बिहार में मिशन 2019 को लेकर राजनीतिक दलों की आम तैयारी यहीं आकर सिमट गई है. जातिगत जुगत भिड़ाने की इस राजनीतिक भेड़-चाल में सूबे की आम समस्याएं खोती जा रही हैं. यह पता ही नहीं चल रहा है कि एनडीए का मुद्दा कांग्रेस-मुक्त भारत के साथ-साथ लालू-मुक्त बिहार से अलग भी कुछ होने जा रहा है. बिहार को विशेष राज्य के दर्जे पर निरंतर आंदोलन का दावा करनेवाले नीतीश कुमार और उनके जद(यू) से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यह आंदोलन किस भीड़ का हिस्सा बन कर वादों-दावों के जंगल में खो गया. यह सवाल भी बनता है कि इस मसले पर केन्द्र की बेरुखी का उनके पास क्या काट है. भाजपा से यह सवाल तो बनता ही है कि बिहार को घोषित 1.65 लाख करोड़ रुपए से अधिक के विशेष पैकेज में अब तक कितना मिला और क्या सब काम हुआ?

rajnathराजनीति और राजनेता के लिए कोई भी अवसर वोट-निरपेक्ष नहीं होता. वे सार्वजनिक तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं करते, जिससे उनके हित में वोट की गोलबंदी में कोई परेशानी हो. इस वोट-सापेक्ष राजनीति ने वोटरों को जाति और उप-जाति के कुनबों में तो बांटा ही है, हमारे स्वाधीनता संग्राम के नायकों की भी जातिगत पहचान देने की खुली और कुत्सित कोशिश की है. दुर्भाग्य से उसमें वे कामयाब भी होते रहे हैं. पिछले कई दशकों से बिहार सहित हिन्दी पट्टी की राजनीति में यह प्रवृत्ति खूब फल-फूल रही है.

बाबू कुंवर सिंह का भी ऐसा ही उपयोग कोई ढाई दशक पहले बिहार के कुछ राजनेताओं ने आरंभ किया तो वह अब सर्वदलीय-सर्वपक्षीय हो गया. इस साल 23 अप्रैल को बाबू कुंवर सिंह का 160वां विजय दिवस था और इस अवसर को बिहार सरकार ही नहीं, राजनीतिक दलों ने भी खूब ताम-झाम से मनाया. उत्सव का सिलसिला ऐसा रहा कि विजयोत्सव (विजय दिवस के अवसर को दशकों पहले यही नाम दिया गया है) के सारे रिकॉर्ड धूमिल हो गए.

यह मिशन 2019 का हिस्सा है

विजयोत्सव के अवसर पर बिहार सरकार की ओर से पटना से लेकर जगदीशपुर तक तीन दिनों के समारोह किए गए. जगदीशपुर के राजकीय समारोह के कार्यक्रम अपनी भव्यता व विविधता को लेकर अभूतपूर्व रहे. इस समारोह के मुख्यनायक- जैसा कि हर अवसर पर होता है- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहे. उनकी देखरेख में ही सारा कुछ हुआ, तो श्रेय भी उनके खाते में ही जाना था, गया. फिर, राजग के अन्य घटक कैसे खामोश रहते! सो भाजपा ने भी अपनी तरफ से आयोजन किए.

उसके समारोह में केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह खुद मौजूद रहे. भाजपा के कुछ नेताओं ने भी अपने तईं आयोजन किए. फिर, बिहार एनडीए के तीसरे घटक लोजपा ने भी लगे हाथ समारोह आयोजित कर अवसर का लाभ हासिल करने की भरपूर कोशिश की. सुप्रीमो लालू प्रसाद (जिन्होंने अपने प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल में राजकीय स्तर पर विजयोत्सव मनाने की शुरुआत की थी) की अनुपस्थिति में राजद ने भी इसका आयोजन किया. लब्बोलुबाब यह कि कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता था और रहा भी नहीं. इसके पहले विजयोत्सव कभी ऐसे व्यापक स्तर पर नहीं मनाया गया था. यह अनायास नहीं है. यह मिशन 2019 का हिस्सा है- कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना.

इस अभियान में बिहार की सत्ता राजनीति के दोनों धड़े-सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन व विपक्षी महागठबंधन-लगे रहे. तो क्या कुंवर सिंह के बहाने अगड़े बिहारी वोटर के विशेष आक्रामक समूह को आकर्षित-अपने साथ गोलबंद-करने की कोशिश की गई है? लगता तो कुछ ऐसा ही है. बिहार की राजनीति में हाल के समय में कुछ खास बदलाव दिखने लगे हैं. पिछली शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में राजनीति की सामाजिक भागीदारी व सरोकार में तात्विक बदलाव आए, पर 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के वीपी सिंह सरकार के फैसले ने इसके पूरे सामाजिक स्वरूप को बदल दिया.

