पिछले दिनों रेख्ता पब्लिकेशन से आई पुस्तक “मौत का जिंदगीनामा” में प्रकाशित कुछ कविताओं को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सौभाग्य इसलिए कहूँगा कि कोरोना के इस प्रलयकाल में सृजन के इस अंकुर में निराशा के बावजूद एक सौंधापन है। उम्मीद और उल्लास तो इस काल ने वैसे भी छीन लिया पर कुछ लोग हैं जो इस संक्रमण काल में अपनी सम्वेदनाओं को बचा ले गए हैं और उन्ही में से एक हैं “मौत का जिंदगीनामा” की लेखिका आदरणीया प्रज्ञा शर्मा जी।
यूँ तो मैं प्रज्ञा शर्मा जी को नई सदी के पहले दशक से जानता हूँ पर मेरे मानस पर उनकी छवि एक ग़ज़लकारा एक शायरा की थी। एक ऐसी शायरा जिनके शे’र उन्ही की तरह बेलौस थे, आधुनिकता के आवरण में लिपटे हुए थे। उनकी तरह उनके शेरों ने अपनी मर्यादाएं खुद तय कीं जिनका दायरा बहुत बड़ा था पर उन्होंने और उनके शेरों ने जो मर्यादाएं तय कर लीं फिर उनका सम्मान भी सदैव किया। उनके शेरों में प्रेम है टीस है ख़ूबसूरत कल्पनाएं हैं तो जीवन का दर्शन भी है। उनके शेर पाठक या श्रोताओं के दिल से उपजी आह को वाह में बदलने का हुनर रखते हैं ।

खैर प्रज्ञा शर्मा जी की शायरी के बारे में चर्चा आलेख के अंत में करूँगा। इस समय तो उनके कवयित्री स्वरूप पर कुछ प्रकाश, जो मेरे लिए आश्चर्य का विषय है। मैंने हमेशा उन्हें अपनी फिक्र को ग़ज़ल का लिबास पहनाते हुए देखा है। इसलिए अतुकांत नई कविता के शिल्प में रची गयीं इन कविताओं पर विस्मित होना स्वाभाविक है लेकिन पढ़ने पर महसूस होता है कि इस शिल्प में भी प्रज्ञा शर्मा जी ने अपनी विराट चेतना और सम्वेदनाओं का उपयोग पूरे भाषाई सौंदर्य के साथ किया है। उदाहरण के तौर पर “क्या करती हूँ” शीर्षक से ये कविता देखें-

इन दिनों क्या करती हूँ…?”
“सुब्ह होते ही
जिस्म को उठाती हूँ
उसे उसके काम याद दिलाती हूँ
वो अपने काम निपटाता है
और मैं,
तन्हाई की आँच पर
बेचैनी के पतीले में
कोई नया ख़याल पकाती हूँ
फिर दोपहर होते ही शाम हो जाती है
शाम के ढलते ही
रात के बिस्तर पर
ख़्वाब की नई चादर बिछाती हूँ
जिस्म उस पर सो जाता है
मैं…अकेली जागा करती हूँ…..”
*
इस कोरोना काल मे डिस्टेंस सिर्फ लोगों या समाज में ही नहीं आया है। हम खुद से भी कितने दूर हो गए हैं।खुद अपने साथ भी हमारा व्यवहार कितना औपचारिक हो गया है। इसकी बानगी है ये कविता।

इसी कुल कबीले की एक और कविता है “प्लम्बर नही मिल रहा” हमारी दुनियाँ से हमारे अंतर्जगत के अन्तर्सम्बन्ध का जीवंत उदाहरण है ये कविता-

लॉकडाऊन की वजह से
प्लम्बर नहीं मिल रहा
नल टपकता रहता है
फ़र्श गीला हो जाता है
तो सूखे कपड़े से पोछ देती हूँ
मन का क्या करूँ
इसमें सन्नाटा टपकता है
मन भीग जाता है
तो रात की सूखी चादर ओढ़कर
सो जाती हूँ…..
*
बाहर के टपकते नल के साथ मन के भीतर टपकते सन्नाटे की आद्रता को महसूस कर लेना और इसी भीगे मन के साथ रात की सूखी चादर ओढ़ कर सो जाना। इस विवशता की इस अहसास की अभिव्यक्ति बेहद कठिन थी जिसे किस सहजता से शब्द दिए हैं प्रज्ञा जी ने। ये कविताएं निसंदेह हमारे समाज की दशा दिशा को व्यक्त करती हैं।

इस संग्रह की महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है “वरदान छिन गया” यह कविता मेरी तरह आपको भी प्रज्ञा शर्मा जी के प्रशंसकों की भीड़ में खड़ा कर देगी। कारण इसमे कल्पना, यथार्थ, चेतना, दर्शन, आध्यात्म और व्यंग का अद्भुत समन्वय है।कोरोना की पड़ताल करते समय इससे बेहतर तर्क की उम्मीद नही की जा सकती। ये कविता हमें अपनी मान्यताओं का सम्मान करना सिखाती है। देखें-

