रणनीति और राजनीति पर्यायवाची शब्द नहीं हैं. इन दोनों में जमीन और आसमान का फर्क है. चाहे वो राजनीति का सबसे बड़ा धुरंधर ही क्यों न हो, जब भी किसी ने रणनीति को राजनीति समझने की गलती की, वो चौपट हो गया. अगर चुनाव सिर्फ रणनीति के सहारे जीते जा सकते, तो पूरी दुनिया में राजनीति शास्त्र के पंडितों व विश्लेषकों की सत्ता होती. फिर राजनीतिक नेता और जननायकों की जरूरत ही नहीं पड़ती, पार्टी की जरूरत नहीं होती, विचारधारा की जरूरत नहीं होती, संगठन व कार्यकर्ताओं की भी जरूरत नहीं पड़ती. फिर कोई भी धनाढ्य व्यक्ति महंगे से महंगे रणनीतिकार को भाड़े पर रख लेता और चुनाव जीत जाता. आज देश के कई राजनीतिक विश्लेषकों को शर्मसार होना पड़ रहा है, क्योंकि वे रणनीति और राजनीति का फर्क भूल गए. राजनीतिज्ञों से श्रेय छीनकर उन्होंने रणनीतिकार को सुपर-हीरो घोषित करने की भूल की. प्रशांत किशोर यानि ‘पीके’ नाम के प्रसिद्ध पेशेवर चुनावी-रणनीतिकार का महिमामंडन इसी भूल का नतीजा है.

prashant kishorभारतीय राजनीति में आज पीके एक बड़ा नाम बन गए हैं. पीके आमिर खान की फिल्म नहीं, बल्कि प्रशांत किशोर का शॉर्ट नेम है. सत्ता के गलियारों और पत्रकारों के द्वीपनुमा संसार में इनकी काफी चर्चा होती है. जो लोग प्रशांत किशोर को नहीं जानते हैं, उनके लिए बता दूं कि पीके यानि प्रशांत किशोर पेशे से एक चुनावी-रणनीतिकार हैं. पारिश्रमिक लेकर यानि ठेके पर वे राजनीतिक दल व नेता के चुनाव प्रचार की पूरी व्यवस्था संभालते हैं. ये इनका पेशा है.

पीके अब तक भारतीय जनता पार्टी, जदयू और कांग्रेस के लिए काम कर चुके हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान वे नरेंद्र मोदी के साथ थे. उसके बाद विधानसभा चुनावों में उन्होंने पहले नीतीश कुमार के लिए बिहार में प्रचार किया, उसके बाद से वे कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं. उन्होंने अमेरिका में पढ़ाई की है. संयुक्त राष्ट्र में काम किया है. यही वजह है कि भारतीय मानसिक-व्यवस्था में पीके सटीक बैठते हैं. वे अमेरिका-रिटर्न हैं, तो उनमें ज्ञान, अनुभव और कैलिबर होगा और वे ज्यादा समझदार होंगे, यह हर भारतीय सहर्ष स्वीकार कर लेता है. यही प्रशांत किशोर की अपनी ब्रांडिंग है.

देश के बड़े-बड़े नेताओं को भी ऐसे लोगों की तलाश होती है कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले, जो नए जमाने के मुताबिक नई रणनीति तैयार कर सके. यही वजह है कि चुनाव-प्रचार आज एक पेशा बन चुका है. इस पेशे में प्रशांत किशोर का नाम सबसे अव्वल है. मतलब यह कि पीके राजनीतिक दलों के लिए चुनाव की रणनीति तैयार करते हैं. उनके पास 300 से ज्यादा लोगों की एक टीम होती है, जो कैंपेन के दौरान चौबीसों घंटे हर बात का ध्यान रखते हैं. रैली से लेकर टीवी और सोशल मीडिया, हर जगह उनकी टीम एक सुनियोजित प्रचार का संचालन करती है. इसके बदले में वे बाकायदा पारिश्रमिक भी लेते हैं. वो भी करोड़ों में. एक तरह से यह जायज भी है.

हार के बाद पीके फरार हैं

लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन के बावजूद कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद से प्रशांत किशोर लापता हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को महज 7 सीटें मिली हैं.

कांग्रेस के लिए ये अब तक की सबसे बड़ी व शर्मनाक हार है. यही वजह है कि लखनऊ में कांग्रेस कार्यालय के बाहर यूपी कांग्रेस कमेटी के सचिव राजेश सिंह ने एक पोस्टर लगाया, जिस पर लिखा था- ‘स्वयंभू चाणक्य प्रशांत किशोर को खोजकर उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकर्ता सम्मेलन में लाने वाले किसी भी नेता को पांच लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा.’

कांग्रेस से जुड़े लगभग हर कार्यकर्ता और नेता की यही राय है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस की सेहत के लिए हानिकारक हैं. लेकिन राहुल व प्रियंका से प्रशांत किशोर की निकटता की वजह से कांग्रेस में उन्हें अभयदान प्राप्त है. अपने ड्रॉइंग रूम में कांग्रेसी नेता पीके को कोसते जरूर हैं, लेकिन खुल कर बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है. फिर भी, चुनाव नतीजे के बाद से पीके लापता हैं.

