kamal-sirकश्मीर की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इस संबंध में विभिन्न मोर्चों पर क़दम उठाने की ज़रूरत है. सबसे पहले तो ये कि वहां ज़मीनी स्तर पर जो हो रहा है, वह किसी तरह स्वीकार्य नहीं है. पहले उन्होंने पठानकोट की घटना अंजाम दी, फिर उड़ी में हमला किया. हमारे सैन्य शिविरों पर पाकिस्तान के हमलों से हमारी कमजोर रक्षा तैयारियों का पता चलता है. यह कहना मुश्किल है कि हमारा मनोबल नीचा है या असल समस्या पर नेतृत्व से चूक हो रही है. लेकिन जो बात स्पष्ट है, वह यह कि मनोहर पर्रिकर एक बहुत अकुशल रक्षा मंत्री साबित हुए हैं. यदि अपनी पार्टी को किरकिरी से बचाना चाहते हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी को इस मंत्रालय को खुद अपने हाथों में ले लेना चाहिए. हालांकि यह भी बेहतर होगा कि किसी ऐसे मज़बूत व्यक्ति को यह मंत्रालय सौंपा जाए, जो भारत और उसकी राजनीति की बेहतर समझ रखता हो. मनोहर पर्रिकर गोवा के लिए बेहतर हैं, जो भारत का एक छोटा सा हिस्सा है. उन्हें फिर से गोवा का मुख्यमंत्री बना देना एक बेहतर फैसला होगा. गोवा में चुनाव होने वाले हैं और यह उनकी पार्टी के लिए एक बुद्धिमत्तापूर्ण कदम होगा. लेकिन मैं यहां बीजेपी की संभावनाओं पर बात नहीं कर रहा हूं. रक्षा मंत्रालय को निश्‍चित रूप से एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत है. या तो यह मंत्रालय एक मजबूत वैकल्पिक नेता को दिया जाए या स्वयं प्रधानमंत्री इसे संभालें. सुरक्षा बलों के तीनों प्रमुख अपनी अच्छी तैयारी और उच्च मनोबल के लिए जाने जाते हैं. जाहिर है, पिछले दो वर्षों में कुछ न कुछ गलत ज़रूर हुआ तभी तो हम उन्हें इस हालत में पा रहे हैं. जितनी जल्दी इस प्रवृत्ति को ठीक किया जाए, उतना ही बेहतर होगा.

अगला सवाल कश्मीर की वास्तविक समस्या का है. समस्या दो सतहों पर है, जिनमें से एक है कश्मीर में पाकिस्तान का हस्तक्षेप. नियंत्रण रेखा की अच्छी तरह से निगरानी की जाए तो इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है. नियंत्रण रेखा के अपने क्षेत्र में वे क्या करते हैं, यह उनका मुद्दा है. नियंत्रण रेखा के हमारे क्षेत्र में युवाओं में काफी गुस्सा है. केंद्र सरकार ने लगातार उन्हें नहीं समझने की गलती की है. हर कोई अपने साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की इच्छा रखता है. उमर अब्दुल्ला जब मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने एक बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि कश्मीर का भारत में विलय (मर्जर) नहीं हुआ था, बल्कि भारत के साथ उसका केवल एक्सेशन हुआ था. इस बयान के बाद पूरा सत्ता केंद्र उनके ऊपर ऐसे हमलावर हुआ, जैसे उन्होंने कोई अपराध किया हो. यहां तक कि इसके बाद उन्होंने खुद अपने बयान की गंभीरता को कम करने की कोशिश की. हालांकि उन्होंने जो भी कहा, वह सच था और यही तथ्यात्मक स्थिति भी है. दूसरी देशी रियासतें भारत में पहले सम्मिलित (एक्सीड) हुई थीं, बाद में उनका विलय (मर्जर) हुआ था, जबकि जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ, लेकिन उसका विलय कभी नहीं हुआ. यह कुछ शर्तों के साथ भारत में शामिल हुआ था. ये शर्तें संविधान के आर्टिकल 370 में दर्ज हैं. आरएसएस और भाजपा समेत उसके सहयोगी इस विडंबना को नहीं समझ पा रहे हैं कि 370 की समाप्ति की मांग कर वे कश्मीर पर अपने कानूनी दावे को छोड़ना चाहते हैं. दरअसल पाक अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान बिना किसी कानूनी अधिकार के कब्ज़ा किए हुए है. यदि आप आर्टिकल 370 समाप्त कर देंगे तो आपकी स्थिति भी पाकिस्तान जैसी हो जाएगी. दूसरी तरफ यदि आर्टिकल 370 को सख्ती से लागू किया जाता है तो आपके क्षेत्र वाले कश्मीर पर आपका दावा स्थापित  होगा, साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर पर भी आपका दावा मज़बूत हो जाएगा. लिहाज़ा यह वक़्त की ज़रूरत है कि कश्मीर के लोगों को आश्‍वस्त किया जाए कि 370 उस वक्त तक लागू रहेगा, जब तक कश्मीर की जनता चाहेगी.

