प्रेम और आदर दो महत्त्व के भाव हैं. समाज को रचने गढ़ने में इनकी भूमिका अहम् है. लेकिन प्रेम का महत्व आदर से अधिक है. ‘प्रेम’ के अभाव में ‘आदर’ को गढ़ा जाता है. आदर बनावटी भाव अधिक है. सत्ताएं आज आदर की संस्कृति विकसित कर रही. प्रेम की परम्परा ध्वस्त की जा रही. जब हम प्रेम नहीं कर पाते तो आदर करते हैं. प्रेम भाव की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है. भारतीय परम्परा में इसलिए इश्वर से प्रेम की परम्परा रही है. हम इश्वर को ‘तुम’ कहकर पुकारते हैं. हम उन्हें ‘आप’ कहकर नहीं बुलाते. भक्ति की कई धारा तो प्रेम की ही धारा रही है. राधा-कृष्ण उसी प्रेम की परम्परा का एक रूप है. हम उनसे शिकायत करते हैं. हम उनपर गुस्सा करते हैं. हम उनसे सवाल करते हैं. और यह सब इसलिए कर पाते हैं क्योंकि हम उनसे प्रेम करते हैं. एक हिंदी सिनेमा में अमिताभ बच्चन का बोला गया संवाद प्रसिद्ध है. वह इश्वर से गुस्से में उलझता है. उन्हें कोसता है, और कहता है- “..और आज तो बहुत खुश होगे तुम…”. प्रेम उतना अधिकार देता है जितना आपका अपने आप पर होता है. तभी तो नायक इश्वर से शिकायत कर पाता है. प्रेम में भय नहीं रह जाता. ‘आदर’ में भय के अंश से इंकार नहीं किया जा सकता. आदर मध्यकालीन जीवन दर्शन है.
भारतीय दार्शनिक और आध्यात्मिक परम्परा में तमाम दर्शन प्रेम की सार्वभौमिकता की ही खोज है. चाहे सावित्री और सत्यवान की कथा हो या सीता और राम की गाथा या चाहे शिव और उमा की कहानी. ये माध्यम हैं व्यक्तिगत प्रेम से सार्वभौमिक प्रेम की यात्रा की. कबीर जब हिन्दू और मुस्लिम समाज की कुरीतियों और आडम्बरों पर चोट करते हैं तो यह उनका प्रेम है मानवजाति के प्रति. वे आदर के कर्मकांड से मानवता को मुक्त करना चाहते हैं. रैदास जब दावा करते हैं –“मन चंगा तो कठौती में गंगा’ तो यह उनका अराध्य के प्रति प्रेम के कारण है. अगर यह आदर मात्र होता तो गंगा के दर्शन कठौती में तो नहीं ही होते. प्रेम के न होने पर कर्मकांड ही रह जाता है. औपचारिकताए रह जाती हैं.
प्रेम लोकतान्त्रिक भाव है. यह उसकी आत्मा भी है. समानता की दुनिया इन्हीं मूल्यों से चलती हैं. जहाँ प्रेम नहीं हैं वहां समानता का बोध भी नहीं होगा. प्रेम में कोई भेद नहीं रहता. बराबरी का भाव ही रह जाता है. इसका और उसका, मेरा और तुम्हारा का भाव नहीं रह जाता. मान- अपमान की लालसा नहीं रह जाती. सबकुछ अपना अपना सा हो जाता है. फ़्रांसिसी क्रांति का नारा प्रेम का नारा ही तो था. मानव जाति का एक दूसरे के लिए प्रेम का नारा था. जनता का जनता के लिए भाईचारे का नारा था. ‘समानता, आजादी, भाईचारा’. प्रेम का यह पश्चिमी मुखर रूप था. यह क्रांति प्रेम की ही तो सार्वभौम क्रांति थी. दुनिया को प्रेम का आधुनिक स्वरूप मिला. दुनिया प्रेम के इन्हीं मूल्यों से प्रभावित हुई. लेकिन फिर अचानक से इस प्रेम से सत्ताएं चिंतित हो गई. जैसे मीरा के प्रेम से हुई थी. प्रेम जनता की शक्ति बनी और सत्ता की कमजोरी. जनता में नफरत के जहर बांटे जाने लगे.
प्रेम अब खतरे में है. यह नियंत्रित किया जा रहा. तमाम कानून बन रहें. प्रेम पर पहरे हैं. क्या आज अमिताभ की तरह सत्ताओं से कहा जा सकता है कि कैसी सरकार हो तुम! या सत्ताओं से शिकायतें की जा सकती! अब इश्वर को भी मनुष्य ही रच-गढ़ रहा. इसलिए अब इश्वर भी आदर और भय पैदा कर रहें. मंदिर और मस्जिद भी आक्रांत करते हैं. इनसे प्रेम की ध्वनियाँ नहीं आ रही. मानवता का कल्याण प्रेम में ही है. यह स्वीकारना होगा. यही जनता की शक्ति है सत्ता की कमजोरी. एक अच्छे तंत्र में जनता का मजबूत और सत्ता का कमजोर होना अनिवार्य है. जरुरत है कि हम प्रेम करें. फिर से प्रेम करें.

रणधीर कुमार गौतम विश्वनीदम सेंटर फॉर एशियन ब्लूज़मिंग के कार्यकारी ट्रस्टी हैं, जो एक सार्वजनिक बौद्धिक ट्रस्ट है। वह Gandhian School of Democracy and socialism , आईटीएम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं।
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