इसी सप्ताह सरकार ने अपना पहला मील का पत्थर तय कर लिया. यह घटना लगभग अनदेखी-अनकही सी रह गई. इसकी दो वजहें थीं. एक तो सबसे बड़ा विपक्षी दल इतनी पस्त हालत में था कि वह भला क्या हिसाब-किताब लेता. दूसरी बात यह भी है कि सरकार के महत्वाकांक्षी मंत्री और बड़बोले नेताओं को भी हालात की पथरीली ज़मीन का अहसास हो चला था. सरकार बनने के तुरंत बाद ही जो मंत्री महोदय उद्घाटन-दर-उद्घाटन करते चले जा रहे थे, उनको भी पता चल गया कि घोषणा एक अलग बात है, उनका कार्यान्वयन पूरी तरह अलहदा बात.
सरकार के 100 दिन पूरे हो चुके हैं. ज़ाहिर तौर पर, दोबारा सत्ता में चुने जाने पर उम्मीदें भी दोगुनी होती हैं, बोझ भी दुगुना होता है. यह भी तयशुदा बात है कि पांच सालों के लिए चुनी गई सरकार को उसके शुरुआती 100 दिनों के आधार पर आंकना थोड़ी ज्यादती होगी. सरकारें तो पांच साल के लिए ही चुनी जाती हैं. हालाकि, यह भी सच है कि किसी भी सरकार के शुरुआती 100 दिन ही शासन की लय और उसका रवैया तय करते हैं. इस बार का मामला भी कुछ अलग सा ही था. यूपीए की सरकार दुबारा बनने के बाद ही एक तरह का हाइप उसके चारों तरफ रचा गया. यह प्रचार अभियान तब और पकड़ा गया, जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए सरकार की प्राथमिकताएं गिनाते हुए एक तरह से उसका एजेंडा ही सेट कर दिया था. चार जून को हुए इस संबोधन के बाद मंत्रियों और उनके सिपहसालारों में इस बात की होड़ मच गई कि कौन अपने मंत्रालयों के लिए कितने कार्यक्रम तय करता है, या उसकी घोषणा ही करता है.
इसी सप्ताह सरकार ने अपना पहला मील का पत्थर तय कर लिया. यह घटना लगभग अनदेखी-अनकही सी रह गई. इसकी दो वजहें थीं. एक तो सबसे बड़ा विपक्षी दल इतनी पस्त हालत में था कि वह भला क्या हिसाब-किताब लेता. दूसरी बात यह भी है कि सरकार के महत्वाकांक्षी मंत्री और बड़बोले नेताओं को भी हालात की पथरीली ज़मीन का अहसास हो चला था. सरकार बनने के तुरंत बाद ही जो मंत्री महोदय उद्घाटन-दर-उद्घाटन करते चले जा रहे थे, उनको भी पता चल गया कि घोषणा एक अलग बात है, उनका कार्यान्वयन पूरी तरह अलहदा बात.
यूपीए सरकार को अगर जनादेश मिला है, तो जनता की उम्मीदों का बोझ भी उसे उठाना ही पड़ेगा. आम चुनाव भले ही दूर हों, लेकिन तुरंत ही तीन राज्यों में कांग्रेस और यूपीए को जनता की कसौटी पर खरा उतरना होगा. इसके बाद भी अलग-अलग राज्यों में चुनाव तो होते ही रहेंगे. महंगाई बढ़ रही है, जनता की यह मुख्य चिंता है. घरेलू औरतें समझ नहीं पा रहीं कि वे अपने घर के बजट को कैसे दुरुस्त रखें.
