चम्पारण सत्याग्रह को सौ वर्ष पूरे हो गए हैं. 10 अप्रैल 1917 को पहली बार मोहनदास करमचंद गांधी बिहार की राजधानी पटना पहुंचे थे और मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल को चम्पारण आए थे. मकसद था निलही कोठियों, सामंतों और अंग्रेजों के अत्याचार से कराहते किसानों-मजदूरों की दयनीय स्थिति को देखना और इससे निजात दिलाना. गांधी जी ने किसानों-मजदूरों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में पहली बार सत्याग्रह का शंखनाद किया था. चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने पर स्मृति समारोह मनाया जा रहा है, जो पूरे वर्ष चलेगा. राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की ओर से अलग-अलग कार्यक्रम किए जा रहे हैं.
इन समारोहों पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं. गांधी और गांधीवाद की मार्केटिंग कर सभी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं, लेकिन चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने के बाद भी अगर चम्पारण में ही मजदूर-किसान को आत्मदाह करना पड़ रहा है तो यह निश्चय ही दुखद और शर्मनाक है. 10 अप्रैल को जिस दिन गांधी जी पटना पहुंचे थे, एक सौ वर्ष बाद ठीक उसी दिन मोतिहारी चीनी मिल के दो मजदूर सत्याग्रहियों ने आत्मदाह का प्रयास किया. इस घटना ने एकबारगी सभी को झकझोर दिया है कि क्या सत्याग्रह के एक सदी बाद भी मजदूर-किसानों की स्थिति और बदतर हुई है.
किसान-मज़दूरों की स्थिति से द्रवित होकर गांधी ने किया था सत्याग्रह
चम्पारण में नीलहे साहबों का अत्याचार 1757 से ही बदस्तूर जारी था, जिसका अंत 1917 के चम्पारण सत्याग्रह के बाद हुआ. तब किसान दो पाटों के बीच पीस रहे थे. एक तो सामंती व्यवस्था और दूसरे नीलही कोठियों के अत्याचार से किसान त्राहिमाम कर रहे थे. तीन कठिया प्रणाली के कारण छोटे किसान खेतिहर मजदूर बन गए थे.
1900 ई. के बाद नीलही कोठियों को नील के व्यापार में घाटा होने लगा था, क्योंकि जर्मनी के कृत्रिम नील रंग के कारण भारत के नील की मांग घट गई थी. इसके बाद जमीन के रैयतों से लगान के अतिरिक्त 46 प्रकार के टैक्स जबरन वसूले जाने लगे. हुण्डा, हरजाना, शहरवेशी, पैन खर्च, बैटमाफी, हलबन्दी, सलामी तीन कठिया लगान, बांध बेहरी, वपही-प्रतही, मडवन, सगही, कोल्हुआवा, चुल्हिया सहित 46 प्रकार के टैक्स के कारण रैयतों की स्थिति दयनीय हो गई थी. घर में चूल्हा बनाने से लेकर पर्व त्योहारों पर भी टैक्स वसूले जाने लगे.
किसान अपनी मर्जी से खेती भी नहीं कर सकता था. रैयत कहने को किसान थे, लेकिन उनकी स्थिति गुलामों से भी बुरी थी. तब मोतिहारी सबडिविजन में ही केवल 33 और बेतिया में 28 नीलही कोठियां थीं. चम्पारण के किसानों की दुर्दशा किसान राजकुमार शुक्ल और बाबू लोमराज सिंह ने गांधी जी को सुनाई और चम्पारण आने का न्योता दिया.
गांधी जी 16 अप्रैल को किसानों की स्थिति का जायजा लेने मोतिहारी से जसौली पट्टी जा रहे थे कि तभी रास्ते में चन्द्रहिया में अंग्रेज कलक्टर हेकॉक ने नोटिस देकर जिला छोड़ने का फरमान जारी कर दिया. 18 अप्रैल को उनकी पेशी हुई और गांधी जी ने सत्याग्रह का शंखनाद किया. सत्य और अहिंसा के शस्त्र का प्रभाव हुआ. अंग्रेज सरकार ने तीन कठिया प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया और गैर कानूनी ढंग से वसूले जाने वाले सभी टैक्स को वापस करने का फरमान सुनाया.
किसानों-मज़दूरों की दशा आज भी बदतर
गौर करने वाली बात यह है कि सत्याग्रह शताब्दी वर्ष पर करोड़ों रुपए खर्च कर गांधीवाद के नाम पर अपनी ब्रांडिंग करने वाले केंद्र और राज्य सरकार के नेताओं ने गांधी के सत्याग्रह के मूल भाव को ही नजरअंदाज कर दिया है. अपने वेतन के बकाये लगभग 60 करोड़ रुपए के भुगतान, किसानों के गन्ने का बकाया लगभग 70 करोड़ और चीनी मिल खोलने के लिए एक दशक से सत्याग्रह कर रहे किसान-मजदूरों की आवाज केंद्र और राज्य सरकार के नुमाइंदों तक नहीं पहुंच सकी. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर सांसद, मंत्री, विधायक, जिलाधिकारी तक अपनी मांगों को बुलंद करने वाले सत्याग्रही मिल-मजदूरों और किसानों के सब्र का बांध टूट गया और आत्मदाह जैसी घटना सामने आई, लेकिन सवाल ये है कि इसके जिम्मेवार कौन हैं?
