रहती. अब दूरियां फिर से पूर्वकालिक हो गई हैं और यह लगभग तय हो गया है कि सपा-कांग्रेस गठजोड़ आने वाले लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रहेगा. 2019 के चुनाव में विपक्ष पूरी एकता से भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करेगा, यह केवल मंचीय सच है, जमीनी सच नहीं है. अगर विपक्षी दल एकता से चुनाव लड़ते तो यह अराजक दृश्य नहीं दिखता. सारे विपक्षी दल एक दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने, दबाव में रखने और मोलभाव की भंगिमा बनाने में समय नहीं गंवाते. इन रवैयों को देखते हुए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को कहना पड़ा कि लोकसभा चुनाव में सपा कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं करेगी. उन्होंने पार्टी की एक अंदरूनी बैठक में कहा कि तालमेल करना होता तो कांग्रेस और सपा मिल कर स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ती.
अखिलेश यह भी मानते हैं कि विधानसभा चुनाव में तालमेल का कोई फायदा नहीं हुआ. लब्बोलुबाव यह है कि सारी विपक्षी पार्टियां अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग साधने में लगी हैं. बसपा कांग्रेस और सपा को कहीं नहीं बख्शती. अभी पिछले ही दिनों बसपा नेता मायावती ने संविधान से छेड़छाड़ के मसले पर भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पर भी निशाना साधा. उन्होंने कहा कि संविधान और बाबा साहेब अम्बेडकर के प्रति कांग्रेस की आस्था भी भाजपा जैसी ही है. मायावती अब भी दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण समीकरण पुख्ता करने में लगी हैं. उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस और बसपा की परस्पर विरोधी राजनीति ने प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य और जनता को भ्रमित कर रख दिया है. लोकसभा चुनाव में जनता के समक्ष अब बिखरे विपक्ष और भाजपा में कोई एक विकल्प चुनने की विवशता है. आम लोग खुलेआम कहते हैं कि विपक्षी दलों को जनता का मसला उठाना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय सब भगवा रंग में ही फंसे हुए हैं. पहले तो मुख्यमंत्री सचिवालय का भगवा रंग मुद्दा बना फिर ट्रांसपोर्ट की बसें, साइन बोर्ड और अब हज हाउस की चारदीवारी का भगवा रंग विपक्षी पार्टियों का मुद्दा बन गया. हालांकि बाद में हज हाउस की चारदीवारी का रंग बदला भी गया और नीचे के स्तर पर प्रशासनिक कार्रवाई भी हुई, लेकिन इससे सियासत पर चढ़ा भगवा रंग कम नहीं हुआ.
सपा और बसपा इस रंग-प्रयोग पर अधिक हाय-हाय कर रही है. हालांकि प्रदेश के लोग बसपा और सपा काल के रंग-प्रयोग भूले नहीं हैं. यही वजह है कि विपक्ष की इस नासमझ सियासत का फायदा भाजपा को ही मिल रहा है. लोगों को पहले का अनुभव है कि सरकार बदलते ही प्रदेश में रंगों की सियासत शुरू हो जाती है. सपा और बसपा सरकारों में भी रंगारंग कार्यक्रम खूब चला. बसपा के कार्यकाल में सड़क के किनारे लगी दीवारें, ग्रिल, सरकारी डायरी और कैलेंडर तक नीले रंग से रंग दिए गए थे. सपा सरकार के कार्यकाल में भी सब तरह हरा-हरा दिखने लगा था. बसपा काल में ट्रांसपोर्ट की बसें नीली तो सपा काल में हरे रंग में रंग दी गई थीं. भाजपा ने भी सपा और बसपा की नकल पर भगवा रंग से रंगवा दिया.
सभी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों के जरिए जनता से किस्म-किस्म के वादे करते हैं. सत्ता में आने के बाद उन वादों को पूरा करने का विश्वास दिलाते हैं और वोट ठगते हैं. जनता हर बार चुनाव में ठगी जाती है. विकल्प के अभाव के कारण वोट देने और ठगे जाने की प्रक्रिया जारी रहती है. चुनाव आयोग भी कह चुका है कि अव्यवहारिक और झूठे वायदे पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है. लेकिन अभी तक ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हुई. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क, रोजगार, सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतें मुहैया कराने में राजनीतिक दल फेल ही साबित होते हैं. सत्ता मिलते ही आम जनता की सुविधा या उसके अधिकार पर कोई बात नहीं होती.
