उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने कई सारी मुश्किलें हैं, जिसमें एक बड़ी मुश्किल नोटबंदी है. नोटबंदी ने सरकार की तैयारियों का मजाक उड़ा कर रख दिया है. देश में नोटों की साइज को लेकर भी सवाल खड़ा हुआ कि यह कैसी तैयारी थी कि सारी की सारी मशीनें दो महीने तक लोगों को परेशानी में डाले रहीं.
देश में एक लाख 30 हजार बैंकों की शाखाएं हैं और दो लाख 60 हजार एटीएम मशीनें हैं. ये एटीएम मशीनें दो महीने तक बिल्कुल काम नहीं कर पाईं क्योंकि नोटों की साइज को बहुत बेअक्ली के साथ बदला गया. इसके बाद, पैसे देने के लिए तीन लाख 90 हजार शाखाओं और एटीएम की जगह सिर्फ एक लाख 30 हजार शाखाएं और एटीएम ही काम कर रहे थे.
यही कारण था जिसकी वजह से जनता त्राहि-त्राहि कर उठी. लोगों को दूसरी परेशानी इससे हुई कि आपने पैसे निकालने की लिमिट बना दी. तीसरी गलती सरकार से ये हुई कि उसने रुपये बदलने के लिए दो महीने का समय दे दिया. इससे कालाधन खत्म नहीं हुआ. कालाधन खत्म होता, अगर सरकार यह कह देती कि एक हफ्ते के भीतर जिसको जितना पैसा बदलना है, बदल ले.
उन्होंने इसकी जगह दो महीने का टाइम दे दिया और एक आदमी को दो लाख रुपये तक बदलने की छूट दे दी. देश में कुछ ही समय पहले आपने 40 करोड़ जनधन एकाउंट खुलवा दिए. इन सारे अकाउंट्स में दो लाख की अनुमति के हिसाब से पैसे पड़े और यही हुआ कि सबसे पहले कालाधन इन एकाउंट्स में जमा हुआ. नकली नोट इन अकाउंट्स में जमा हुए और सरकार का कालेधन के खिलाफ अभियान का अभिप्राय यहीं पर समाप्त हो गया.
हमारे देश की व्यवस्था ये है कि अगर कोई विधायक या सांसद अपने क्षेत्र में पैसे बदलवाना चाहे, तो उसके लिए पंचायतों के सदस्य या ग्राम प्रधान सबसे अच्छा रास्ता हैं. उन्हें कितने भी पैसे दीजिए, वो अपने नीचे के लोगों के जनधन एकाउंट में उन पैसों को एडजस्ट कर उन पैसों को वापस भी निकाल सकते हैं. कह सकते हैं कि देश में पहली बार सामूहिक समाजवाद जैसा आया. जिनके पास कालाधन था, उन लोगों ने 25 प्रतिशत देकर 75 प्रतिशत पैसा वापस पा लिया. उनके पुराने नोट बदल गये, उनका कालाधन बदल गया और तथाकथित आतंकवाद के लिए इस्तेमाल होने वाला पैसा भी बदल गया. कह सकते हैं कि पहली बार ऊपर का पैसा नीचे तक बंटा.
जिसके पास सौ करोड़ थे, उसने 25 करोड़ नीचे वालों को दे दिए और 75 करोड़ अपने वापस ले लिए. अब इस चीज में सरकार को कुछ नहीं मिला. हुआ ये कि जितना सरकार ने पैसा कानूनी तौर पर छापा था और बाजार में फेंका था, उससे ज्यादा बैंकों के पास वापस आ गया. चूंकि कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए बैंक उस पैसे को लेते चले गए. अगर सरकार ने थोड़ा दिमाग लगाया होता, तो इस स्कीम को थोड़े दिनों के लिए लागू करते, नोटों का साइज नहीं बदलते, सारे एटीएम चालू रखते, अगर संभव होता तो वे देश में लॉकरों पर नजर डालते. देश के बड़े लोगों का सारा कालाधन बैंक लॉकर्स में है.
देश में कुल 26 लाख लॉकर्स हैं. सवा सौ करोड़ लोगों को लाइन में लगाने की जगह इन 26 लाख लॉकरों पर अगर मोदी सरकार ध्यान देती तो शायद सही रूप में कालाधन वापस आ सकता था. सरकार ये फैसला करती कि बैंक मैनेजर, जिसका लॉकर है वो, समाज का एक प्रबुद्ध व्यक्ति, पुलिस का आदमी इन सब की उपस्थिति में लॉकर खोला जाएगा. तब वो लॉकर खुलता, पंचनामा बनता, लोग लॉकरों से अपना सामान निकाल ले जाते. इससे सरकार को पता चल जाता कि किस लॉकर से क्या निकला है?
इसका परिणाम ये होता कि लोग बहुत सारे लॉकर तो खोलने ही नहीं आते, जिन्होंने बेनामी लॉकर ले रखे हैं, क्योंकि इसमें उनके रुपये, कागज, हीरे व जवाहरात रखे हैं. इससे सरकार को सचमुच कालाधन मिल सकता था. सरकार की नीयत पर तो सवाल नहीं उठाते, लेकिन ये निश्चित रूप से कह सकते हैं कि सरकार की योजना सही नहीं थी. इस योजना के कारण देश अभी तक उबर नहीं पाया है.