हैरानी तो इस बात की है कि जिन वरिष्ठ पत्रकारों ने बिहार चुनाव के बाद प्रशांत किशोर को इस युग का चाणक्य घोषित कर दिया था, वे भी लापता हैं. बिहार चुनाव के बाद देश के बड़े-बड़े विश्लेषकों ने पीके को देश का सबसे महान रणनीतिकार साबित करने की गलती की. कई अखबार और पत्रिकाओं ने तो लालू-नीतीश से जीत का श्रेय छीन कर पीके को दे दिया. यहां तक कह दिया कि नरेंद्र मोदी की हार की वजह सिर्फ पीके की रणनीति है.

पीके का जादू नहीं थी बिहार की जीत 

बिहार चुनाव की हकीकत यह है कि अगर प्रशांत किशोर नहीं भी होते, तो भी बिहार का नतीजा जरा सा भी अलग नहीं होता. बिहार में नीतीश-लालू-कांग्रेस गठबंधन की जीत के पीछे पीके की रणनीति नहीं, लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति है. सोशल मीडिया और टीवी पर चलने वाले ‘बिहार में बहार हो.. नीतीशे कुमार हो.’ जैसे नारों की वजह से महागठबंधन नहीं जीता, बल्कि वोटों का अंकगणित महागठबंधन के पक्ष में था.

नरेंद्र मोदी का विजय रथ बिहार में इसलिए रुका, क्योंकि लालू यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस पार्टी ने एक साथ मिल कर चुनाव लड़ने का राजनैतिक फैसला लिया. लालू यादव और नीतीश कुमार ने जिस तरह से मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान को मुद्दा बनाया और जिस तरह से उसे आखिरी दौर तक जीवित रखा, उसी वजह से नतीजा महागठबंधन के पक्ष में आया.

बिहार में पीके की रणनीति नहीं, बल्कि लालू-नीतीश की राजनीति जीती. अगर बिहार में महागठबंधन की जीत के लिए कोई जिम्मेदार है, तो वे लोग हैं जिन्होंने मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए लालू और नीतीश को एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए मनाया. जीत का श्रेय उन्हें जाना चाहिए था, लेकिन मीडिया ने प्रशांत किशोर को हीरो बना दिया. लेकिन अब, जब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी नेस्तनाबूद हो गई है, कशीदे पढ़ने वाले विश्लेषक चुप हैं. हालांकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं को अब तक समझ में नहीं आ रहा है कि ये सब कैसे हो गया?

बिहार चुनाव के दौरान प्रशांत किशोर नीतीश कुमार के लिए काम करते थे. महागठबंधन बनने से पहले से वे नीतीश कुमार की ब्रांडिंग कर रहे थे. नीतीश कुमार ने दिल खोल कर काफी पैसा खर्च किया था, लेकिन ये बात और है कि नीतीश कुमार की होर्डिंग व पोस्टर पटना और उसके 40 किलोमीटर की परिधि में ही लगे. पैसे कहां खर्च हुए, इसका कोई हिसाब नहीं है. कांग्रेस पार्टी भी इस महागठबंधन का हिस्सा थी, लेकिन राहुल गांधी को प्रशांत किशोर पर भरोसा नहीं था. चुनाव जीतने के बाद जब नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में राहुल पटना आए थे, तब नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को राहुल गांधी से मिलवाया था.

नीतीश कुमार ने न सिर्फ राहुल से उन्हें मिलवाया, बल्कि पीके की प्रशंसा में कशीदे भी पढ़े. इसके बाद पीके राहुल गांधी से दिल्ली में भी मिले, लेकिन पूरी तरह से राहुल गांधी का भरोसा नहीं जीत पाए. इसकी वजह ये रही कि राहुल गांधी के पास पहले से ही सलाहकारों और रणनीतिकारों की पूरी टीम मौजूद थी. अलग-अलग जगहों से फीडबैक लेने के लिए राहुल गांधी के पास 40 लोगों की एक टीम है. ये कांग्रेसी कार्यकर्ता नहीं हैं, बल्कि देश भर से चुने गए प्रोफेशनल्स हैं.

इन्हें कई बार इंटरव्यू लेकर चुना गया है. यही वो टीम है, जिससे राहुल गांधी फीडबैक लेते हैं. राहुल गांधी को शायद प्रशांत किशोर से ज्यादा अपनी इस टीम पर भरोसा रहा हो, इसलिए शुरुआत में राहुल ने उन पर भरोसा नहीं किया. तब तक मीडिया में लगातार प्रशांत किशोर के बारे में लिखा जाने लगा था. कई लोगों ने उन्हें देश का सबसे बड़ा चुनावी-रणनीतिकार घोषित कर दिया था. लेकिन इसके बावजूद पीके राहुल गांधी का भरोसा जीतने में कामयाब नहीं हुए. इसके बाद, प्रशांत किशोर ने प्रियंका गांधी को पकड़ा.

