santoshbhartiya-sirसंसद का मानूसन सत्र कई जानकारियां दे गया. सत्तारूढ़ दल यानी भारतीय जनता पार्टी के भीतर एक गहरा सन्नाटा छाया है. इतना गहरा सन्नाटा कि राजनीति के जानकारों को अब बेचैनी होने लगी है. संसद के सत्र में जितने भाजपा सांसदों से बातचीत हुई, वे सभी ख़ामोश दिखे. जिन मंत्रियों से मुलाकात हुई, वे भी ख़ामोश दिखे. इस ख़ामोशी की वजह जानने के लिए जब भारतीय जनता पार्टी के गैर संसदीय नेताओं से बातचीत हुई, तो वे भी ख़ामोश और एक अजीब विद्रूप भरी मुस्कराहट फेंकते दिखे.

इसका मतलब भारतीय जनता पार्टी के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. पिछले दिनों संसदीय दल की मीटिंग में सांसद ख़ामोश बैठे रहे. सिर्फ दो-तीन लोगों ने अपनी बात रखी और फिर मीटिंग समाप्त हो गई. आमतौर पर संसदीय दल की बैठक में सरकार किए हुए कामों के बारे में, नई योजनाओं के बारे में सांसदों से बातचीत करती है और सांसदों को अपनी राय देती है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल की मीटिंग इन सारी परंपराओं से अलग होती दिख रही है. अब तो लोग ये सवाल कर रहे हैं कि जो भारतीय जनता पार्टी, कभी पार्टी विद डिफरेंस की बात करती थी, उसी पार्टी में आज आंतरिक लोकतंत्र पर सवालिया निशान लग चुका है.

मंत्री प्रधानमंत्री से बात नहीं कर पाते हैं. इतना ही नहीं, मंत्री अपने सचिवों से भी बात नहीं कर पाते, क्योंकि सचिव अगर कुछ इशारा कर दे तो मंत्री न उसे आदेश देने की स्थिति में हैं और न उसे सलाह देने की स्थिति में. लगभग पूरा मंत्रिमंडल इसी मनोवैज्ञानिक आशंका का शिकार है. पुख्ता सूत्रों के अनुसार, सिर्फ अरुण जेटली, नितिन गडकरी और तोमर ये तीन ऐसे मंत्री हैं जो अपने मन से काम कर रहे हैं और आदेश भी दे रहे हैं. बाकी सारे मंत्री नियमित कार्यों के अलावा कोई नया काम कर रहे हों, इसकी जानकारी कम से कम भारतीय जनता पार्टी के सांसदों और मंत्रियों को नहीं है.

सांसद परेशान हैं कि वे अपने क्षेत्र में जाकर कहें तो क्या कहें? जबकि पार्टी और स्वयं प्रधानमंत्री उनसे कह रहे हैं कि क्षेत्र में जाइए, साइकिल चलाइए और लोगों को सरकार द्वारा किए हुए कार्यों के बारे में बताइए. सरकार के तीस से चालीस किए हुए कामों की सूची प्रचारित हो रही है, पर जब सांसद अपने क्षेत्र में जाते हैं, तो उन्हें उनमें से किसी भी काम का चिन्ह नहीं मिलता है. वे जनता का सामना करने में हिचकते हैं. वे क्षेत्र में जाते भी हैं तो सिर्फ अपने समर्थकों के बीच रहते हैं. वे अपने क्षेत्र की जनता के बीच में नहीं जाते. इसलिए नहीं कि वे रहना नहीं चाहते, बल्कि इसलिए कि वे वहां जाएं तो जनता से कहें क्या? वहीं, जनता की अपेक्षाएं अपने सांसदों और नरेंद्र मोदी से बनी हुई हैं. जनता उनसे सवालों का हल चाहती है, चाहे वे व्यक्तिगत सवाल हों या क्षेत्र के सवाल हों. सांसद इस स्थिति में नहीं हैं कि वे उन सवालों का जवाब अपने क्षेत्र की जनता को दे सकें इसलिए वे जनता के बीच जाने से हिचकते हैं.