हिन्दी पट्टी के अन्य राज्यों की तरह बिहार में राजनीति पिछड़ावाद के साथ चलने लगी और आरंभिक वर्षों में लालू प्रसाद इसके निर्विकल्प नायक हो गए. उस दौर-अर्थात्‌ मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के साथ बने उत्कट पिछड़ा उभार- में प्रत्यक्ष व परोक्ष तौर पर सभी राजनीतिक दलों का पूरा अभियान पिछड़ा केन्द्रित होता रहा है. यह राजनीतिक स्थिति अब भी बनी है. राजद और जद(यू) की राजनीति में यह तत्व प्रत्यक्ष है, तो कांग्रेस व भाजपा में परोक्ष.

लेकिन ये दोनों दल भी अपने अभियान को उन चिंताओं से अलग रखते हैं, जो सूबे के व्यापक पिछड़े सामाजिक समूहों को थोड़ा भी आहत करे. पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में बिहार में जातीय सम्मेलनों का खूब बोलबाला रहा. राजधानी पटना से लेकर सुदूर ग्रामांचल तक ऐसे सम्मेलन होते थे और इसमें तत्कालीन जनता दल (इसमें विभाजन के बाद राजद) के नेता भाग लेते, लालू प्रसाद की तरफ से आश्वासनों की झड़ी लगाते. यह काम लालू प्रसाद ही नहीं करते, कमोवेश अधिकांश राजनीतिक दलों की चिंता में ऐसे आयोजन थे. ऐसे में दलितों की चिंता तो कम होती ही गई, अगड़े मतदाता समूहों की चिंता (सरोकार) भी सूबाई राजनीति की मुख्यधारा से बाहर चली गई. दलितों को भगवान भरोसे छोड़ने की प्रवृत्ति राजनीतिक दलों का चरित्र बनता चला गया. पिछड़े वर्ग की राजनीति में भी कुछ खास व दबंग सामाजिक समूहों का वर्चस्व निरंतर बढ़ता चला गया, जबकि अतिपिछड़े सामाजिक समूहों की उपेक्षा बढ़ती चली गई.

फैसले का राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार उठा ले गए

बिहार में एनडीए-1 की सरकार के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस राजनीति के कारण जमीन के नीचे लहक रही आग के ताप को महसूस किया और पकती हुई जमीन पर पानी के छींटे डालकर इसे अपने लिए काम के लायक बनाने की भरपूर कोशिश की. उन्होंने पिछड़े वर्ग और दलित की राजनीति में बदलाव कर अपना वोट बैंक तैयार करने की सार्थक कोशिश की. नीतीश कुमार ने दो काम किए. पहला, पिछड़े वर्ग के राजनीतिक-शासकीय लाभों को पर्याप्त परिमाण में अतिपिछड़े सामाजिक समूहों को तक पहुंचाने के लिए इनके लिए अलग से आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था की.

इसके साथ ही दलितों के चार सामाजिक समूहों से बाकी दलितों को महादलित की श्रेणी तैयार की, उनके लिए भी कई काम किए-आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था की. हालांकि राजनीतिक सुविधा के कारण अब सभी दलित महादलित हो गए हैं. दूसरा, महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत के आरक्षण का लाभ इन सामाजिक समूहों की महिलाओं को भी दिया गया. एनडीए-1 के ये फैसले तो सरकार के थे, पर राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार उठा ले गए. इन और ऐसे फैसलों का कोई राजनीतिक लाभ हासिल करने में राजनीतिक दल के तौर पर भाजपा विफल रही.

यह चुनावों में साफ होता चला गया. भाजपा का मूल सामाजिक समर्थक समूह अगड़ी जातियां ही रहीं. हालांकि 2014 के संसदीय चुनावों में मोदी लहर में नीतीश कुमार की यह राजनीति गंभीर रूप से मात खा गई. इसी तरह 2015 के विधानसभा चुनावों में यह स्पष्ट हो गया कि एनडीए-1 के दौरान अतिपिछड़ों व महादलित के सशक्तिकरण को लेकर सरकार के फैसले का राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार को ही मिला, भाजपा के हाथ कुछ नहीं लगा. फिर भी अघोषित रूप से वह पिछड़ावाद की राजनीति को ही आगे बढ़ाती रही.

सूबे में विभिन्न चुनावों के लिए उम्मीदवारों के चयन में उसकी यह प्रवृत्ति स्पष्ट होती रही है. पिछले कई वर्षों से सूबे के अगड़े सामाजिक समूहों में इसे लेकर असंतोष था. यह असंतोष आंतरिक सम्मेलनों में जाहिर तो होता था, पर सार्वजनिक मंचों पर इसकी चर्चा से लोग परहेज करते. यह कहना तो पूरी तरह सही नहीं होगा कि हाल के कुछ घटना-चक्र ने राजनीति में ऐसे बदलाव के संकेत दिए हैं, पर उसने पार्टियों के भाग्यविधाताओं के कान जरूर खड़े कर दिए हैं, विभिन्न परस्पर-विरोधी दलों को इस मोर्चे पर सक्रिय कर दिया है.