प्रियंका गांधी को प्रशांत किशोर भरोसे के आदमी लगे. प्रशांत किशोर द्वारा किए गए चुनाव पूर्व सर्वे ने पीके को प्रियंका का और भरोसेमंद बना दिया. उस सर्वे में प्रशांत किशोर ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस द्वारा 72 सीटें जीतने का दावा किया था और उसके तर्क भी दिए थे. यहीं से प्रशांत किशोर की कांग्रेस में एंट्री हो गई. प्रियंका गांधी ने विधानसभा चुनाव के फीडबैक के लिए अपनी अलग टीम बनाई. प्रियंका गांधी ही यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस का बैक-ऑफिस चला रही थीं. वे हर दो-तीन दिन में प्रशांत किशोर से प्रेजेंटेशन लेती थीं. इसमें प्रियंका की पूरी टीम शामिल होती थी. कभी-कभी तो इस प्रेजेंटेशन के दौरान 100 से ज्यादा लोग मौजूद होते थे.

पीके की कार्यप्रणाली का सच

अगर प्रशांत किशोर की कार्यप्रणाली को देखें, तो उनकी पूरी रणनीति में एक पैटर्न नजर आता है. वे कोई राजनीतिक सोच वाले व्यक्ति नहीं हैं. वे एक अच्छा पीआर कैंपेन चलाने के माहिर हैं. उनकी रणनीति किसी एक नेता की ब्रांडिंग तक ही सीमित है. राजनीति में नेता तो महत्वपूर्ण होता है, लेकिन सिर्फ किसी एक नेता के इर्द-गिर्द राजनीति सीमित नहीं होती है. प्रशांत किशोर की रणनीति का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ये है कि उनके कैंपेन के केंद्र में एक नेता ही होता है. उसी नेता की छवि के इर्द-गिर्द वे प्रचार-प्रसार का तानाबाना बुनते हैं. साथ ही फिल्मी अंदाज के दो तीन नारों के साथ वे अपनी रणनीति का ढांचा तैयार करते हैं.

इस तरह की रणनीति से वे जनता में अपने क्लाइंट के परसेप्शन यानि अवधारणा को मजबूत करते हैं. यहां प्रशांत किशोर का ट्रिक समझना जरूरी है. व्यक्तिगत तौर पर इस तरह की रणनीति देख कर वो नेता खुश हो जाता है, क्योंकि हर नेता के अंदर महान बनने या महान दिखने की लालसा मौजूद होती है. प्रशांत किशोर इसी का फायदा उठाते हैं. आज के दौर में तो कोई महात्मा गांधी या सरदार पटेल है नहीं, जिनका अपने सिद्धातों पर हिमालय की तरह अडिग विश्वास हो. आज का दौर अवसरवादी राजनीति और हीन भावना से ग्रसित राजनेताओं का है, जो पार्टी कार्यकर्ताओं से दूर और महिमामंडन करने वालों के नजदीक होना पसंद करते हैं. इसलिए प्रशांत किशोर की रणनीति हिट है.

उनकी रणनीति पार्टी के शीर्ष में बैठे नेताओं का महिमामंडन करने वाली रणनीति होती है. इस तरह के प्रचार से नेता के अहम व अहंकार का पोषण तो होता ही है, साथ ही उन्हें खुद के महान होने का एहसास भी दिलाता है. वो नेता इतना खुश हो जाता है कि पीके उसके घर के बन जाते हैं. यह कोई आश्चर्य नहीं है कि बिहार हो या गुजरात, प्रशांत किशोर हमेशा मुख्यमंत्री निवास में ही रहते थे. जब तक वे मोदी या नीतीश कुमार के साथ रहे, सीधे उनके साये की तरह उनसे ही चिपके रहे. अब वे प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के साथ जुड़े हैं. इसलिए कांग्रेस का कोई भी नेता प्रशांत किशोर के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करेगा.

प्रशांत किशोर ने प्रियंका का भरोसा तो जीत लिया था, लेकिन अब राहुल गांधी का भरोसा जीतना जरूरी था. इसके लिए पीके ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मीटिंग की. इसमें उत्तर प्रदेश के सभी स्थानीय नेताओं को बुलाया और उन्हें आश्वासन दिया कि सबको टिकट मिल सकता है. प्रशांत किशोर ने इस मीटिंग में बताया कि लखनऊ में राहुल गांधी की रैली होगी, जिस दौरान यह तय होगा कि किसे टिकट दिया जाए. जिन लोगों को चुनाव लड़ना है, वे अपने साथ लोगों को लेकर आएं.

रैली स्थल पर उनके लोग होंगे, जो हर नेता के साथ आए लोगों की गिनती करेंगे, बसों का हिसाब करेंगे. जो सबसे ज्यादा लोगों को लेकर आएगा, उसे टिकट दिया जाएगा. इस रैली के लिए प्रशांत किशोर ने पार्टी से पैसे भी लिए, लेकिन उसे खर्च नहीं किया. कांग्रेस के सारे नेताओं ने अपने पैसे से लोगों को लखनऊ लाकर अच्छी खासी भीड़ जमा की. राहुल गांधी की लखनऊ रैली में 60 हजार से ज्यादा लोग पहुंचे, जिसका पूरा क्रेडिट प्रशांत किशोर को गया. यहीं से प्रशांत किशोर के प्रति राहुल का भरोसा जगा.

उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर ने अपनी रणनीति पर अमल करना शुरू किया. अपनी कार्यप्रणाली के मुताबिक पीके को एक मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तय करना था. ऐसा उम्मीदवार, जिसके इर्द-गिर्द पूरा कैंपेन केंद्रित किया जा सके. प्रशांत किशोर ने अपने सुविधानुसार सबसे पहले राहुल गांधी का नाम सुझाया. इससे पीके के दोनों ही पर्पस सॉल्व हो जाते.

एक तो उनको अपनी सुविधा के मुताबिक एक परिचित चेहरा मिल जाता, जिसकी वो ब्रांडिंग कर पाते और दूसरा यह कि वे पहले की भांति पार्टी के सुप्रीम-नेता के खास बने रहते. लेकिन कांग्रेस में इसका जबरदस्त विरोध हुआ. राहुल गांधी को उनके लोगों ने समझाया कि अगर वे मुख्यमंत्री नहीं बन सके, तो 2019 में प्रधानमंत्री की रेस से वे पहले ही बाहर हो जाएंगे.

इसलिए प्रशांत किशोर की ये योजना सफल नहीं हुई. इसके बाद गहन चिंतन के बाद प्रशांत किशोर ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का नाम सुझाया. ये एक ऐसी रणनीति थी, जिससे कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच निराशा की लहर दौड़ गई. प्रशांत किशोर को ये विश्वास था कि शीला दीक्षित के नाम पर कांग्रेस को ब्राह्मणों का वोट मिल जाएगा. लेकिन ब्राह्मणों का समर्थन मिलना तो दूर, बहुगुणा जैसी पुराने ब्राह्मण नेता पार्टी छोड़ कर बीजेपी में चले गए.

प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को विजयी बनाने के लिए अपनी रणनीति को जमीन पर कार्यान्वित कर रहे थे. सबसे पहले उन्होंने यूपी में यह नारा दिया, ‘27 साल यूपी बेहाल.’ उत्तर प्रदेश की स्थिति बिहार से बिल्कुल अलग थी, लेकिन पीके की रणनीति वही पुरानी थी. पीके की रणनीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुख्यमंत्री का चेहरा होता है. बिहार में पीके का काम आसान था, वहां नीतीश कुमार जैसे कद्दावर नेता मुख्यमंत्री के उम्मीदवार थे. पहले से ही उनकी सकारात्मक छवि थी. बिहार में उनके सामने, उनके बराबर के कद का कोई विरोधी नेता नहीं था.

इसलिए पीके ने जिस तरह से लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द अपना कैंपेन रखा था, उसी तर्ज पर उन्होंने बिहार में नीतीश कुमार की ब्रांडिंग की. सच्चाई ये है कि पीके के प्रचार-प्रसार के बिना भी नीतीश कुमार पहले से ही बिहार के सबसे लोकप्रिय नेता थे. बिहार में नीतीश कुमार के लिए किसी रणनीति की जरूरत नहीं थी. लेकिन यहां तो शीला दीक्षित थीं, जो उत्तर प्रदेश की बहू हैं.

चुनाव से पहले वे दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं, जहां उनके नेतृत्व में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई. शीला दीक्षित ने स्वयं अपनी सीट भी गंवा दीं. उस चुनाव में केजरीवाल के हाथों कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था. प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित की ब्रांडिंग करने में पूरी तरह से विफल रहे. यह उनकी काबिलियत पर एक प्रश्न चिन्ह जरूर है. मोदी और नीतीश कुमार जैसे लोकप्रिय नेता, जिनकी पहले से साख थी, उनकी ब्रांडिंग कर पीके ने तो खूब वाहवाही लूटी, लेकिन शीला दीक्षित की ब्रांडिग, जो उनकी असली परीक्षा थी, उसमें वे फेल हो गए.

ऐसे पीके ने डुबोई लुटिया

ग़ौर करने वाली बात ये है कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर का इस्तेमाल सिर्फ प्रचार-प्रसार में किया. राजनीतिक फैसले इन दोनों ने हमेशा खुद लिए. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी से सबसे बड़ी गलती ये हुई कि उन्होंने अपने अनुभवी नेताओं को बेदखल कर राजनीतिक फैसले लेने की जिम्मेदारी प्रशांत किशोर पर छोड़ दी. पीके ने जब राजनीति में दखल दी, तो वे बुरी तरह से विफल हुए. प्रशांत किशोर को लगा कि मोदी सरकार ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया है और प्रदेश में किसानों के हालात ठीक नहीं हैं.