लोकसभा चुनाव आता है तो देश के विकास की बात होती है, विधानसभा चुनाव आता है तो राज्य के विकास की बात होती है, निकाय और पंचायत चुनाव आता है तो निकायों और ग्राम पंचायतों के विकास की बात होती है. लेकिन इन चुनावों के बाद सारी बातें ताक पर चली जाती हैं और धोखाधड़ी और लूट शुरू हो जाती है. संविधान प्रशासन में जनता की सीधी भागीदारी तय करता है, लेकिन असलियत क्या है, इसे हम सब जानते हैं और भुगतते हैं. लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई हमारी पंचायतें उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक कमजोर हैं. यूपी की पंचायतें भ्रष्टाचार की सबसे प्राथमिक इकाई बन कर रह गई हैं. राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ केवल बातें करते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर पसरा भ्रष्टाचार उन्हें दिखाई नहीं पड़ता.
किसानों का मसला सबसे अहम, लेकिन सबसे अधिक उपेक्षित किसान
केवल उत्तर प्रदेश ही क्या पूरे देश में सबसे महत्वपूर्ण मसला किसानों का है. आजादी के बाद से ही किसानों की लगातार उपेक्षा होती आ रही है, लेकिन सियासत की रोटियां भी इन्हीं के बूते सिंकती रही हैं. किसान आयोग के गठन का मसला हो या स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को अक्षरशः लागू करने का. किसी भी सरकार ने इसे लागू करने की कोई पहल नहीं की. आम बजट से कृषि बजट को अलग करने की मांग ठोस शक्ल पकड़ती उसके पहले केंद्र सरकार ने रेल बजट को भी आम बजट में ही विलीन कर दिया. लागत के मुताबिक कृषि उत्पाद का मूल्य निर्धारित नहीं किया गया और किसान बर्बाद होता चला गया. कितने किसानों ने आत्महत्या की, इसका भारी आंकड़ा दोहराने की आवश्यकता नहीं.
30 दिसम्बर 2016 को जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार कर्ज के बोझ, सूदखोरी, सूखा, आर्थिक तबाही और सरकार की किसान विरोधी नीतियों के चलते साल 2015 में 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की थी. यह संख्या साल 2014 में हुई आत्महत्याओं में दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दिखा रही थी. इसके बाद तो 2017 भी बीत गया. इसका आधिकारिक आंकड़ा आना अभी बाकी है. इन मौतों के बावजूद किसानों के कृषि उपज की बिक्री का कोई समुचित बंदोबस्त नहीं किया जा सका और न उचित बाजार का निर्माण ही हो सका. कृषि उपज के भंडारण और वितरण का प्रदेश में कोई इंतजाम नहीं है और न भारतीय खाद्य निगम की भंडारण क्षमता में वृद्धि के कोई ठोस उपाय किए जा रहे हैं. कृषि उपज की खरीद में बिचौलियों और दलालों का दबदबा है और खाद, बीज, तेल की बढ़ती कीमतों से किसान बुरी तरह से दबा जा रहा है. विडंबना यह है कि इन समस्याओं के निपटारे में सरकारों की कोई रुचि नहीं है.
लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों के लोकसभा या विधानसभा चुनाव के समय जारी हुए घोषणापत्रों पर गौर करें, तो किसानों से जुड़े ये सारे मुद्दे आपको कागज पर मिल जाएंगे. कांग्रेस न्यूनतम ब्याज पर कृषि ऋण देने, कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने और कृषि उत्पाद को पेशेगत तरीके से बाजार देने की बातें करती रही. लेकिन जब तक केंद्र में उसकी सरकार रही, इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई. समाजवादी पार्टी किसानों को लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने, कर्ज न चुकाने पर किसानों की जमीन नीलाम नहीं करने, बेकार पड़ी जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए सिंचाई की व्यवस्था करने और नदियों को जोड़ने जैसे वादे अपने घोषणा पत्र में शामिल करती रही, लेकिन सत्ता में आई तो किसानों से किए गए इन वादों को ताक पर रख दिया. भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र (संकल्प-पत्र) में बड़ी-बड़ी बातें कहीं. मसलन, किसानों को लागत का 50 फीसदी लाभ सुनिश्चित किया जाएगा, खाद्य प्रसंस्करण के साथ-साथ एग्रो फुड प्रोसेसिंग क्लस्टर की स्थापना होगी, गेहूं खरीदा जाएगा, धान खरीदा जाएगा, आलू खरीदा जाएगा वगैरह, वगैरह.
