टीवी चैनेलों पर कश्मीर के बारे में कुछ पैनलिस्टों द्वारा की गई हालिया टिप्पणियों से कश्मीर के लोग नाराज़ भी हुए और आनंदित भी. गौरतलब है कि टीवी चैनलों ने अपने प्राइम टाइम का अधिकतर समय कश्मीर पर चर्चा के लिए समर्पित कर रखा है. भले ही वो चर्चा प्रासंगिक हों या न हो. टीवी चैनलों ने अपने आचरण से ये साबित कर दिया है कि कश्मीर के मामले को वे एक एजेंडे के तहत उछाल रहे हैं, ताकि यदि सरकार किसी कार्रवाई पर विचार करे, तो उसे न्यायोचित ठहराया जा सके.
एक आम कश्मीरी शोर से भरपूर प्राइम टाइम स्टूडियो में अपने खिलाफ ज़हर देख कर चकित रह जाता है. जब यहां सामान्य स्थिति लौटती दिखाई दे रही होती है, तब भी प्राइम टाइम वार्तालाप में ये धारणा प्रस्तुत की जाती है कि घाटी जल रही है. हालिया दिनों में इन चैनलों ने शालीनता की सभी सीमाएं पार कर दी हैं. इन्होने कई ऐसे लोगों (जो पत्रकारिता की कौन कहे, सभ्य आचरण के किसी ढांचे में भी फिट नहीं बैठते) को बहस में जगह देकर कश्मीर की बहस पर अपनी साख खो दी है.
काफी समय से कश्मीर इस प्रचारतंत्र (प्रोपेगेंडा) को झेल रहा है. ये प्रोपेगेंडा भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से, विशेष रूप से टीवी चैनलों, द्वारा फैलाया जा रहा है. इस प्रोपेगेंडे को सरकारी अधिकारियों और सत्ताधारी भाजपा के प्रवक्ताओं द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है. दूसरे शब्दों में कहें, तो इस सोच को आधिकारिक स्वीकृति प्राप्त है. दिल्ली में भाजपा सरकार के कुछ मंत्री नियमित रूप से इस कश्मीर विरोधी आवरण का हिस्सा बनते हैं.
इसका उद्देश्य होता है, कश्मीर के लोगों को निचा दिखाना और समस्या के राजनीतिक समाधान के उनके आग्रह को खारिज करना. अशांति फैलाने और मिलिटेंसी को बढ़ावा देकर गड़बड़ी पैदा करने के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराना कहानी का कोई नया अध्याय नहीं है. लेकिन इस प्रोपेगेंडे का जो नया हिस्सा है, वो है कश्मीरियों को बदनाम करना और वर्तमान संकट के लिए उन्हें या पाकिस्तान को दोषी करार देना. मीडिया के इस प्रहार को देख-सुन कर ये आभास होता है जैसे नई दिल्ली ने 1947 के बाद से कुछ गलत किया ही नहीं है.
हाल के दिनों में एक टीवी चैनल पर पैनलिस्ट्स द्वारा की गई दो टिप्पणियों ने लोगों को क्रोधित किया. लेकिन उनमें से एक टिप्पणी का लोगों ने खूब आनंद लिया और सोशल मीडिया पर मजाक भी उड़ाया. जिस टिप्पणी पर तीखी प्रतिक्रिया आई, वो थी आरएसएन सिंह की. आरएसएन सिंह एक सेवानिवृत्त कर्नल हैं, जो कुछ समय के लिए रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारी रहे हैं. अभी वे एक नए-नए लॉन्च हुए टीवी चैनल के सहयोगी के रूप में कार्यरत हैं.
उन्होंने अपनी शर्मनाक टिप्पणी में ये संकेत दिया कि कश्मीरी युवा विदेशी मिलिटेंट्स की ‘नाजायज औलाद’ हैं और यही कारण है कि वे सरकारी अमले से इस तरह लोहा ले रहे हैं. आरएसएन सिंह जब ये असभ्य टिप्पणी कर रहे थे, तो ये स्पष्ट दिख रहा था कि एंकर को उसमें आनंद आ रहा है. इससे पता चलता है कि इस तरह की बहसें जो इन चैनलों की पहचान बन गई हैं, वो अब कितनी गहरी गर्त में चली गई हैं. उस पैनेलिस्ट द्वारा कश्मीरियों को गाली दिए जाने पर किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया और इसी तरह सरकार की प्रतिक्रिया भी आकार लेती है.
ऐसा व्यवहार न केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे ये भी ज़ाहिर होता है कि सरकार ने कश्मीरियों को दबाने के लिए इन चैनलों को खुली छूट दे रखी है. इन चैनलों ने पत्रकारिता के पेशे को अपमानित किया है और ये स्पष्ट किया है कि कैसे सरकार भी इसमें एक पार्टी बन गई है. इन सबों ने बार-बार दुहराए जाने वाले इस सिद्धांत की कलई खोल दी है कि कश्मीरी हमारे अपने हैं और जम्मू-कश्मीर भारत का एक अभिन्न हिस्सा है.