एक तरीके से छह महीने तक की संपूर्ण विकास दर उलझ गयी है और कह सकते हैं कि तीन महीने की तो जीडीपी बिगड़ गई. पुराने नोट जितने चलन में थे, उससे ज्यादा आ गए और नये नोटों को छापने का जो खर्चा पड़ा, वो अलग. सरकार को बिना टेंडर के नोट छपवाने पड़े और उन्हीं लोगों से नोट छपवाने पड़े जिन पर कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नकली नोटों को छापने का इल्जाम लगा था.
दूसरी एक बात समझ में नहीं आती है. मोदी जी के चुनाव जीतने के बाद तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अचानक गिर गये, जिससे सरकार को आठ लाख करोड़ रुपए का राजस्व प्रतिवर्ष अलग से मिल रहा है. चाणक्य ने कहा था कि जनता से टैक्स इस तरह लेना चाहिए, जैसे मधुमक्खी फूलों से रस लेती है, न कि इस तरह कि उसे पेरकर बिल्कुल चूस लिया जाए. सरकार ने दूसरा रुख अपनाया. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम गिरे, लेकिन भारत में नहीं गिरे. हमने उसकी जगह जनता पर टैक्स की भरमार कर दी.
अगर खाना खाने जाएं तो 30 प्रतिशत टैक्स और मजे की चीज यह कि जो जनता इतना टैक्स दे रही है, उसे हम चोर कहने लगे, सरकार चोर कहने लगी. अब सवाल यह है कि सरकार को पिछली सरकारों के मुकाबले तीन साल में 20 लाख करोड़ रुपए ज्यादा मिले. ये 20 लाख करोड़ रुपये आखिर गए कहां? इनका सरकार ने क्या कोई हिसाब, किसी को दिया है? बस हर जगह टैक्स लगा रहे हैं.
कीमत हर जगह बढ़ा रहे हैं, चाहे वो रेलवे हो या तेल. बिना सोचे-समझे लोगों से पैसा निकालने की योजनाएं बनाई जा रही हैं. आप अगर ये कहें कि पैसा कहां गया, खुद सरकार को नहीं पता तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इतना टैक्स जनता दे रही है, इतना पैसा दे रही है, बढ़े हुए तेल से पैसा आ रहा है, कम कीमत की तेल से पैसा आ रहा है, फिर भी जनता को चोर बताया जा रहा है. टैक्स नहीं घटाया जा रहा है. इससे जनता में रोष है. जो टैक्स दे रहे हैं, उनमें रोष है.
पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड में कांग्रेस के जितने भी निकाले हुए लोग थे, उनको अपनी पार्टी में ले लिया और अपनी पार्टी में जो 30-40 साल से काम कर रहे थे, उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने कोई भाव नहीं दिया. इतना ही नहीं, एक नई नीति बना दी कि जो हमारी बात नहीं माने, वो नेता पार्टी विरोधी है. जितने देश में वरिष्ठ नेता थे, उन पर अघोषित छाप लग गयी कि ये सब पार्टी विरोधी हैं. भारतीय जनता पार्टी का ये तरीका संघ के तरीके से पहली बार अलग हुआ. संघ की पद्धति है कि वो शाखा के कार्यकर्ताओं की बात ऊपर बताता है, ऊपर वाला और ऊपर बताता है, ऊपर वाला और ऊपर बताता है.
शायद यही वजह है कि किसी विषय पर देश के किसी हिस्से में संघ के स्वयंसेवकों से लेकर सरकार्यवाह तक एक ही उत्तर सुनने को मिलता है. मोदी जी ने इस सामूहिक या नीचे के फैसले की पद्धति को समाप्त कर दिया. वे अपने मन के हिसाब से फैसले ले रहे हैं, पार्टी के हिसाब से नहीं. दूसरी तरफ पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का व्यवहार पार्टी के बहुत सारे लोगों को समझ में नहीं आ रहा है और शायद इसीलिए पार्टी के सांसद बहुत ज्यादा नाराज हैं.
इस नाराजगी और बिहार की हार की वजह से ये नहीं कह सकते कि भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की स्थिति क्या है? भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र लगभग समाप्त हो गया है. ऐसा भारतीय जनता पार्टी के सांसदों से बात करने पर पता चलता है.
उत्तर प्रदेश में अगर भारतीय जनता पार्टी चुनाव हारती है, तब यह पार्टी के लिए शुभ होगा. हो सकता है तब भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र शायद पुनः स्थापित हो और प्रधानमंत्री अपने साथियों, सहयोगियों व पार्टी के वरिष्ठ लोगों से राय मशविरा करना पुनः शुरू कर दें.
उत्तर प्रदेश में जब लोकसभा का चुनाव था, तब भारतीय जनता पार्टी को लगभग 42 प्रतिशत वोट मिले थे. अब एक सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इस बार भारतीय जनता पार्टी को 42 प्रतिशत वोट मिलेंगे? अगर भारतीय जनता पार्टी के सात प्रतिशत वोट भी कम हुए तो भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का दावा करने वाली पार्टी नहीं रह पाएगी.