दरअसल कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जितेन्द्र सिंह पीएमओ में राज्य मंत्री पद के लिए उचित नहीं हैं. चूंकि वे भाजपा से जुड़े हैं इसलिए उन्हें कोई और मंत्रालय दे देना चाहिए और कश्मीर मामले पर उन्हें अपनी जुबान बंद रखनी चाहिए. वो कोई अच्छा काम नहीं कर सकते. कश्मीर में हमारी स्थिति कानूनी, नैतिक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर हो जाएगी. दरअसल हम उन लोगों की बातों को साबित करेंगे, जो कहते हैं कि हमने सैन्य बल से कश्मीर को अपने पास रखा हुआ है. इस धारणा को दूर करने के लिए और कश्मीर में आपकी मौजूदगी कानूनी, नैतिक और राजनीतिक रूप से करने के लिए यह साबित करना होगा कि केंद्र सरकार और महबूबा सरकार 370 को लेकर प्रतिबद्ध हैं.

जब 1975 में शेख अब्दुल्ला दोबारा मुख्यमंत्री बने थे, तब एक समझौता हुआ था, जिसमें यह कहा गया था कि 1953 (जब शेख साहब गिरफ्तार हुए थे) और 1975 के बीच जो भी कानून कश्मीर में लागू किये गए, उनकी समीक्षा की जाएगी. लेकिन यह कभी नहीं हो सकी. यह समीक्षा अब भी हो सकती है. जम्मू और कश्मीर असेंबली 1953 और 1975 के बीच राज्य में लागू सभी कानूनों की समीक्षा कर सकती है और जो कानून वे नहीं चाहते, उन्हें केंद्र सरकार जम्मू और कश्मीर से हटा सकती है. राज्य का अपना चुनाव आयोग हो सकता है. आर्टिकल 370 के तहत एक तर्कसंगत स्वायत्तता देने में कोई बुराई नहीं है. आर्टिकल 370 के तहत राज्य की रक्षा, विदेश नीति और संचार की ज़िम्मेदारी केंद्र की है, इसका मतलब है कि कश्मीर भारत का अंग रहेगा. स्थानीय रूप से वहां के लोग और अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं. तो इसमें आपत्ति क्या है? दूसरी तरफ इस आरोप में सच्चाई ज़रूर है कि आज कश्मीर में किसी दूसरे राज्य से कम स्वायत्तता है. यहां के मामलों में सेना की बड़ी भूमिका है जो देश के किसी दूसरे हिस्से में नहीं है. लिहाज़ा सरकार कश्मीर को ताक़त के बल पर अपने साथ रखने की धारणा को समाप्त करने के लिए क़दम उठाती है तो यह भारत के लिए अच्छा होगा.

