Santosh Bhartiyaप्रधानमंत्री जी से कैसे निवेदन किया जाए ताकि उन्हें यह समझ में आए कि वह 125 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं. मैं अभी यह सवाल नहीं उठाना चाहता, क्योंकि यह सवाल अपने आप में इतना बड़ा है कि उन्हें शायद खुद सीख देगा कि वह जितनी योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं. उन योजनाओं का प्रतिफल क्या निकल रहा है. बिना पूर्ण सोच के, बिना उसके लॉजिकल अनालिसिस के 50 से ज्यादा योजनाएं पिछले दो सालों में शुरू की गईं. उनका प्रतिफल क्या निकला है? यह जानकारी सरकार के सामने अगर सरकारी अधिकारी नहीं रख रहे हैं या प्रधानमंत्री के सामने उनके सचिव नहीं रख रहे हैं, तो फिर इसमें किसका दोष है? ज़मीन पर कहीं पर भी इन योजनाओं का परिणाम निकलता नहीं नज़र आ रहा है. शायद सरकार पांच साल के बाद विश्‍लेषण करेगी और देश के सामने रखेगी. अभी तो सरकार पूरे तौर पर टेलीविजन, रेडियो और अखबारों के माध्यम से यह समझाने में लगी है कि पिछले दो सालों जितनी नई योजनाएं लागू की गई हैं उससे हमारे देश में बदलाव आना शुरू हो गया है और हम अच्छे दिनों की तरफ छलांग लगाने वाले हैं. प्रचार से चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन प्रचार से लोगों की थाली में रोटी, हाथों को काम, नौजवानों का भविष्य नहीं संवारा जा सकता. यह बातें शायद न प्रधानमंत्री जी को अच्छी लगेंगी और न मंत्रिमंडल के सदस्यों को. पर क्या करें सच्चाई यही है और यह सच्चाई जब विकराल रूप में सामने आएगी तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी.

इसीलिए हमारा आग्रह है कि प्रधानमंत्री जी को अपनी योजनाओं का विश्‍लेषण समय-समय पर करते रहना चाहिए, अन्यथा भाजपा सांसदों को दी गई उनकी यह सलाह बेमानी हो जाएगी कि वे महीने के 14 दिन अपने चुनाव क्षेत्र में रहें और चार या पांच रातें गांवों में गुजारें. प्रधानमंत्री जी को पता नहीं यह मालूम है या नहीं मालूम है कि उन्हीं के सांसद उनकी इन योजनाओं की सफलता नहीं देख पा रहे हैं. वे गांव के लोगों को क्या बताएंगे, गांव के लोग तो उनसे सवाल पूछेंगे और वह सवाल सांसदों के लिए बहुत असहज करने वाले होंगे. क्या प्रधानमंत्री जी ने अपने सांसदों से यह पूछा कि उन्होंने जो गांव गोद लिए हैं उन गांवों में उन्होंने अब तक क्या काम किया है.

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सात लाख-आठ लाख लोगों की आबादी वाले चुनाव क्षेत्र में एक हजार लोगों की आबादी वाला एक गांव और उस गांव में भी सांसद की सीधी देखरेख में सरकारी योजनाओं का कितना क्रियान्वयन हुआ और सांसद ने अपनी सांसद निधि से जो पैसा लगाया उसका क्या प्रतिफल निकला. दो साल  बाद यह सवाल प्रधानमंत्री को सांसदों से पूछना ही चाहिए और प्रधानमंत्री जी को स्वयं के द्वारा सांसद होने के नाते गोद लिए गांव की भी सुध लेनी चाहिए. अब प्रधानमंत्री के प्रति किस तरह का अविश्‍वास उनके द्वारा गोद लिए गांव वालों ने दिखाया कि उन्हें गांव में हुए चुनाव में हरवा दिया. इसका भी कुछ आकलन प्रधानमंत्री जी को करना चाहिए. बनारस के लोग जहां से वह सांसद हैं बहुत विश्‍वास से भरे हुए थे, लेकिन आज वह विश्‍वास तार-तार हो गया है.

प्रधानमंत्री जी से अगर यह कहा जाए कि योजनाओं का क्रियान्वयन, योजनाओं की घोषणा और योजनाओं का अपने ही अन्तर्विरोधों के जाल में उलझकर उद्देश्य से भटक जाना, आपकी चिंता का विषय होना ही चाहिए, पर सबसे ज्यादा चिंता का विषय आपके राजनीतिक फैसलों का होना चाहिए. आपकी पार्टी ने पिछले दो सालों में जितने राजनीतिक फैसले लिए, उन राजनीतिक फैसलों ने भविष्य में आपके सामने बहुत सी चुनौतियों के बीज बो दिए हैं. सबसे पहले बिहार चुनाव, जहां प्रधानमंत्री ने कहा कि नीतीश कुमार को चुनो या मुझे चुनो. मुझे चुनो का मतलब मेरी पार्टी को चुनोगे तो बिहार में विकास होगा और नीतीश कुमार को अगर बिहार के लोग चुनेंगे तो वहां जंगलराज होगा. इतनी बड़ी बात प्रधानमंत्री ने बिहार के लोगों से कही और लगभग हर जिले में जाकर उन्होंने मीटिंग की. उन्होंने पूरे चुनाव में बिहार में मीटिंग की, इसके बावजूद लोगों ने उन्हें नकार दिया.