लेकिन हिसाब लें, तो भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इस दिशा में कुछ नहीं किया. किसानों के गन्ना बकाये के भुगतान की दिशा में सरकार आगे बढ़ी, लेकिन गन्ने के समर्थन मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करके अपनी ही किरकिरी करा ली. प्रदेश के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा ने अभी कुछ ही दिन पहले गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करने की हास्यास्पद घोषणा की थी. ये वही सुरेश राणा हैं, जो विधानसभा में यह मांग उठाते रहे हैं कि गन्ना मूल्य चार सौ रुपए प्रति क्विंटल किया जाए. समाजवादी पार्टी की सरकार ने जब गन्ना मूल्य की घोषणा की थी, तब राणा ने उसे किसानों के साथ धोखा बताया था. सत्ता मिलते ही नेता के सुर कैसे बदलते हैं, सुरेश राणा की गन्ना विकास राज्य मंत्री के रूप में की गई घोषणा, इसका सटीक उदाहरण है.
जब तत्कालीन सपा सरकार ने 2016-17 के पेराई सत्र के लिए गन्ना मूल्य में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की थी, तब भाजपा ने इसपर नाराजगी जताते हुए कहा था कि इससे फसल की लागत भी नहीं निकल पा रही है. भाजपा ने चीनी के बढ़े दामों के सापेक्ष गन्ना मूल्य निर्धारित करने की मांग की थी. भाजपा सत्ता में आ गई तो सारी बातें तहखाने में डाल दी. हालत यह है कि प्रदेश की चीनी मिलों पर पिछले पेराई सत्र 2016-17 का हजार करोड़ से अधिक अभी भी बकाया है. गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) में महज 10 रुपए प्रति क्विंटल का इजाफा चीनी मिल मालिकों को रियायत देने के लिए किया गया, ताकि चीनी मिल मालिकों के सिर से गन्ना बकाए का बोझ कम किया जा सके. सामान्य किस्म के गन्ने की कीमत 2017-18 सत्र में 310 से बढ़ कर 315 रुपए प्रति क्विंटल हो जाएगी. प्रदेश के किसान लगातार बढ़ती लागत के मद्देनजर गन्ने की कीमत बढ़ाने की मांग कर रहे थे, लेकिन चीनी मिल मालिकों के अड़ंगे के कारण गन्ना मूल्य नहीं बढ़ सका.
धान और आलू में मारा गया किसान, गेहूं में भी बर्बाद करने की तैयारी
गेहूं का समर्थन मूल्य 1450 रुपए प्रति क्विंटल किए जाने से किसानों में भीषण नाराजगी है. इस वर्ष किसानों को गेहूं खरीद पर बोनस भी नहीं मिलेगा. गन्ना, आलू, धान के गिरते दाम के बाद अब किसानों को गेहूं से भी लागत निकाल पाना मुश्किल होगा. किसान गेहूं का मूल्य 1550 रुपए प्रति क्विंटल करने और बोनस देने की मांग कर रहे हैं. किसानों का कहना है कि सरकार किसानों की परेशानी पर ध्यान नहीं दे रही है, इसके जवाब में वे आगामी चुनाव में भाजपा पर ध्यान दे देंगे. किसानों का कहना है कि धान और आलू के कारण वे पहले ही मर चुके हैं और गेहूं उन्हें और मार डालेगा. उनका आरोप है कि भाजपा सरकार किसान विरोधी नीतियों पर चल रही है.
योगी सरकार ने बड़े प्रचार-प्रसार से 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की थी, लेकिन जमीन पर वह घोषणा सफेद झूठ साबित हुई. सरकार ने यह भी कहा था कि सामान्य धान न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 प्रति क्विंटल पर और ग्रेड धान 1590 प्रति क्विंटल के भाव से खरीदा जाएगा और 72 घंटे के भीतर किसानों का भुगतान कर दिया जाएगा. धान की खरीद पर किसानों को बोनस दिए जाने की भी बात कही गई थी. लेकिन नतीजा यह निकला कि भ्रष्ट अफसरों और दलालों ने पीडीएस सिस्टम के तहत मिलने वाले निकृष्ट स्तर के चावल को धान खरीदा दिखा कर पूरा पैसा हड़प लिया. इस तरह धान की खरीद का पूरा मामला ही फर्जीवाड़ा साबित हुआ.