तीसरा हिस्सा पाकिस्तान का है. उनके प्रधानमंत्री ने संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में कहा कि वे शांति चाहते हैं, लेकिन अपनी सेना के दबाव में उन्होंने यह भी कहा कि दक्षिण एशिया में तब तक शांति नहीं आ सकती, जब तक कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो जाता. यह क्या बकवास है! कश्मीर इतना बड़ा मुद्दा नहीं है कि जिसकी वजह से दक्षिण एशिया में शांति नहीं स्थापित हो सकती. दरअसल यह उनकी गलत अवधारणा है. भारत की सेना ठान ले, तो बल का प्रयोग कर पाक अधिकृत कश्मीर हासिल किया जा सकता है. लेकिन दोनों तरफ के परमाणु हथियारों को देखते हुए यह एक बेहतर समाधान नहीं होगा. लेकिन पाकिस्तान की परमाणु क्षमता को हकीकत से अधिक प्रचारित किया गया है. ऐसा कहकर मैं जंग का सुझाव नहीं दे रहा हूं या किसी परमाणु युद्ध की बात नहीं कर रहा हूं. हर्गिज नहीं! लेकिन हमारी अच्छाइयों, न्यायप्रियता और बातचीत जारी रखने की इच्छा को हमारी कमजोरी नहीं समझी जानी चाहिए. पाकिस्तान अपने चेहरे पर कई चेहरे पहनता है. कठोर रुख अपनाना होता है तो सेना बात करती है, दोस्ताना माहौल बनाना हो तो लोकतांत्रिक दल बात करते हैं. आतंकवाद फैलाना होता है तो कुछ मौलाना या हाफिज सईद जैसे कुछ आतंकवादी बात करते हैं. हमें एक ऐसी रणनीति बनानी होगी, ताकि इन सभी चेहरों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जा सके. पाकिस्तान के साथ हमें अपने राजनयिक संबंध बरक़रार रखने चाहिए. लेकिन हमारे आपसी वार्ता के प्रस्ताव को वे यह समझने की भूल करते हैं कि हम डर गए हैं. प्रधानमंत्री को सेना के कमांडरों के साथ बैठक करनी चाहिए. हमारी सेना एवं सशस्त्र बल इस धारणा को दूर कर सकते हैं. आखिरकार, भारत और पाकिस्तान की सेनाओं का एक दूसरे के प्रति अच्छे भाव हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति एक ही है. स्वतंत्रता के बाद वे अलग हुए थे. वे एक दूसरे की क्षमताओं, एक दूसरे की मानसिक शक्तियों और कमजोरियों को भली-भांति समझते हैं. लेकिन मुझे वर्तमान स्थिति ठीक नहीं लग रही है. सरकार ऐसे बात कर रही है, जैसे सीमा समस्या, पठानकोट, उड़ी की घटनाएं सेना के मामले हैं. यदि सेना मनोहर पर्रिकर जैसे व्यक्ति के नेतृत्व में है, तो देश को भगवान ही बचाए!

दूसरी ओर कश्मीर में छात्र न केवल सत्तारूढ़ पार्टी, बल्कि विपक्ष से भी बातचीत करने को तैयार नहीं हैं. यह बहुत दुख की बात है. सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल अपना सा मुंह लेकर रह गया. कोई न कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए. सरकार को नागरिक समाज का प्रतिनिधिमंडल भेजना चाहिए, जिसमें कुलदीप नैय्यर, राम जेठमलानी जैसे लोग शामिल हों और जिनसे ये बच्चे बात करें. जब तक कश्मीर समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, समस्या का हल नहीं निकल सकता. बहरहाल जिस तरह आरएसएस और भाजपा इस समस्या को देखते हैं, समस्या इसमें भी है. वे अपनी जुबान से तो नहीं कहते, लेकिन वे चाहते हैं कि कश्मीर को हड़प लिए जाए, जो उपनिवेशवाद है. आधुनिक भारत में यह नहीं होता. मैं नागरिक समाज के ऐसे लोगों से मिला हूं, जो उनके विचार के हैं, वे लोगों को मारने में विश्‍वास करते हैं.

क्या हम ज़मीन चाहते हैं? क्या हमें कश्मीर में और अधिक भूमि की जरूरत है? हमारे देश में पर्याप्त जमीन है. हम एक नैतिक रुख अपनाना चाहते हैं. भारत दुनिया में एक उभरती हुई शक्ति है, जबकि पाकिस्तान नहीं है. इस अंतर को समझना पड़ेगा. दुनिया भारत की ओर साझेदारी व आर्थिक सहयोग के लिए देख रही है. लिहाज़ा हमें अपनी ताक़त और ज़िम्मेदारी दिखाते हुए नपी-तुली प्रतिक्रिया देनी होगी, न कि रक्षा मंत्री की तरह गैरजिम्मेदराना बयान देकर, जो वे हर दूसरे दिन देते रहते हैं. आज उन्होंने एक बहुत बड़ा बयान दिया कि ज़ाहिर है उड़ी में कुछ न कुछ गलती हुई है. यह किस तरह का बयान है? एक स्कूली बच्चा भी इस पर हंसेगा. हमारी शुभकामनाएं प्रधानमंत्री के साथ हैं, वे मामले को अपने हाथ में लें.

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