प्रभु दा यानी प्रभु जोशी के इस तरह चले जाने की खबर से दिमाग सुन्न हो गया और मन में उनके कई ‘पोट्रेट’ तैरने लगे। लगता रहा कि बस अब प्रभु दा का फोन आएगा और वो मुझे फिर कोई नया सबक या सजेशन देंगे। 34 साल पुराने रिश्ते में उनके कितने ही अलग अलग रंगों और भावों के पोट्रेट भीतर बसे हुए हैं। क्या-क्या लिखूं, कैसे रचूं। समझ नहीं आ रहा..।
प्रभु दा को कहानीकार-चिंतक के रूप में तो मैं पहले से जानता था, लेकिन उनकी बहुआयामी और समंदर की तरह गहरी शख्सियत को मैंने थोड़ा-बहुत तब जाना, जब मैं 1987 में ‘नईदुनिया’ (इंदौर) में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शामिल हुआ। प्रभु दा तब यूं तो आकाशवाणी में अधिकारी थे, लेकिन ‘नईदुनिया’ में मैगजीन के प्रभारी भी थे। अखबार के संयोजन में उनकी बौद्धिक और रचनात्मक आभा पूरी प्रखरता के साथ महसूस होती थी। प्रशिक्षु होने के बाद भी उनका व्यवहार हमारे साथ ‘बड़े भाई’ की तरह हुआ करता था। वो हमे बौद्धिक बहसों के लिए प्रोत्साहित करते और साथ में मार्गदर्शन भी करते थे।
बातों-बातों में दी गई उनकी कई टिप्स मेरी पत्रकारीय यात्रा के पाथेय बन गए हैं। मुझे कई बार लगता था कि प्रभु दा मूलत: चित्रकार ही हैं, कहानीकार, पत्रकार और बौद्धिक बाद में हैं। उनकी बड़ी-बड़ी संवेदनशील गहरी आंखें हर शै में कुछ खोजती-सी लगती थीं। वो आंखें, जो ‘जेनुइन’ प्रतिभा और छद्म प्रतिभा के अंतर को सूक्ष्मता से भांप लेती थीं। शायद यही कारण था कि वो मुझे बार-बार कहते थे अजय, पत्रकारिता करते-करते अपने भीतर का कहानीकार मरने मत देना। इसी आग्रह के तहत उन्होंने ‘नईदुनिया’ के दीपावली विशेषांक के लिए दो कहानियां भी लिखवाईं थी।
लेकिन यह इतना महत्वपूर्ण नहीं था। महत्वपूर्ण था उनका बौद्धिक और कलाचिंतक व्यक्तित्व। उनकी समर्थ भाषा, खरापन और अपनी बात रखने का सशक्त तरीका। प्रभुदा का अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन भी तगड़ा था। हिंदी का तो खैर था ही। वो दोनो की तुलनात्मक स्थिति भी सामने रखते थे। कई बार हिंदी के (अधिकांश) लेखकों की बौद्धिक विपन्नता पर क्षोभ भी व्यक्त करते थे। चूंकि प्रभु दा किसी विशेष खेमे से नहीं बंधे थे और अपने सृजनात्मक मानदंड खुद ही तय करते थे, इसलिए उन्हें वैसा ‘सपोर्ट’ नहीं मिला, जो अमूमन किसी एक झंडे तले खड़े होने से मिलता है, लेकिन उनकी बौद्धिक समझ, तर्क शक्ति, प्राणवान भाषा और जलरंगों पर उनकी पकड़ लासानी है।
पत्रकारीय लेख भी उन्होंने खूब लिखे। ‘सुबह सवेरे’ जब भोपाल से शुरू हुआ तो उसके सितारा लेखकों में प्रभु जोशी भी थे। पिछले साल उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किसानों और खेती पर भी लिखना चाहिए, क्योंकि यह देश की अर्थ व्यवस्था, समाज और संस्कृति का अहम हिस्सा है। जब मैंने किसान आंदोलन पर लिखा तो उन्होंने कहा कि हमे कारपोरेट और पूंजीवादी षड्यंत्र को पूरी ताकत से उजागर करना चाहिए। हर विषय पर लिख सकने की क्षमता ही संपूर्ण पत्रकारिता है।