उत्कट और आक्रामक अगड़ा विरोधी के तौर पर चिहि्‌नत राजद ने राज्यसभा की उम्मीदवारी मनोज झा को दे दी. महागठबंधन की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस ने राज्यसभा के लिए अखिलेश प्रसाद सिंह को उम्मीदवारी दी. इसी पार्टी ने विधान परिषद में प्रेमचंद्र मिश्र को भेजा. हालांकि जद(यू) ने राज्यसभा के लिए वशिष्ठ नारायण सिंह व महेंन्द्र प्रसाद (किंग महेन्द्र) को उम्मीदवारी दी. आक्रामक अखिलेश के सामने किंग महेन्द्र की अपने सामाजिक समूह (भूमिहार) में क्या राजनीतिक वक़त है, यह बताने की जरूरत नहीं है.

इसी तरह वशिष्ठ नारायण सिंह राजपूत समुदाय में बड़े ही आदरणीय हैं, पर समाज का नेतृत्व उनके पास नहीं है. उनकी छवि आक्रामक सामाजिक नेता की नहीं है. जद(यू) में ऐसे किसी नेता का सर्वथा अभाव है और यदि ऐसे नेता हैं तो नेतृत्व को वे रास नहीं आ रहे हैं. इस लिहाज से राजद आगे है. इसी तरह मैथिल ब्राह्मण का राजद कोटे से राज्यसभा जाना भी राजनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण माना गया. प्रेमचंद्र मिश्र की उम्मीदवारी को भी सकारात्मक होकर ही मैथिल ब्राह्मण समाज में लिया गया. इन चयनों का राजनीतिक लाभ महागठबंधन को क्या मिलेगा, यह कहना कठिन है. मिलेगा भी नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता है.

इसने सूबे की राजनीति की सामाजिक संरचना में विमर्श का नया आयाम तो दिया ही है- महागठबंधन भी अगड़े सामाजिक समूहों के बारे में सोच सकता है. लगता है, इसने एनडीए के घटक दलों में कुछ हद तक घंटी बजाई है. बाबू कुंवर सिंह के विजय दिवस को ही एकमात्र उदाहरण न माना जाए, जिस आनन-फानन में वरिष्ठ आईएएस शिशिर सिन्हा को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति देकर बिहार लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया जा रहा है, वह भी कांग्रेस के कदम को निष्प्रभावी बनाने की ही कोशिश है. शिशिर सिन्हा और अखिलेश प्रसाद सिंह एक ही सामाजिक समूह से आते हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्वकारी ताकत होने के बावजूद सूबे में एनडीए में भाजपा की हैसियत छोटे भाई की है. इसके साथ यह भी सही है कि अगड़ों के विभिन्न सामाजिक समूहों का अब तक पहली पसंद भाजपा ही है. पर, भाजपा में अगड़ों को लेकर यह राजनीतिक आकर्षण सबसे कम दिख रही है. हालांकि बाबू कुंवर सिंह का विजयोत्सव इसने भी धूमधाम से मनाया, पर इसके अलावा उसकी अन्यथा कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं दिख रही है. लेकिन यह मान लेना भूल होगी कि पार्टी के रणनीतिकार कोई कार्यक्रम नहीं तैयार कर रहे हैं. वैसे, यह सही है कि वह फिलहाल दलित समुदाय को लेकर   अधिक चिंतित है और इस मसले पर अपने कुछ सहयोगियों के ब्लैकमेल को भी झेल रही है.

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा कब तक

बिहार में मिशन 2019 को लेकर राजनीतिक दलों की आम तैयारी यहीं आकर सिमट गई है. जातिगत जुगत भिड़ाने की इस राजनीतिक भेड़-चाल में सूबे की आम समस्याएं खोती जा रही हैं. यह पता ही नहीं चल रहा है कि एनडीए का मुद्दा कांग्रेस-मुक्त भारत के साथ-साथ लालू-मुक्त बिहार से अलग भी कुछ होने जा रहा है. बिहार को विशेष राज्य के दर्जे पर निरंतर आंदोलन का दावा करनेवाले नीतीश कुमार और उनके जद(यू) से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यह आंदोलन किस भीड़ का हिस्सा बन कर वादों-दावों के जंगल में खो गया. यह सवाल भी बनता है कि इस मसले पर केन्द्र की बेरुखी का उनके पास क्या काट है.

भाजपा से यह सवाल तो बनता ही है कि बिहार को घोषित 1.65 लाख करोड़ रुपए से अधिक के   विशेष पैकेज में अब तक कितना मिला और क्या सब काम हुआ? बिहार को जंगलराज का तमगा देनेवाली इस पार्टी से यह सवाल भी बनता है कि उसके सत्ता में बैठे रहने के बावजूद यहां अपराध का ग्राफ कैसे बढ़ता जा रहा है? सवाल तो प्रतिपक्षी राजद से भी वैसे ही हैं, आखिर वह किन मुद्दों को लेकर बिहार के मतदाताओ से रू-ब-रू होगा. उसके पास लालू प्रसाद को सज़ा व मुस्लिम-यादव (और अब दलित) समीकरण के अलावा भी कुछ है या नहीं? पर अभी कुछ प्रतीक्षा कीजिए, फिर जातीय समीकरणों को दरकिनार कर सुलगते सवालों का पिटारा खुलेगा.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here