सरकारी धान खरीद केंद्र सूने पड़े रहे और कागजों पर धुआंधार खरीद हो गई. आढ़तियों और राइस मिलरों ने जो धान किसानों से सीधे खरीदा था, उसे ही सरकारी केंद्रों पर हुई खरीद दिखा दिया गया. क्रय केंद्रों पर अपनी फसल लेकर पहुंचे किसानों को फसल में नमी होने या दाना न होने का आरोप लगा-लगा कर वापस लौटा दिया गया, तो मजबूरी में किसानों को हजार रुपए क्विंटल के भाव से अपना धान बेच कर घर लौटना पड़ा. किसानों की मजबूरी का फायदा आढ़तियों ने उठाया जिसे सरकारी अफसरों की शह मिली हुई थी. किसानों के नाम से फर्जी खाते तक खुलवाए गए और उनके खातों में भुगतान भेज दिया गया, वे खाते मंडी के व्यापारियों और राइस मिलर्स द्वारा संचालित किए जा रहे थे. योगी सरकार ने राज्य में पांच हजार खरीद केंद्रों के जरिए 80 लाख टन गेहूं खरीदने की घोषणा की थी.
लेकिन वह घोषणा भी टांय-टांय-फिस्स साबित हुई थी. सरकार ने गेहूं की तर्ज पर 3500 क्रय केंद्रों के जरिए 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की, लेकिन धान खरीद में भी सरकार फ्लॉप रही और बिचौलियों का बोलबाला बना रहा. यूपी के पूरे धान बेल्ट में धान की खरीद का सरकारी दावा बेमानी साबित हुआ है. बिचौलियों के जरिए मनमानी कीमत पर धान खरीदा गया और सरकार के नुमाइंदे बिचौलियों को ही अपना सहयोग देते रहे. बदायूं, पीलीभीत और तराई के विस्तृत धान पट्टी क्षेत्र के किसानों में इससे भीषण नाराजगी है.
आलू को लेकर भी योगी सरकार ने ऐसे ही बड़े-बड़े वायदे किए थे, लेकिन आलू ने किसानों को बुरी तरह से मारा. विवश किसानों ने सड़कों पर आलू फेंकना अधिक श्रेयस्कर समझा. मुख्यमंत्री आवास और विधानसभा के सामने आलू फेंका गया, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बुरा मान गए. लखनऊ में विधानभवन के सामने, मुख्यमंत्री आवास के पास और कुछ अन्य महत्वपूर्ण मार्गों पर काफी संख्या में आलू बिखरा पाया गया. इसे लेकर राजनीति अचानक गरमा गई. योगी सरकार के विरोध में किसानों की नाराजगी सड़क पर आलू के जरिए जाहिर हुई. नाराज किसानों ने मुख्यमंत्री आवास और विधानसभा के बाहर आलू फेंककर प्रदर्शन किया. सुबह के समय विधानसभा के सामने की मुख्य सड़क पर आलू ही आलू नजर आ रहे थे. प्रशासन आलू हटाने में लगा था.
ऐसा केवल लखनऊ में ही नहीं हुआ, पूरे प्रदेश में आलू किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया. पिछले साल आलू की रिकॉर्ड पैदावार होने से किसानों ने आलू कोल्ड स्टोरेज में रखवा दिया था, लेकिन पुराने आलू की मांग कम होने के कारण स्टोरेज मालिकों और किसानों के पास इसे सड़क पर फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था. रिकॉर्ड आलू पैदा करने वाले फर्रुखाबाद जिले के ही करीब 70 कोल्ड स्टोरेज आलू से भरे पड़े हैं. अब कोई भी कोल्ड स्टोर आलू रखने की स्थिति में नहीं है. किसान भी कोल्ड स्टोरेज में ही आलू छोड़ कर चला गया.