यूपीए को दूसरी बार जनता ने सत्ता की बागडोर सौंपी है, तो उसमें प्रधानमंत्री जी की छवि का भी योगदान है. जनता को आपसे उम्मीदें हैं, प्रधानमंत्री जी! आपके सौ दिनों के एजेंडा पर एकाध बातें तो हमें कहनी ही हैं. सबसे पहले तो यह कि आपकी सरकार का एजेंडा ही स्पष्ट नहीं हो पाया. उसे खोजकर निकालना पड़ा. दूसरे, आपके अधिकतर मंत्रियों ने आपकी सोच के अनुसार प्रदर्शन नहीं किया. अब यह तो तय है कि जनता आपकी ईमानदारी को देखकर ही दुबारा सत्ता की बागडोर आपको सौंपी है. आपके कुछ मंत्रियों ने ठीकठाक प्रदर्शन किया है, तो कई ने आपकी अपेक्षा के मुताबिक काम नहीं किया.
इस संदर्भ में दो-तीन बातें ध्यान देने वाली होंगी. अगर आपके कुछ मंत्रियों ने आशा के अनुकूल प्रदर्शन नहीं किया है, तो फिर उनको बाहर का रास्ता दिखाने का यही सही व़क्त है. आपकी टीम में युवा सांसदों का अकाल नहीं पड़ा है. यह बात अलग है कि राजनीति में युवा 60 वर्ष के होते हैं, फिर भी इस लोकसभा में युवा सांसदों की ठीकठाक संख्या है. उनको मौक़ा देने का यह सही समय हो सकता है. मुझे महात्मा गांधी की एक बात यहां याद आ रही है. उन्होंने कहा था- आप ईमानदार हैं, यही काफी नहीं है. आपकी ईमानदारी का प्रदर्शन भी होना चाहिए. हमारे प्रधानमंत्री के लिए यह बिल्कुल सही कहावत है. उनकी ईमानदारी का प्रमाण जनता को भी मिलना चाहिए.
दूसरी बात, जो हमारी समझ में आती है. वह इन 100 दिनों के एजेंडे को भूल जाने की है. यह तो इतिहास की बात हो गई. इसे कुछ देर के लिए, हम अगर भूल जाते हैं, तो प्रधानमंत्री जी के पास एक और विकल्प है. आप अगले 100 दिनों का एजेंडा तो बता सकते हैं. हमारे देश में समस्याओं की कमी नहीं है. उन पर आपकी सोच और आपके उठाए क़दमों के बारे में जानने के लिए जनता उत्सुक है. नाकारा और नाकाबिल लोगों का बोझ उठाने की सामर्थ्य आपकी सरकार में नहीं है. इसलिए, हमारी सलाह तो यही होगी कि आप नई सोच, नई कल्पना और नए विचार वाले लोगों को आगे बढ़ाएं.
यूपीए सरकार को अगर जनादेश मिला है, तो जनता की उम्मीदों का बोझ भी उसे उठाना ही पड़ेगा. आम चुनाव भले ही दूर हों, लेकिन तुरंत ही तीन राज्यों में कांग्रेस और यूपीए को जनता की कसौटी पर खरा उतरना होगा. इसके बाद भी अलग-अलग राज्यों में चुनाव तो होते ही रहेंगे. महंगाई बढ़ रही है, जनता की यह मुख्य चिंता है. घरेलू औरतें समझ नहीं पा रहीं कि वे अपने घर के बजट को कैसे दुरुस्त रखें. बड़ी बहसों और मसलों की जगह आम जनता के लिए तो रोटी, कपड़ा और मकान की बहस ही सबसे बड़ी है. अंबानी बंधुओं में किस बात को लेकर झगड़ा है, इसे जानने से अधिक जनता को इस बात से मतलब है कि उसे एक गैस सिलेंडर कितने में मिलता है. कई राज्यों में अतिवाद और चरमपंथ सिर उठा रहा है. आतंक की घटनाओं से भी देश की जनता भयभीत है.
कुल मिलाकर, यह कहना होगा कि मनमोहन सिंह जी को जनता के दिमाग को समझने और उसके नब्ज़ को पकड़ने की ज़रूरत है. सबसे अंत में, शर्म-अल-शेख़ जैसी जगहों पर आपसे और भी सावधानी की अपेक्षा है, प्रधानमंत्री महोदय!