मोदी जी के प्रति गुस्से का कारण समझना चाहिए. मोदी जी की बुनियादी कान्स्टीट्यूएंसी थी मध्यम वर्ग या कहें बनिया. ये लोग 50 साल से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का समर्थन कर रहे थे, जो इस नोटबंदी के फैसले से सबसे ज्यादा आहत और नुकसान में हैं. आंकड़ों में तो मोदी जी जरूर ये दावा करेंगे कि टैक्स क्लेक्शन बढ़ रहा है, आमदनी बढ़ रही है, लेकिन सच्चाई क्या है? इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि भारत की तथाकथित बैंक व्यवस्था से ज्यादा व्यापार, जिसे हम दो नंबर का कहते हैं, उसमें होता रहा है.
भारत में रोजगार का एक सबसे बड़ा साधन छोटे दुकानदार, छोटे व्यापार के जरिये उपलब्ध हो रहा था. कम से कम हर दुकान पर दो से तीन लोग काम करते थे. हर व्यापार में 15 से 20 लोग काम करते थे और उन्हें हर महीने नियमित रूप से वेतन मिलता था.
अब स्थिति ये है कि हम विदेशों को जबरदस्ती पैसे दे रहे हैं. पहले उपभोक्ता 100 रुपये दुकानदार को देता था, तो उसे 100 रुपये ही मिलते थे और उपभोक्ता को सामान भी 100 रुपये का ही मिलता था. संघ अब तक स्वराज और स्वदेशी की बात करता रहा. देश का पैसा देश में रहे, लेकिन एक फैसले से अचानक हमारे देश का पैसा विदेश में जाना शुरू हो गया.
आज स्थिति ये है कि क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल सरकार कराना चाहती है, ये सभी क्रेडिट कार्ड विदेशी हैं. 100 रुपये उपभोक्ता की जेब से तो चले जाते हैं, लेकिन दुकानदार को सौ रुपये नहीं मिलते, 98 रुपये मिलते हैं. उसमें से दो रुपये विदेश चले जाते हैं. ये संघ की उस भावना के विपरीत है, जिसे संघ ने अपने स्वयंसेवकों को पिछले 50-60 साल से समझाया है. देशी, हिन्दुस्तान, देश का पैसा देश में रहे, पर सरकार के एक फैसले ने क्रेडिट कार्ड कंपनियों के जरिए प्रति 100 रुपये में दो रुपये विदेशों को भेजना शुरू कर दिया.
एक मोटे अनुमान के अनुसार, उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी के जीतने की संभावना है, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं के अनुसार ये उधार की जीत होगी. अगर भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से लोगों को नहीं तोड़ा होता, तो उत्तराखंड में 90 प्रतिशत जीत की संभावनाएं समाप्त हो जातीं. भारतीय जनता पार्टी के दोस्तों का मानना है कि पंजाब में भारतीय जनता पार्टी हार रही है और वहां या तो कांग्रेस या आम आदमी की सरकार बनेगी.
उनका ये भी मानना है कि उत्तर प्रदेश में संभवतः अखिलेश यादव और उनके साथी बाजी मारने जा रहे हैं. बीजेपी की संभावना गोवा में भी है, लेकिन क्या गोवा और उत्तराखंड की जीत भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा के चुनाव में दोबारा जीतने के लिए संजीवनी दे पाएगी. ये भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के मन में सबसे बड़ा सवाल है.
अब उत्तराखंड और गोवा में संघ के लोगों के मन में सबसे बड़ा सवाल ये है कि मैं उनके लिए काम कर रहा हूं, जिनके खिलाफ मैं सारी जिंदगी रहा यानी कांग्रेस और मैं जितवा भी कांग्रेस के लोगों को रहा हूं. संघ के लोगों के मन का यह संदेह उनको पूरी तरह से चुनाव प्रचार करने से रोक रहा है. संघ पूरी तौर पर इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं दे रहा है.
हालांकि संघ के एक पुराने विचारक का कहना है कि संघ हमेशा इसी तरीके से भोजन पर चर्चा करता है. अगर भारतीय जनता पार्टी जीत गयी, तो वे ये कहेंगे कि भारतीय जनता पार्टी को हमारे कार्यकर्ताओं ने जी-जान लगाकर जिताया और अगर भारतीय जनता पार्टी हार गयी तो संघ के नेता सारी चर्चा करने के बाद ये कहेंगे कि भारतीय जनता पार्टी की इन-इन नीतियों की वजह से हमने उसका साथ नहीं दिया.
पर प्रश्न, संघ के साथ देने या नहीं देने का नहीं है, प्रश्न यह है कि भारतीय जनता पार्टी की गलतियां क्या उत्तर प्रदेश के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को फायदा देगी या नुकसान देगी या जिन्हें समीक्षक भारतीय जनता पार्टी की गलतियां मानते हैं, वही कारण भारतीय जनता पार्टी की ताकत बनकर उभरेंगे और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सर पर जीत का सेहरा बांधेंगे.