फर्रुखाबाद के तकरीबन 34 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में आलू की फसल बोई गई थी. आलू के रिकॉर्ड उत्पादन का नतीजा यह निकला कि वह या तो कौड़ियों के मोल बिका या कू़डे की तरह रास्तों पर फेंका सड़ता हुआ नजर आया. प्याज और टमाटर के बढ़ते दामों के बीच आलू किसानों के लिए सरकार की तरफ से कोई भी घोषणा नहीं की गई. उल्टा, सड़क पर आलू फेंकने के आरोप में लखनऊ पुलिस ने कुछ सपाइयों को पकड़ लिया और जेल के अंदर कर दिया. जिस आलू के कारण किसानों के मरने की नौबत आ गई, उस पर विरोध जताने का लोकतांत्रिक अधिकार भी सरकार छीन लेने पर आमादा है. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि आलू खरीदा नहीं गया इसीलिए यह राजधानी की सड़कों पर दिखाई दे रहा है. जमीनी स्थिति यही रही कि आलू खरीद केंद्र खुले ही नहीं, जहां आलू खरीदे जाते.
किसानों की आम शिकायत थी कि सरकार ने आलू का समर्थन मूल्य तो घोषित कर दिया, लेकिन खरीद केंद्र खोले नहीं, किसान आलू कहां बेचते! ऐसा कई साल से हो रहा है. सपा के शासनकाल में भी आलू किसानों के साथ ऐसा ही हुआ था. आलू का सही दाम नहीं मिलने से किसानों की कमर टूट चुकी है. बाजार में आलू की कीमत चार-चार रुपए प्रति किलो तक आ गई. इस स्थिति में किसानों के पास आलू फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. किसानों का कहना है कि आलू की कीमत कम से कम 10 रुपए प्रति किलो पर तय कर दी जाए, लेकिन सरकार सुनती ही नहीं.
आलू फेंकने पर सपाइयों के पकड़े जाने पर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने किसानों और पार्टी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की और सरकार द्वारा की गई कार्रवाई की निंदा की. अखिलेश ने कहा कि आलू की फसल की बर्बादी किसानों के प्रति भाजपा सरकार की उपेक्षा नीति का नतीजा है. उन्होंने योगी सरकार से पूछा कि किसानों और गरीबों के पक्ष में आवाज उठाना क्या अपराध है? उन्होंने यह भी पूछा कि योगी सरकार ने आलू किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने का वादा किया था उसका क्या हुआ? अखिलेश ने कहा कि भाजपा सरकार ने किसानों से धोखा किया है और अब उन्हें अपमानित भी कर रही है. किसानों की आवाज उठाने वालों का उत्पीड़न कर उन्हें झूठे केसों में फंसाया जा रहा है. पुलिस अपराधी पकड़ नहीं पा रही, लेकिन आलू फेंकने पर त्वरित कार्रवाई कर सपाइयों को गिरफ्तार कर ले रही है. अखिलेश ने कहा कि ऐसी त्वरित कार्रवाई करने वाले लखनऊ के पुलिस अधीक्षक को यश भारती पुरस्कार दिया जाना चाहिए.
नेता ही बंद कराते हैं मिलें और वही चालू कराने का वादा भी करते हैं
उत्तर प्रदेश की बंद पड़ी मिलें और कल कारखाने केवल चुनावी मुद्दा बनते हैं, लेकिन उन पर कोई काम नहीं होता. आधिकारिक तथ्य है कि महज 10 साल में उत्तर प्रदेश के करीब डेढ़ लाख छोटे और मध्यम उद्योग धंधे बंद हो गए. इनके बंद होने से लाखों लोग बेरोजगार हो गए और उनका पलायन हो गया. राज्य सरकार और नौकरशाही औद्योगिक सुधार के केवल दावे करती है, पर कोई काम नहीं करती. मध्यम और लघु उद्योग मंत्रालय की रिपोर्ट खुद ही कहती है कि उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्तर पर लघु और मध्यम उद्योगों की संख्या नगण्य रह गई है. महिला उद्यमियों की संख्या तो न के बराबर है. उद्योग खड़ा करने में दलितों की भागीदारी भी कम ही है. उद्यम में सबसे अधिक भागीदारी पिछड़ी जाति के लोगों की रही है, लेकिन वे भी अधिकांश हताश होकर अपना उद्योग बंद कर चुके हैं. 30 प्रतिशत से अधिक उद्योग स्थाई रूप से बंद हो गए. इंडियन इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन का कहना है कि प्रदेश में उद्योगों को संचालित करने के लिए न तो मूलभूत सुविधाएं मिलती हैं और न ही उद्यमी यहां अपने आपको सुरक्षित समझते हैं. अकेले जीएसटी के कारण ही यूपी के कालीन उद्योग से जुड़े 20 लाख से अधिक बुनकर बेरोज़गार हो गए. पूरा कालीन उद्योग जीएसटी के बाद बर्बादी के कगार पर पहुंच गया. नोटबंदी के कारण कालीन उद्योग पहले से कराह रहा था.