इसे मुद्दा बना कर किसानों का समर्थन लिया जा सकता है. प्रशांत किशोर यह समझ नहीं पाए कि चुनाव में किसान कभी भी एक समूह होकर वोट नहीं डालता है. पीके ने सारी शक्ति एक ऐसी मृगतृष्णा के पीछे झोंक दी, जिसका चुनाव में कोई फायदा नहीं मिलने वाला था. प्रशांत किशोर ने किसान मांग पत्र जारी कर किसानों से समर्थन जुटाने की कोशिश की.

उन्होंने दावा किया कि किसान मांग पत्र पर उत्तर प्रदेश के एक करोड़ किसानों ने हस्ताक्षर किए. अब पता नहीं ये कैसे हुआ कि जितने किसानों ने किसान मांग पत्र पर हस्ताक्षर किए, उसका आधा वोट ही कांग्रेस को पूरे प्रदेश में मिला. पीके ने राहुल गांधी के लिए सबसे पहले खाट सभा और किसान रैली की तैयारी की. इसका मीडिया के जरिए बहुत प्रचार भी किया गया. ब्रांडिंग की गई. प्रशांत किशोर ने किसानों को लुभाने के लिए फिल्मी नारा भी दिया, ‘कर्जा माफ, बिजली बिल हाफ, समर्थन मूल्य का करो हिसाब…’ लेकिन इन नारों का असर किसानों पर नहीं हुआ.

किसान खाट सभा से खाट भी उठा ले गए और वोट भी नहीं मिला. समझने वाली बात यह है कि किसानों का समर्थन सिर्फ इस तरह की सतही रणनीति से नहीं लिया जा सकता है. कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी से इतनी बड़ी गलती इसलिए हुई, क्योंकि राहुल गांधी ने पार्टी के स्थानीय नेताओं से ज्यादा प्रशांत किशोर पर भरोसा किया. भारत के किसान फेसबुक-ट्विटर पर प्रचार और प्रोपेगंडा के बहाव में बहने वाले मतदाता नहीं हैं. 67 साल से लगातार धोखे खाकर आज का किसान परिपक्व हो चुका है. ‘27 साल यूपी बेहाल’ जैसे नारों का असर गरीब किसान व मजदूरों पर नहीं पड़ता है. लेकिन स्वघोषित चाणक्य ने इसे मुख्य नारा बनाकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नैया पार लगाने का दुस्साहस किया.

नारों से नहीं मिलती जीत

लखनऊ की रैली के बाद खाट सभा, किसान सभा और किसान मांग पत्र को प्रशांत किशोर ने प्रियंका और राहुल के सामने एक अपार सफलता के रूप में पेश किया. राहुल गांधी और प्रियंका कांग्रेस के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं से कटे ही रहे. इसका फायदा प्रशांत किशोर ने उठाया. वे प्रियंका को ये समझाने में सफल हो गए कि उनकी रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी कम से कम 72 सीट जीत जाएगी. लेकिन प्रशांत किशोर अब तक समझ चुके थे कि शीला दीक्षित को पार्टी का चेहरा बनाकर वे कांग्रेस की नैया पार नहीं करा सकते हैं. इसलिए उन्होंने प्रियंका गांधी को गठबंधन की सलाह दी.

कांग्रेस की तरफ से प्रशांत किशोर सबसे पहले मुलायम सिंह यादव से मिले. कांग्रेस के नेताओं के लिए ये खबर एक झंझावात से कम नहीं थी. टीवी पर हर कांग्रेसी नेता इस खबर को नकारता रहा, क्योंकि ये फैसला किसी भी पार्टी-पदाधिकारी के राय-मशविरा के बगैर लिया गया था. जब प्रशांत किशोर मुलायम सिंह यादव से मिले, तो मुलायम ने उन्हें अखिलेश यादव से मिलने के लिए कहा. इधर मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव से कह दिया कि वे प्रशांत किशोर की बातें सिर्फ सुन लें, लेकिन कोई निर्णय न लें. इस वक्त तक गठबंधन की कोई बात नहीं हुई थी.

अखिलेश यादव ने यात्रा के दौरान प्रशांत किशोर से बात की, लेकिन कोई वादा नहीं किया. जब समाजवादी पार्टी में मुलायम परिवार का कलह उफान पर था, तब कांग्रेस के साथ गठबंधन पर दो राय थी, इसलिए गठबंधन पर कोई ठोस फैसला टलता रहा. यह राहुल गांधी और प्रियंका की राजनीतिक अनुभवहीनता का परिचायक है कि गठबंधन जैसे महत्वपूर्ण फैसले के लिए उन्होंने पार्टी के अनुभवी राजनीतिज्ञों को दरकिनार कर राजनीति के नौसिखिए पर भरोसा किया. कांग्रेस पार्टी की शर्मनाक हार दिवार पर इबारत की तरह प्रशांत किशोर लगातार लिखते रहे और लोग इसे रणनीति मानते रहे.