दूसरी टिप्पणी सेना के पूर्व मेजर गौरव आर्य द्वारा की गई थी. उन्होंने मृत बुरहान वानी के नाम एक पत्र लिखा था, जिसकी वजह से टीवी चैनलों ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया. ये ज्ञात नहीं है कि आर्य ने इतनी कम उम्र में सेना को क्यों छोड़ दिया. लेकिन अब वे एक ऐसे विशेषज्ञ बन गए हैं, जिन्हें उनकी सनसनीखेज टिप्पणियों के लिए हाथों हाथ लिया जा रहा है. आर्य ने एक कश्मीरी पैनलिस्ट से पूछा कि कश्मीरियों के गाल लाल क्यों होते हैं? कश्मीर में कुपोषण से कोई मृत्यु क्यों नहीं होती? और जब अशांति के दौरान सब कुछ बंद हो गया था, तो वे कैसे जीवित रहे? एक आम कश्मीरी ने ज़ाहिरी तौर पर इसे हल्के अंदाज़ में लेते हुए इस टिप्पणी का मजाक उड़ाया. लेकिन इसका अंतर्निहित असर काफी मजबूत था और इसमें भी उसी तरह के संकेत थे, जो आरएसएन सिंह के वक्तव्य में थे.
कश्मीर और कश्मीरियों के मामले में आर्य जैसे लोग अनपढ़ की श्रेणी में आते हैं. ये एक ऐसी हकीकत है, जो कश्मीरियों को भी चकित कर देती है कि वे कैसे छह महीने तक चलने वाले बंद के दौरान जीवित रहे. हालांकि यहां की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था काफी मज़बूत है, उसके लचीलेपन ने उन्हें मुश्किल समय में जीवित रहने में मदद किया. कश्मीरियों के लाल गाल से किसी को अचम्भा नहीं होना चाहिए, क्योंकि कश्मीरी अलग जेनेटिक पूल से सम्बंध रखते हैं. इस जेनेटिक पूल का अविभाजित भारत के किसी भी अन्य क्षेत्र से कोई सम्बंध नहीं है. हालांकि सरकार ने यहां की अर्थव्यवस्था को आश्रित अर्थव्यवस्था बनाया है, लेकिन यहां के लोग अपने दम पर संघर्ष करते हैं.
24,000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता के बावजूद कश्मीर सर्दियों के महीनों में अंधेरे से जूझता रहता है. यहां की क्षमता से उत्पादित बिजली को भारत के बाकी हिस्सों में उजाला ़फैलाने के लिए भेज दिया जाता है. यहां बिजली उत्पादन के जो संसाधन हैं वे नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन के अंतर्गत आते हैं. यहां तक कि उत्तरी ग्रिड के माध्यम से कश्मीरियों से बिजली की कीमत भी वसूली जाती है.
किराए के पैनलिस्ट्स द्वारा रोजाना जारी होनी वाली टिप्पणियां लोगों को झुकाने के लिए जारी मनोवैज्ञानिक जंग का हिस्सा हैं. मेजर गोगोई द्वारा एक कश्मीरी युवक को जीप के आगे बांधे जाने को उचित ठहराया जा रहा है. सरकार में शामिल कुछ लोगों ने तो इसे कश्मीरियों को सबक सिखाने के एक उपाय के रूप में बता दिया. वरिष्ठतम मंत्रियों में से एक, अरुण जेटली ने आधिकारिक रूप से घोषणा किए बिना कश्मीर में युद्ध जैसी स्थिति की बात कही और एक अन्य मंत्री एक टीवी शो पर दो कश्मीरी लोगों के साथ दुर्व्यवहार कर भौंडे पैनेलिस्ट्स की सूची में शामिल हो गए. बाबुल सुप्रियो मोदी सरकार के एक मंत्री हैं. उन्होंने एक तरह से कश्मीर समस्या से निपटने की सरकार की नीति का खुलासा कर दिया.
जब एक कश्मीरी पैनेलिस्ट ने मानव शील्ड से सम्बंधित उनके जवाब पर मुस्कुरा कर अपनी प्रतिक्रिया दी, तो बाबुल ने गरज कर कहा था कि ‘वे जिस तरह से मुस्कुरा रहे हैं, वो मुझे पसंद नहीं है. मैं उनकी गर्दन पड़कर उनसे कहलवाना चाहता हूं कि वे पहले भारतीय हैं… ये कहना कि हम शुरू से आखिरी तक कश्मीरी हैं, मैं समझता हूं कि ये हर उस कश्मीरी के लिए है जो टीवी पर बेशर्मी से मुस्कुराता है, एक मेजर गोगोई है, जो उन्हें जीप के आगे बांधेगा.’ ये विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक मंत्री का व्यवहार है.
यदि इस तरह की भाषा इस्तेमाल की जाएगी, तो कश्मीर की राजनीतिक समस्या के समाधान के लिए किसी राजनीतिक पहल और मेल मिलाप की उम्मीद कैसे की सकती है? इस तरह की चीज़ों की अनुमति देकर दिल्ली सरकार ने स्वयं को बेनकाब कर दिया है. जिस तरह से इन्होंने अपमानजनक प्रचार अभियान चलाने की अनुमति दी है, ये अब नैतिक आधार पर किसी भी जीत का दावा नहीं कर सकते. कश्मीर पर इनकी नीति स्पष्ट होती जा रही है, जो पिछली सरकारों के विपरीत है. शायद उनका भी यही दृष्टिकोण रहा हो, लेकिन कम से कम उन्होंने इसे पर्दे में रखा था.
–लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.