जीएसटी ने बाकी की कसर पूरी कर दी. कालीन निर्माताओं और निर्यातक संघों का कहना है कि जीएसटी के चलते लगभग पांच हजार इकाइयां बंद हो गईं और हजार करोड़ रुपए का निर्यात नुकसान में चला गया. कोई नया आर्डर नहीं दिया जा रहा है और नए आर्डर के लिए बुनाई पूरी तरह बंद हो गई है. केंद्र सरकार की भौंडी नीति और प्रदेश सरकार की उपेक्षा का फायदा चीन और तुर्की जैसे देशों को मिल रहा है. सरकार कॉरपोरेट प्रतिष्ठानों को फायदा पहुंचाने के इरादे से ऐसा कर रही है, ताकि मशीन-निर्मित कालीनों का बाजार चल निकले. उत्तर प्रदेश के कालीन उत्पादक क्षेत्र भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी, घोसिया, औराई, आगरा, सोनभद्र, सहारनपुर, सहजनपुर, जौनपुर, गोरखपुर वगैरह बुनकरों के लिए तबाही का केंद्र बन चुके हैं. लेकिन इन पर न तो गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ की निगाह जाती है और न विपक्ष की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की.
योगी सरकार तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की कृपा से प्रदेश की बंद पड़ी चीनी मिलों में से कुछ मिलों को फिर से चलाने की बात कर रही है. ये कुछ मिलें पूर्वांचल की हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूर्वांचल (गोरखपुर) के हैं, तो यहां के लोगों को उम्मीद है कि अगले चुनाव के पहले कहीं ये मिलें फिर से शुरू हो जाएं. यही उम्मीद कानपुर के लोगों को भी थी जिन्हें लगातार यह आश्वासन मिल रहा था कि कपड़ा उद्योग के कारण कभी पूरब का मैंचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर को पुराने दिन लौटाए जाएंगे. कपड़ा उद्योग के लिए मशहूर मऊ के लोगों को भी यही भरोसा दिया गया था. लेकिन अब भाजपा सरकार के मंत्रियों के मुंह से उसकी भुनभुनाहट भी सुनाई नहीं पड़ती. योगी सरकार के कद्दावर मंत्री कानपुर निवासी सतीश महाना ने कहा था कि कानपुर की बंद पड़ी कपड़ा मिलों के ताले जल्दी ही खुलने वाले हैं. इससे कानपुर से तेजी से हो रहा श्रम-जगत का पलायन रुकेगा. महाना ने कहा था कि पिछली सरकारों की गलत नीतियों के चलते उद्योगपति कानपुर में उद्योग लगाने से डरते थे, लेकिन अब माहौल बदल गया है.
केंद्र और योगी सरकार मिलकर उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर उद्योग धंधे शुरू करने के लिए रोडमैप तैयार कर रही है. महाना के मुताबिक मशहूर कपड़ा मिल लाल-इमली कांग्रेस के शासनकाल में बंद हुई थी. इसे चालू करने के लिए कपड़ा मंत्रालय से पैसा भी आया, नई मशीनें लाई गईं, लेकिन इसके बावजूद इसे चालू नहीं कराया जा सका. महाना ने कानपुर के लोगों को सपना दिखाया कि आने वाले समय में कानपुर में और भी नए-नए उद्योग लगेंगे. बड़ी-बड़ी कंपनियों से इस सिलसिले में बातचीत चल रही है. महाना ने दावा किया था कि कानपुर की बंद पड़ी कपड़ा मिलों को दोबारा चालू करने के बारे में उनकी केंद्रीय वित्त मंत्री और कपड़ा मंत्री से कई बार मुलाकात हो चुकी है.