ऐसे हुआ सपा-कांग्रेस गठबंधन

उधर कांग्रेस में उत्तर प्रदेश चुनाव की कमान पूरी तरह से प्रियंका संभाल रही थीं. उन्होंने अखिलेश यादव को दस से ज्यादा बार फोन किया, लेकिन अखिलेश यादव ने उनका फोन नहीं उठाया. इसके बाद प्रियंका ने अखिलेश की पत्नी डिम्पल यादव को फोन किया. डिम्पल यादव ने अखिलेश से बात की, इसके बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. गठबंधन का रास्ता खुला. शुरुआत में अखिलेश किसी के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थे. जब गठबंधन पर राजी हुए, तो भी वे अजित सिंह की पार्टी को एक भी सीट देने के हक में नहीं थे.

हैरानी की बात ये है कि जब उत्तर प्रदेश में गठबंधन की बात चल रही थी, तब प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार के साथ जबरदस्त धोखा किया. गौरतलब है कि प्रशांत किशोर को राहुल गांधी से मिलवाने वाले नीतीश कुमार ही थे. चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में जाकर रैलियां की थीं. उनकी रैलियों को अच्छा समर्थन भी मिला था. वे उत्तर प्रदेश की राजनीति में दखल देना चाह रहे थे. लेकिन जब कांग्रेस की तरफ से गठबंधन की पहल हुई, तो प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को साफ-साफ कहा कि अखिलेश को अजित सिंह से बात करनी चाहिए, लेकिन नीतीश कुमार से कोई बात न करें.

अब तक प्रशांत किशोर प्रियंका का भरोसा जीतने में कामयाब रहे थे. वे प्रियंका की टीम के साथ मिल कर रणनीति बना रहे थे. इस बीच नोटबंदी हो गई. नोटबंदी होने के करीब एक हफ्ते के बाद एक खबर उड़ी कि नीतीश कुमार और अमित शाह की मुलाकात हुई थी, जिसके बाद ही नीतीश कुमार ने नोटबंदी के समर्थन में बयान दिया. सूत्र बताते हैं कि ये झूठी खबर प्रशांत किशोर द्वारा फैलाई गई थी. प्रशांत किशोर के इस धोखे और विश्वासघात की वजह से ही नीतीश कुमार को उत्तर प्रदेश की राजनीति से बाहर जाना पड़ा.

गठबंधन की पूरी बातचीत में राजबब्बर और गुलाम नबी आजाद को बाहर रखा गया. मतलब यह कि पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस बारे में कुछ पता नहीं था कि अंदरखाने क्या चल रहा है. प्रशांत किशोर ने प्रियंका को इस बात के लिए कन्विंस कर दिया कि राजबब्बर और गुलाम नबी आजाद ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. नेताओं और कार्यकर्ताओं को चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखने की प्रशांत किशोर की रणनीति की वजह से चुनाव के साथ-साथ संगठन को भी भारी नुकसान हुआ.

राजबब्बर और गुलाम नबी आजाद जिन लोगों को टिकट देना चाहते थे, उन्हें हटा दिया जाता, क्योंकि प्रशांत किशोर और प्रियंका की टीम उससे बेहतर उम्मीदवार प्रियंका के सामने लाकर रख देते थे. उदाहरण के तौर पर, आगरा में राजबब्बर और गुलाम नबी आजाद द्वारा चुने हुए एक पुराने कांग्रेसी नेता का नाम काट कर प्रियंका ने एक बीजेपी के पूर्व-विधायक को टिकट दे दिया, जो उसी दिन कांग्रेस में शामिल हुए थे. बताया जाता है कि उनके कांग्रेस में शामिल होने से पहले ही उन्हें टिकट का भरोसा दे दिया गया था. यानि वे बीजेपी नेता कांग्रेस में इसी शर्त पर शामिल हुए कि उन्हें टिकट दिया जाएगा.

प्रियंका का पूरा विश्वास, प्रशांत किशोर द्वारा किए गए इस वादे पर टिका था कि कांग्रेस 72 सीट जीत रही है. लेकिन पहले व दूसरे चरण की वोटिंग के बाद अलग-अलग सूत्रों से फीडबैक मिलने लगा. तब प्रियंका का विश्वास टूट गया और उन्होंने कैंपेन करने से मना कर दिया. इस बीच उनके परिवार के अत्यंत ही प्रिय बालक को चोट लगी, जिससे उनका मन चुनाव-प्रचार से और भी उठ गया. पहले दो चरणों के चुनाव से ही यह पता चल चुका था कि कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन एक शर्मनाक हार के मुंह पर खड़ी है.

लेकिन सवाल यह है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हो जाने के बाद भी अनुभवहीनता की वजह से कई चीजें ऐसी हुईं, जो नहीं होनी चाहिए थीं. मसलन, टिकट और उम्मीदवारों को लेकर आखिरी वक्त तक उहापोह की स्थिति बनी रही. गांधी परिवार के संसदीय क्षेत्र में भी अगर सामंजस्य नहीं बन सका, तो यह बताता है कि कांग्रेस के डिसीजन-मेकर्स और रणनीतिकार यानि पीके को अभी कितना सीखने की जरूरत है. इन समस्याओं के बावजूद स्थिति इतनी खराब नहीं होती, अगर प्रशांत किशोर को राजनीति की समझ होती.