प्रभु दा से बात करते समय एक बात हमेशा महसूस होती थी कि वो वैचारिक अतिवाद से मुक्त थे। उनका जोर इसी बात पर रहता था कि चीजों को सम्यक और वस्तुनिष्ठ दृष्टि से देखें फिर निष्कर्ष निकालें।
मनुष्य और मनुष्यता, व्यक्ति स्वतंत्रता, लोकतंत्र उनके चिंतन के केन्द्र में दिखता था। अलबत्ता दरबारवाद से उन्हें चिढ़ थी। इसका उन्हें कुछ नुकसान भी उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। प्रभु दा की एक टिप मुझे हमेशा याद रहेगी। एक चर्चा के दौरान मूर्धन्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर को कोट करते हुए प्रभु दा ने कहा था कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम किस विषय पर क्या लिख रहे हैं, महत्वपूर्ण यह भी है कि हम घटना को किस कोण से देख और समझ रहे हैं। कहने का आशय यह कि आपकी दृष्टि का कोण आपके लेखन की विश्वसनीयता को स्थापित करता है।
प्रभु दा की खूबी यह थी कि जिस विषय में हाथ डालते थे, उसकी गहराई तक जाते थे। लिहाजा उनकी प्रतिभा का दायरा किसी एक माध्यम तक सीमित नहीं था। उन्होंने आकाशवाणी में रहकर भी कई यादगार कार्यक्रम तैयार किए।
आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों के लिए राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। मप्र संस्कृति विभाग ने उन्हें ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप’ प्रदान की थी। वो यशस्वी कथाकार तो थे ही, कला, संस्कृति, समाज, साहित्य जैसे अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण लेख लिखे। प्रभु दा मूलत: ग्रामीण परिवेश से आए थे, लिहाजा उसकी सुगंध भी उनके लेखन में साफ महसूस होती है। हिंदी की तरह मालवी में भी वो पूरी ताकत से लिखते थे। हालांकि पिछले काफी समय से उन्होंने कहानियां लिखना बंद कर चित्रकारी पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया था। जल रंगों में उनके लैंडस्केप अद्भुत हैं। चित्रकारी में उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।
लेकिन उनकी मास्टरी पोट्रेट में थी। प्रभुदा के बनाए कई पोट्रेट तो इतने जीवंत हैं कि शब्दों में उनका वर्णन कठिन है। रंगों में भी पीला, हरा और गुलाबी उनका प्रिय रंग था। उनके जलरंग चित्र ‘गैलरी फाॅर कैलिफोर्निया’ के लिए उन्हें अमेरिका में थामस मोरान अवाॅर्ड प्रदान किया गया था। प्रभु दा अक्सर कहते थे- अजय मास्टर आर्टिस्ट वो होता है, जो ‘सेल्फ पोट्रेट’ ( स्वयं का व्यक्ति चित्र) बनाने में माहिर हो।
पिछले साल जब मेरे पत्रकारीय आलेखों की पहली किताब आई तो उसके पीछे प्रभुदा का ही दबाव था। कहते थे- अजय अच्छा लिखना ही पर्याप्त नहीं है। उनका किताब रूप में आना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह घटित होते इतिहास का आईना होता है। जब मैंने उनसे किताब की प्रस्तावना लिखने का आग्रह किया तो उन्होंने तुरंत हामी भर दी। प्रभु दा ने जो लिखा, उसकी भाषा देखिए- ‘अजय के लिखे में देश और काल बोलता है। उसकी एक आंख पीठ में है, जो ‘पास्टनेस आॅफ पास्ट’ को देखती है और सामने की सचाई को अपनी ही आंखों से नहीं बल्कि’जन’ की आंखों से देखती है। इसलिए अजय के लिखे में विगत की समझ, आगत को पढ़ने की दृष्टि के साथ, वर्तमान की आविष्कृत प्रविधियां भी हैं।