लेकिन उसका नतीजा क्या निकला, इसका लोग इंतजार ही कर रहे हैं. एल्गिन और लाल-इमली समेत अन्य बंद मिलों की चिमनियों से धुआं निकलना कब शुरू होगा, इसकी प्रतीक्षा में कई नस्लें बूढ़ी हो चुकी हैं. इन नस्लों को गुमान था कि कानपुर में कभी स्वदेशी, लाल इमली, एल्गिन समेत दर्जनों मशहूर कपड़ा मिलें थीं. कपड़े के कई अन्य छोटे-मोटे उद्योग भी थे. इन मिलों में लाखों की संख्या में लोग काम करते थे. कानपुर की पहचान ही इसकी औद्योगिक धाक के कारण थी. कानपुर के लोगों की घड़ियां मिलों के सायरन से ही चलती थीं. यहां के कपड़े की मांग विदेशों तक थी. लाल-इमली के कपड़े और कालीन की मांग पाकिस्तान से लेकर ईरान और ईराक तक थी. एल्गिन का बना कपड़ा अमेरिका, यूरोप और जापान के बाजारों तक पूछा जाता था.
कानपुर सबसे ज्यादा कपड़े का उत्पादन करने वाला एशिया का अकेला शहर था. सत्तर के दशक के बाद कानपुर की कपड़ा मिलें धीरे-धीरे बंद होती चली गईं. मऊ की बंद कपड़ा मिलों को भी दोबारा खोलने की जुमलेबाजी लगातार हो रही है. हाल ही में योगी सरकार ने मऊ की मशहूर स्वदेशी कॉटन मिल और परदहां कॉटन मिल की बंदी पर अफसोस जताते हुए इसे चालू करने का आश्वासन दिया था. लेकिन यह आश्वासन और चिंता केवल जुबानी कसरत ही साबित हो रही है. स्वदेशी कॉटन मिल केंद्र सरकार का उपक्रम थी और परदहां कॉटन मिल उत्तर प्रदेश सरकार चलाती थी. मिल बंद होने से बेरोजगार हुए एक बुजुर्ग कारीगर कहते हैं कि सरकारों को सियासत की मिल चलाने से फुर्सत नहीं, बंद कारखाने कहां से खुलवाएगी! बुजुर्ग बताते हैं कि महज 64 करोड़ के घाटे के कारण परदहां कॉटन मिल को सरकार ने बंद कर दिया था.
इस बंदी के कारण पांच हजार से अधिक कर्मचारी बेरोजगार हो गए थे. विडंबना यह है कि योगी सरकार बनने के 25 दिनों के भीतर इस मिल को फिर से चालू कराने की बात कही गई थी. अधिकारियों और इंजीनियरों की टीम ने बंद मिल का निरीक्षण करने की औपचारिकता भी पूरी कर ली, लेकिन सारी कवायद सतही सियासत ही साबित हो रही है. उल्लेखनीय है कि 15 जनवरी 1974 में शुरू हुई यह मिल वर्ष 2005 में महज 64 करोड़ के घाटे की वजह से बंद कर दी गई. तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
बंद में यूपी का नाम, चालू में कहीं नहीं
केंद्र सरकार की यह आधिकारिक स्वीकारोक्ति है कि देश की 682 बड़ी कपड़ा मिलें बंद पड़ी हैं. 1399 कपड़ा मिलें चल रही हैं. 30 जून 2017 तक की सूचना के मुताबिक देश में 1399 कपड़ा मिलें परिचालित हो रही हैं और 682 कपड़ा मिलें बंद हैं. बंद पड़ी कपड़ा मिलों में सबसे अधिक तमिलनाडु की 232 कपड़ा मिलें शामिल हैं. इसके अलावा महाराष्ट्र में 85, उत्तर प्रदेश में 60, गुजरात में 52 और हरियाणा में 42 कपड़ा मिलें बंद हैं. तमिलनाडु में 752 कपड़ा मिलें अब भी चल रही हैं. मध्य प्रदेश में 135 कपड़ा मिलें, महाराष्ट्र में 135, पंजाब में 97, गुजरात में 55 और राजस्थान में 41 कपड़ा मिलें परिचालित हो रही हैं, लेकिन इनमें उत्तर प्रदेश का नाम कहीं शामिल नहीं है. इन मुद्दों पर राजनीतिक दलों का कभी ध्यान नहीं जाता और यह व्यापक जन-आंदोलन का कारण बने, इस बारे में नेताओं की शातिराना चुप्पी सधी रहती है.