गठबंधन की रणनीति का पूरा कमान प्रशांत किशोर के हाथ में था. समाजवादी पार्टी के मास्टर-रणनीतिकार शिवपाल सिंह यादव वैसे भी रूठे हुए थे. वे एक तरह से चुनाव से बाहर थे. जमीनी कार्यकर्ता और बुजुर्ग वोटर भी अखिलेश से नाराज थे. जहां तक बात कांग्रेस पार्टी की है, तो इस पार्टी में सायकोफैंसी की हालत ये है कि बड़े-बड़े अनुभवी नेता राहुल के चेहरे को देखकर अपनी राय देते हैं. अगर राहुल गांधी खुश हैं, तो माना जाता है कि सबकुछ सही चल रहा है और राहुल नाराज, तो प्रलय.

इसलिए कांग्रेसी नेताओं ने अब सच बोलना ही बंद कर दिया. यही वजह है कि प्रशांत किशोर को जो मन आया वो करते गए और कांग्रेस के स्थानीय नेता तो दूर, वरिष्ठ नेताओं ने भी अपनी जुबान नहीं खोली और न अब खोल रहे हैं. प्रशांत किशोर ने फिर उसी फिल्मी अंदाज में नारे दिए. आजकल एक प्रचलित गाना है- ‘बेबी को बेस पसंद है.’ इसी तर्ज पर प्रशांत किशोर ने नारा दिया- ‘यूपी को ये साथ पसंद है.’ रणनीति के नाम पर राजनीति का तमाशा अगर किसी से सीखना हो, तो उन्हें उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर के क्रियाकलापों से सीखना चाहिए.

इसके अलावा ‘यूपी के लड़के’ और ‘काम बोलता है’, जैसे असरहीन नारों के जरिए प्रशांत किशोर ने बची-खुची कमी पूरी कर दी. अब इन महान-रणनीतिकारों को कौन समझाए कि चुनाव नारों से नहीं, वोट से जीता जाता है. अच्छा नारा वो होता है, जिसका असर वोटर के दिमाग पर होता है. उत्तर प्रदेश में काम की जगह कारनामे की आवाज बुलंद हो गई और यूपी के लड़कों को वहां के बुजर्गों ने सबक सिखा दिया.

लेकिन हैरानी तो इस बात की है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव की ये कैसी रणनीति थी, जिसमें मुसलमानों की समस्या और उनकी आवाज को दरकिनार कर दिया गया. मायावाती खुल कर मुसलमानों से वोट की अपील कर रही थीं. वहीं, राहुल औऱ अखिलेश के एजेंडे से मुसलमान गायब था. यह कारनामा एक रणनीतिकार ही कर सकता था, कोई राजनीतिक व्यक्ति सपने में भी इतनी बड़ी भूल नहीं करता. यही वजह है कि मुस्लिम बहुल इलाकों में वोट का बंटवारा हो गया और भारतीय जनता पार्टी ने झाड़ू चला दी.

चुनाव में हार और जीत लगी रहती है. लेकिन जिस तरह से सपा-कांग्रेस गठबंधन उत्तर प्रदेश में चुनाव हारा है, वो अविश्वसनीय है. इसमें कोई शक नहीं है कि प्रशांत किशोर ने ही राहुल और अखिलेश की नैया डुबोई है. ये अलग बात है कि राहुल हार से सीखना नहीं चाहते. पिछले चुनाव यानि 2012 में उत्तर प्रदेश में मिली हार से उन्होंने कुछ नहीं सीखा. 2012 में भी उन्होंने बाहर से आए नेताओं को कांग्रेस संगठन के माथे पर बिठाने की गलती की थी. राहुल ने दिग्विजय सिंह और परवेश हाशमी की तीन साल की मेहनत को दरिया में फेंक दिया था. इस बार भी राहुल और प्रियंका ने वही गलती दोहराई.

अपने पुराने व अनुभवी नेताओं के बजाय उन्होंने एक बाहरी पर भरोसा कर लिया. प्रशांत किशोर एक मार्केटिंग प्रोफेशनल हैं. वेे किसी अच्छी साख वाले लोकप्रिय नेता की ही ब्रांडिंग कर सकते हैं. उन्होंने अभी तक किसी भी अलोकप्रिय और बिना साख वाले नेता की छवि नहीं चमकाई है. ये कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की अनुभवहीनता ही कही जाएगी कि उन्होंने एक रणनीतिकार से राजनीति कराने का जोखिम उठाया. नतीजा सबके सामने है. प्रशांत किशोर कांग्रेस के लिए कब तक काम करेंगे ये एक रोचक प्रश्न है, क्योंकि अब तक प्रशांत किशोर ने जिसके साथ भी काम किया, उसे धोखा देकर आगे निकल गए.