क्या इसके बारे में प्रधानमंत्री ने सोचा कि उनसे या उनकी पार्टी से कहां बड़ी राजनीतिक भूल हुई कि लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया. अरुणाचल में जिस तरह का फैसला प्रधानमंत्री की पार्टी ने किया, उससे सारे देश में उनकी राजनीतिक साख के ऊपर सवाल खड़े हुए और अब उत्तराखंड, जहां पर उनकी पार्टी की वजह से, उन्हीं की पार्टी की देश में भयानक किरकिरी हुई है. कहां नहीं हारे आप! ऐसे लोगों के हाथ में आपने फैसले लेने की ताकत दे दी जो राजनीतिक तौर पर बहुत बौने हैं. प्रधानमंत्री जी, यह जो राजनीतिक साख खत्म होती है, यह बहुत बड़ा खतरा पैदा करती है. इसीलिए आपकी पार्टी जब राम मंदिर बनाने की बात करती है, आपकी पार्टी जब ऐसे लोगों को संसद में नामित करती है जो कांग्रेस का रोल स्वयं निभाने लगते हैं, तो यह मानिए कि अच्छा नहीं हो रहा है.

चुनाव के दौरान कांग्रेस से निराश लोगों ने आपको इसलिए इतना वोट दिया था, क्योंकि उन्हें बहुत बड़े करिश्मे की आशा नहीं थी, लेकिन उन्हें सिस्टम को सही ढंग से चलाने की क्षमता पैदा करने वाले व्यक्ति की तलाश थी, और जितनी योजनाएं हैं, अगर वही योजनाएं ठीक ढंग से चलने लगें तो भी इस देश में लोगों को राहत मिल सकती है. गांव में लोग क्या चाहते हैं? बिजली चाहते हैं और सड़क  चाहते हैं. प्रधानमंत्री जी, आपने जब सबको बिजली देने की घोषणा की थी और सोलर पावर की बात कही थी, तब लगा था कि आपने विकास की शुरुआत का पहला कदम तलाश लिया है. पर दो साल बीत गए, इस देश के गांव में बिजली वही आठ घंटे और दस घंटे आ रही है. फर्क नहीं है और चूंकि बिजली नहीं है इसलिए विकास के सारे काम ठप्प हैं.

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आपके बिजली मंत्री या आपका ऊर्जा उत्पादन मंत्रालय आंकड़े ही नहीं दे पा रहा है कि उसने दो साल में कितनी प्रगति की. प्रचार में जो हो रहा हो, पर किसी भी गांव में आप चले जाएं वहां पर बिजली नहीं आती. पीने का पानी, सूखा इनसे लड़ने का कोई मनोबल लोगों में तो कम से कम दिखाई नहीं देता. मेरा यह निश्‍चित तौर पर मानना है कि आप लोगों को पानी, बिजली और सड़क दे दीजिए, बाकी काम लोग अपने आप कर लेंगे. और फिर प्रधानमंत्री का काम देश की राज्य सरकारों को, चाहे वह उनके प्रदेश की सरकार हो, उनकी पार्टी की सरकारें हों या दूसरी पार्टी की सरकारें हों, प्रेरित करना होता है. प्रधानमंत्री सिर्फ एक पार्टी का प्रधानमंत्री नहीं होता.

इसलिए नरेंद्र मोदी जी से इतना ही आग्रह है कि आज भी अगर आप नहीं चेतेंगे और यह मानेंगे कि हमारे जैसे लोग पागल प्रलाप कर रहे हैं, तो आप अगला एक साल और चैन से गुजार लेंगे, लेकिन उसके बाद का वक्त आपके लिए शायद बहुत बेचैनी का वक्त होगा, क्योंकि तब आपके सामने इस देश का किसान होगा, इस देश का नौजवान होगा, इस देश का मजदूर होगा और वह सारे वंचित लोग होंगे जो आज आपकी आर्थिक नीतियों के दायरे में नहीं हैं. कृपया हम लोगों का यह प्रलाप सुनने की कोशिश कीजिए. बहुत सारे लोगों के कान बह रहे हैं, पर कम से कम आप तो अपने कानों को जनता की तकलीफों को सुनने के लिए बंद मत कीजिए.

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