बचपन में
पापा मुझे कहानियाँ सुनाया करते थे
जिसमें
कथा नायक की तपस्या से प्रसन्न होकर
भगवान प्रगट होते
और उसे
मनचाहा वरदान देकर
उससे जुड़ा एक नियम बताते और कहते-
‘तुमने ये नियम तोड़ा तो ये वरदान
तुमसे छिन जायेगा’
फिर
एक दिन नियम टूटते ही
वरदान भी छिन जाता
हमें भी वरदान मिला था
किसी को भी सीने से लगाकर
उसका दुःख अपने अन्दर भर लेने का
हम भी नियम भूल गये
इसका उल्टा करने लगे
किसी को गले लगाकर
अपना दुःख उसमें भरने लगे
हमसे भी वरदान छिन गया है
अब हम
किसी को गले नहीं लगा सकते
अब
दो ग़ज़ की दूरी बरतना ज़रूरी हो गया है……
*
ये दूरी इसलिए जरूरी हो गयी क्योंकि हमने दुख को सहेजने की बजाए दूसरों पर थोपना शुरू कर दिया।भारतीय दर्शन की इससे बेहतर व्याख्या पिछले दिनों मेरे देखने मे तो नही आई।एक उत्कृष्ट संग्रह के प्रकाशन के लिए आदरणीया प्रज्ञा शर्मा जी को हृदय से बधाई।

ये संग्रह अपनी लाख ख़ूबियों के बावजूद जिस विवशता का चित्रण करता है उसे मैने प्रज्ञा जी के व्यक्तित्व में कभी नही देखा। प्रज्ञा जी के व्यक्तित्व की सच्ची झलक तो उनके ग़ज़लकार के रूप में मिलती है। जहां वे कहती हैं-
“अभी भी जब अकेले कार लेकर मैं निकलती हूँ।
बगल की सीट पर बैठे हुए मालूम होते हो।।”
इस शेर में वे एकांत की विवशता को नही बल्कि उस एकांत में प्रिय की उपस्थिति को महसूस करती हैं।

एक शेर और महसूस करिए
महसूस करिए इसलिए कहा क्योंकि प्रज्ञा जी के शेर बिना महसूस किए पढ़ना बेमानी है
शेर है-
“वो अपनी प्यास का आलम भी मैने देखा है।
मैं अपने आप पे बरसी हूँ बारिशों की तरह।।”
ये व्यक्तित्व है प्रज्ञा शर्मा का।
वे अपनी प्यास के आलम में बादलों की प्रतीक्षा नहीं करतीं, सावन को आवाज नही लगातीं, किसी से कोई अपेक्षा नही करतीं बल्कि अपने अंतर्जगत में अपनी
तृप्ति का माध्यम खोज लेती हैं ।
यही नहीं वे अपने हर अहसास की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाने को तैयार रहती हैं।

“अब अपने आप से फुर्सत मुझे नही मिलती।
ये कैसे काम पर मैने लगा दिया मुझको।।”

शायरी में प्रज्ञा शर्मा जी का जो रूप या जो आत्मविश्वास निखर कर आता है उसके पीछे कारण है उत्तर प्रदेश का एक शहर कानपुर जिसके साथ कभी गोपाल दास नीरज जैसे महान कवि का और हसरत मोहानी जैसे बड़े शायर का रिश्ता रहा। उसी कानपुर में आदरणीय बी0 एल0 शर्मा और रमा शर्मा जी की सबसे छोटी पुत्री के रूप में जन्मी प्रज्ञा शर्मा जी ने शायरी को अपनी साँसों में घोल कर अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लिया और इसी शायरी के साथ समय की रवानी उन्हें अपने साथ खींच कर कला की राजधानी मुम्बई ले गयी। अतः हम कह सकते हैं कि प्रज्ञा शर्मा के व्यक्तित्व में जो शायरी है वो कानपुर की देन है और व्यक्तित्व में जो आत्मविश्वास है वो मुम्बई ने प्रदान किया है। ये आत्मविश्वास इस हद तक है कि सिगरट जैसी पुरुषों के उपयोग की चीज बेरोकटोक उनकी शायरी में चली आती है। इस शय को शायरी में ढालना और वो भी इतनी विविधता के साथ, आसान नहीं लेकिन प्रज्ञा जी ने ये काम बख़ूबी किया है। सिगरेट को प्रतीक बना कर उन्होंने इतने ख़ूबसूरत शेर कहे हैं कि सुने बिना आप इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। उनमें से कुछ शेर देखें-

“वफ़ा का इससे ज्यादा सुबूत क्या देती।
मैं राख हो तो गयी उसकी सिगरटों की तरह।।”

“बुझ चुकीं सिगरटों की तरह ख़्वाहिशें।
मेरे माहौल में अब धुआँ भी नहीं।।”

“देख कर सितारों को मुझको तो ये लगता है।
दूर आसमानों में सिगरटें सुलगती हैं।।”

प्रज्ञा शर्मा की शायरी पढ़ कर ये महसूस होता है की उनकी शायरी, परम्परागत ग़ज़लकारों से अलग अपनी एक अलग व अनूठी दुनिया रचती है जहां वे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी शर्तों के साथ रहती हैं किसी की छाया बनकर नहीं।

पंकज अंगार

प्रज्ञा शर्मा की ग़जलों में कुछ तो है कि वे आपसे एक बार में ही परिचित हो जातीं हैं।उनकी ग़जलों में सरल सी बातचीत में जिंदगी के सूत्रों के संदेश पिन्हा हैं।उनकी किताब पर एक रिव्यू यहांं प्रस्तुत है,जिसे पंकज अंगार ने लिखा है।

ब्रज श्रीवास्तव

 

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