मुझे पूरी उम्मीद है कि अजय किसी अन्य दौड़ में शामिल होने की आसक्तियों की तरफ पीठ फेरकर, बहुत धैर्य से अपने लंबे समय से अर्जित विवेक के अपना रथ अपने ढंग से हांकता रहेगा।‘ प्रभु दा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व सहज और अहंकार से परे था। उनसे कभी भी और किसी भी विषय पर बात की जा सकती थी। वो तारीफ भी करते थे तो उसका अपना एक अंदाज था। असहमति भी खुलकर जताते थे। करीब एक माह पहले उनसे फोन पर लंबी बात हुई। इस दौरान एक वाक्य उन्होने कई बार दोहराया। बोले-अजय मेरे साथ कई लोगों ने काम किया।
लेकिन तुम निरंतर लिख रहे हो, अच्छा लिख रहे हो, यह मेरे लिए गर्व की बात है। तब मुझे समझ नहीं आया था कि प्रभुदा ऐसा बार-बार क्यों कह रहे हैं। शायद कोई आंतरिक उद्वेग उनसे कहला रहा था, क्योंकि प्रभुदा से ऐसी तारीफ की अपेक्षा मुझे कभी नहीं थी। वो मेरे लिए ‘फ्रेंड’ से ज्यादा फिलासफर और गाइड’ थे। दूसरों की अच्छाइयां चीन्हने और उसे स्वीकार करने का संस्कार देने में प्रभुदा का बड़ा हाथ था। यह विचित्र संयोग ही कहें कि प्रभुदा की फेसबुक पर ( संभवत) आखिरी पोस्ट 24 अप्रैल की है। जिसमें उन्होंने जाने-माने लेखक रमेश उपाध्याय के निधन पर लिखा था-
‘आज रमेश उपाध्याय के न रहने के सच को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ। जैसे कोई धमकी देकर , मुझे बाध्य कर रहा है। लेकिन कैसे करूं, अभी तो उनकी आवाज़ की अनुगूँज भी कान के पर्दे पर डोल रही है।
वे लगातार संपर्क में थे। मेरे लिखे पर टिप्पणी भी करते थे। प्रशंसा में…! ( उनके विशेष आग्रह पर) मैंने एक माह के भीतर ही पोरट्रेट तैयार कर के तुरंत फ्रेम करवाया और भिजवा दिया। उनकी दोनों चिड़ियाएं भी देख कर चहक उठीं।
संज्ञा ( बेटी) ने उनको मेरे बनाए पोट्रेट पोरट्रेट के साथ खड़ा कर के,एक तस्वीर निकाली।।बहुत खुश हुए थे। मेरा वही पारिश्रमिक था। आज उनकी उसी तस्वीर को यहां शेयर कर के, गीली आंख से मेरी ओर से नमन…।‘
उन्हीं प्रभु दा को आज गीली आंखों से मुझे नमन करने की नौबत आ जाएगी, सपने में भी न सोचा था।
प्रभुदा के जाने से हिंदी साहित्य, कला जगत और पत्रकारिता की दुनिया सूनी हो गई है। उनका जाना सही अर्थों में एक ‘जीनियस’ का जाना है। निरंतर काम करते रहना ही प्रभुदा की पहचान थी। अभी भी वो लगातार जलरंगों से चित्र बना रहे थे। कोई उपन्यास भी लिख रहे थे। बरसों पहले इंदौर में मेरे विवाह समारोह में प्रभुदा ने मुझे अपनी कहानियों की किताब ‘ प्रभु जोशी की लंबी कहानियां’ भेंट की थी। उसके फ्लै्प पर उद्धृत अमेरिकी कवि कीनेथ रेक्झाॅर्थ की ये कविता-
संसार के विनाश के विरूद्ध
सिर्फ एक ही उत्तर और
वह है, मात्र सृजन !
प्रभु दा के लिए ‘श्रद्धांजलि’ जैसा शब्द नाकाफी है।