नई दिल्ली (ब्यूरो, चौथी दुनिया)। उत्तर प्रदेश चुनाव से संबंधित एक कहावत है, कहा जाता है कि जिसने पूर्वांचल में धाक जमा ली वो लखनऊ की सत्ता पर काबिज हो जाएगा। इसिलिए राहुल-अखिलेश, मोदी और मायावती सबकी रणनीति में पूर्वांचल को एक खास जगह दी गई है। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तौर पर इतने महत्वपूर्ण हिस्से के अंतर्गत आने के बाद भी ये हिस्सा काफी पिछड़ा माना जाता है। आईए आपकों समझाते हैं कि पूर्वाचल की सियासी गुणा गणित कैसी है। कैसा रहा है पिछले चुनावों का इतिहास।
कितना बड़ा पूर्वांचल ?
उत्तर में नेपाल, पूरब में बिहार, दक्षिण में मध्य प्रदेश और दिल्ली एनसीआऱ से सटा हुआ उत्तर प्रदेश का वो हिस्सा, जो पिछले कई सालों से बदहाली के आंसू बहा रहा है। राजनीति का केंद्र होने के बावजूद प्रदेश में अनदेखी का शिकार काफी लंबे वक्त से रहा है। पूर्वांचल में कुल 28 जिले हैं, जिसके अंतर्गत 170 सीटें आती हैं। यहां हर राजनीतिक पार्टी का अपना-अपना गढ़ है। शायद यहीं वजह है कि ये इलाका अब तक संपन्नता के रास्ते पर नहीं आ पाया है।
पिछले चुनाव में किसका रहा था दबदबा
साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी नंबर वन रही थी। यहां सपा को 106 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन इन ज्यादातर सीटों पर बसपा नंबर 2 पर रही थी। इसलिए ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि सपा के आगे बसपा इस इलाके में कमजोर हैं। हालांकि 2012 के चुनावों में बसपा की झोली में 23 सीटें मिली थी बावजूद इसके बसपा इस क्षेत्र में कमजोर तो नहीं है।
बीजेपी 2012 में बीजेपी को 17 सीटों पर जीत मिली थी तो 11 निर्दलीय उम्मीदवार भी जीते थे। अब इन विधानसभा चुनावों के बाद 2014 में लोकसभा चुनाव हुए थे जिसमे मोदी लहर का अच्छा खासा असर यूपी के इसी हिस्से में देखने को मिला था। इसलिए बीजेपी का भी अच्छा प्रभाव बन चुका है। अखिलेश के सामने चुनौती है कि कांग्रेस के साथ रहते हुए उसे अपनी पुरानी सीटों पर जीत बरकरार रखनी होगी साथ ही मायावती और मोदी को हराना भी होगा।
तो वहीं बीजेपी लोकसभा चुनाव में बनी लहर को दोबारा जगाने की कोशिश में जुटी हुई है। बसपा जानती है कि जिन सीटों पर मायावती नंबर दो रहीं थी। उन्हे नंबर एक पर कैसे लाना है। इन्ही सारी गुणा गणितों के बीच उत्तर प्रदेश के चुनावों का केंद्र बन चुका है पूर्वांचल।