बिहार से भी लापता हैं प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर की तलाश अब सिर्फ लखनऊ के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ही नहीं है, बिहार में पूरा विपक्ष उन्हें ढूंढ रहा है. करीब एक साल से प्रशांत किशोर बिहार से गायब हैं. बिहार से उनका लापता होना एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है. प्रशांत किशोर की वजह से नीतीश कुमार की किरकिरी हो रही है. नीतीश कुमार की मुसीबत यह है कि वे प्रशांत किशोर के मामले में कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं हैं. एक तरफ विपक्ष के नेता ताना मार रहे हैं, तो दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की बेवफाई है.

नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर पर बहुत विश्वास किया था. चुनाव जीतने के बाद ही उन्होंने प्रशांत किशोर को मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया था. लेकिन वे पिछले एक साल से पटना से लापता हैं. बिहार चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने बड़ी आशा के साथ उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी दी थी. प्रशांत किशोर आज भी बिहार विकास मिशन के गवर्निंग बॉडी के सदस्य हैं. इस पद के लिए उन्हें कई सहूलियतें मिलती हैं.

अब सवाल ये है कि प्रशांत किशोर जो यात्राएं करते हैं, क्या उसके खर्च का  वहन बिहार सरकार करती है? जब वे बिहार में रहते ही नहीं हैं और न ही बिहार सरकार के लिए काम कर रहे हैं, तो क्या उनको दी गई सहूलियतों को नीतीश कुमार को वापस नहीं ले लेना चाहिए? क्या दूसरे राज्यों में कांग्रेस के प्रचार प्रसार के लिए बिहार सरकार प्रशांत किशोर पर खर्च कर रही है? अगर अब तक ये खर्च बिहार सरकार करती रही है, तो क्या प्रशांत किशोर उस पैसे को वापस करेंगे? सवाल तो ये भी है कि क्या नीतीश कुमार की सहमति या आदेश पर प्रशांत किशोर देश भर में कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं?

नीतीश कुमार से इन सवालों को इसलिए पूछा जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने बिहार के विकास की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी भी प्रशांत किशोर के कंधे पर दे दी. प्रशांत किशोर पर बिहार-2025 विजन डाक्युमेंट तैयार करने की जिम्मदारी है. इसके लिए सिटीजन अलायंस नामक संस्था को 9.31 करोड़ रुपए भी दिए जा चुके हैं. ये पैसे कहां गए? बिहार-2025 विजन डाक्युमेंट तैयार हुआ है या नहीं? इसकी शुरुआत भी हुई है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि पैसे लेकर किसी रिसर्च स्कॉलर और प्रोफेसरों को इस काम पर लगा दिया गया है? सवाल तो ये भी है कि क्या एक विजन डॉक्युमेंट को तैयार करने के लिए 9.31 करोड़ रुपए दिए जाने सही हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव जितवाने के पारिश्रमिक के रूप में विजन डॉक्युमेंट के नाम पर प्रशांत किशोर को करोड़ों रुपए दे दिए गए? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि पिछले छह महीने से प्रशांत किशोर पटना क्यों नहीं आए हैं? वे बिहार मिशन के गवर्निंग बोर्ड के सदस्य हैं, फिर भी इसके कामकाज पर वक्त और ध्यान क्यों नहीं देते हैं? ये हैरानी की बात है कि अब नीतीश कुमार ये सब कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं? जो लोग नीतीश कुमार को नजदीक से जानते हैं, उन्हें मालूम है कि नीतीश कुमार इस तरह की चीजों से सख्त नफरत करते हैं.

प्रशांत किशोर को लेकर नीतीश कुमार को भारतीय जनता पार्टी का हमला तो सहना ही पड़ता है, साथ ही उनकी ही पार्टी में लोग अब पीके को देखना नहीं चाहते हैं. जदयू के नेताओं को लगता है कि बिहार चुनाव के दौरान प्रशांत किशोर को जरूरत से ज्यादा भाव दे दिया गया, जिसके वे हकदार नहीं थे.

नीतीश कुमार से उनकी नजदीकियों की वजह से किसी ने भी प्रशांत किशोर के खिलाफ खुल कर कुछ नहीं कहा. लेकिन अब, जदयू के नेता खुले रूप से बोलने लगे हैं. लेकिन सवाल ये है कि वे बिहार से लापता क्यों है? नीतीश कुमार के साथ उनकी दूरियां क्यों बढ़ गईं? पटना में राजनीतिक हलको में ये बात आम है कि नीतीश कुमार के एक मुख्य सलाहकार बनने के कुछ दिन बाद प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार को करीब दस करोड़ रुपए का बिल थमा दिया.

पीके की टीम ने चुनाव के दौरान अलग-अलग जाकर जो काम किया था, यह बिल उसी से संबंधित था. नीतीश कुमार हैरान थे. उन्होंने ये बिल पार्टी के कुछ वरिष्ठ और भरोसेमंद नेताओं के साथ शेयर किया. उनके साथ इस विषय पर चर्चा की और प्रशांत किशोर को उनके पास भेज दिया. पीके को समझ में आ गया कि ये मामला जानबूझ कर लटकाया जा रहा है. उन्हें यकीन हो गया कि अब पैसा नहीं मिलने वाला है, तब उन्होंने बिहार सरकार से दूरी बना ली और अब वे कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं.

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