दो वर्षों में प्रधानमंत्री ने बहुत सारी घोषणाएं कीं और उन घोषणाओं के अमल पर जोर भी दिया. उसमें एक महत्वपूर्ण घोषणा आदर्श ग्राम की थी. किसी को नहीं पता कि किस संसद सदस्य ने आदर्श ग्राम गोद लिए हैं? क्या भारतीय जनता पार्टी के सभी सांसदों ने आदर्श ग्राम ले लिए हैं या नहीं लिए हैं? और अगर लिए भी हैं तो वहां काम क्या किया है? जब लोग मंत्रियों द्वारा गोद लिए आदर्श ग्राम में जाते हैं, तो उन्हें वहां बहुत अच्छी हालत नहीं मिलती. स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए गांव में सब कुछ ठीक नहीं है. अगर सांसद दो साल के भीतर एक गांव का विकास नमूने के रूप में नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर इस देश का विकास ये सरकार कैसे कर पाएगी, ये लोगों की समझ में नहीं आता है.

अब बनारस की बात ही लीजिए. हाल में बनारस को क्योदो बनाने की काफी चर्चा हुई. बनारस को क्योदो में बदलने के लिए एक भारी-भरकम टीम जापान भेजी गई. टीम वहां दस से पंद्रह दिन रुकी, अध्ययन किया और वापस लौटकर आ गई. शायद छह से आठ महीने के भीतर उन सारे लोगों के तबादले दूसरी जगह भी हो गए, लेकिन बनारस वहीं का वहीं है. बनारस में अब उनमें से कोई नहीं बचा है, जो बनारस को क्योदो में बदलने की कोशिश कर सके. क्या प्रधानमंत्री और उनके सड़क निर्माण मंत्री नितिन गडकरी को ये पता है कि बनारस का रिंग रोड, जिसपर बहुत हद तक बनारस का विकास निर्भर करता है, आठ महीने से बंद पड़ा है. प्रधानमंत्री का अपने क्षेत्र की समस्याओं पर ज़रूर ध्यान होगा, लेकिन उन समस्याओं को दूर करने के लिए काम अभी तक शुरू नहीं हुए हैं, यह भी सत्य है. इसलिए बनारस में भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों को अब भी विकास की उम्मीद है, लेकिन आम बनारस के लोगों में निराशा शुरू हो चुकी है. स्वच्छ भारत अभियान वहीं का वहीं खड़ा है. जिन संस्थाओं पर स्वच्छ भारत अभियान को पूरा करने की ज़िम्मेदारी है, वे काम की बजाय प्रचार में ज्यादा व्यस्त हैं. सफाई कैसे हो और कूड़े का निस्तारण कैसे हो, इसके बारे में उन्हें कोई चिन्ता नहीं है. गंगा मुक्ति अभियान और सफाई को लेकर भी भाजपा के सांसद बहुत चिंतित हैं. उन्हें लगता है कि गंगा मंत्री उमा भारती का 2018 में गंगा साफ करने की घोषणा वाला बयान उन्हें अगले चुनाव में काफी सवालों के घेरे में डाल देगा. कृषि मंत्री राधामोहन सिंह का कहना है कि वे अगले तीन साल का काम दो साल में पूरा कर चुके हैं. उनके पास आंकड़े भी हैं. वे बताते हैं कि इसका असर दो-तीन साल में दिखेगा, लेकिन तमाम सरकारी दावों के बावजूद किसान आत्महत्या कर रहे हैं. वहीं मोदी सरकार, राज्य सरकारों से बात कर ज़िलाधिकारियों को आत्महत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश करती नहीं दिख रही है.

ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी व उनके सांसदों के बीच फैली ये ख़ामोशी, पार्टी में एक साल के भीतर आने वाले तूफान के संकेतों में बदल सकता है. भारतीय जनता पार्टी का हर सांसद कांग्रेस से अलग प्रशासन चलता हुआ देखना चाहता है. भारतीय जनता पार्टी का हर सांसद कांग्रेस के राज्य से अलग अपने क्षेत्र का विकास करना चाहता है, पर उसके हाथ में कुछ भी नहीं है. वह सिर्फ प्रधानमंत्री की तस्वीर को ख़ामोशी से टुकुर-टुकुर देख रहा है. क्या प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष इस ख़ामोशी के भीतर छुपी चीख़ को सुन पाएंगे?

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