किसानों-मजदूरों पर अत्याचार बदस्तूर जारी है. 10 अप्रैल को मोतिहारी के हनुमान शुगर मिल के दो मजदूर नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा का आत्मदाह भी इसी गठजोड़ का नतीजा है. 2002 से बन्द चीनी मिलों के किसान-मजदूर अपने बकाये और वेतन की मांग को लेकर लड़ रहे हैं. आत्मदाह की घटना कोई अप्रत्याशित नहीं थी. लंबे समय से आन्दोलन चल रहा था. विगत वर्ष मुख्यमंत्री चम्पारण दौरे के समय मजदूरों से चीनी मिल गेट पर जाकर मिले थे और समस्या सुलझाने का आश्वासन भी दिया था.
स्थानीय सांसद राधामोहन सिंह देश के कृषि और किसान कल्याण मंत्री भी हैं. उनसे भी मजदूरों ने कई बार अपनी फरियाद सुनाई. यहां तक कि लोकसभा चुनाव के दौरान चुनावी सभा से नरेन्द्र मोदी ने भी घोषणा करते हुए कहा था कि अगर चुनाव जीता तो अगली बार इसी शुगर मिल की चीनी की चाय पिउंगा. केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी, पर कुछ नहीं हुआ. इस गठजोड़ के कारण ही किसानों-मजदूरों का हक मारने वाले चीनी मिल मालिकों ने बैंकों को भी करोड़ों रुपए की चपत लगाई. एक ही मिल पर अलग-अलग नाम से उत्तर बिहार ग्रामीण बैंक सहित तीन बैंकों से करोड़ों रुपए का कर्ज उठा लिया.
आश्चर्यजनक बात तो यह है कि मजदूरों की मौत के बाद केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधामोहन सिंह, केन्द्रीय रसायन उर्वरक एवं संसदीय कार्य मंत्री अनन्त कुमार, कौशल विकास मंत्रालय के राज्यमंत्री राजीव प्रताप रूढ़ी सहित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी स्मृति समारोह में भाग लेने आ चुके हैं, लेकिन किसी ने चीनी मिल की घटना पर एक शब्द भी बोलना मुनासिब नहीं समझा.
लेकिन किसानों का शुभचिंतक बनने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह चुनावी वादा याद दिलाना नहीं भूले कि उन्होंने किसानों को उत्पादन खर्च पर 50 फीसदी लाभ जोड़ कर अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की घोषणा की थी. केंद्र सरकार की ओर से केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधामोहन सिंह के नेतृत्व में सत्याग्रह शताब्दी वर्ष समारोह का आयोजन हुआ. यह समारोह 13 से 19 अप्रैल तक मोतिहारी के जिला स्कूल मैदान में आयोजित हुआ. इस मौके पर किसान कुंभ मेला, रोजगार मेला का आयोजन किया गया. कई मोतीझील की सफाई कराने, प्लास्टिक इंजीनियिंरंग संस्थान खोलने सहित बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गईं, परन्तु चीनी मिल प्रकरण अछूता ही रहा.
मज़दूरों की मौत पर राजनीति
मजदूरों की मौत पर सियासी पारा गरम है. भाजपाइयों ने राज्य सरकार के विरोध में धरना-प्रदर्शन और मुख्यमंत्री का पुतला दहन किया तो महागठबंधन के लोगों ने केन्द्र का विरोध करते हुए धरना दिया. स्थानीय विधायक प्रमोद कुमार, जो कभी मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने का दावा करते रहे हैं, ने पूरे प्रकरण से पल्ला झाड़ लिया और मजदूरों के बकाया भुगतान नहीं कराने में राज्य सरकार को जिम्मेदार बता दिया.
उन्होंने कहा कि केन कंट्रोल एक्ट के तहत चीनी मिल चालू कराने के लिए अधिग्रहण का अधिकार राज्य सरकार को है, जबकि जदयू और भाजपा की साझा सरकार के समय भी यह मुद्दा ज्वलंत था और तब भी प्रमोद कुमार विधायक थे. हालांकि चुनाव के दौरान सभी पार्टियां चीनी मिल को मुद्दा बनाती रही हैं. वहीं राजद के जिलाध्यक्ष सुरेश यादव के नेतृत्व में प्रदर्शन किया गया और केंद्र सरकार के विरुद्ध नारेबाजी की गई.
प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री का पुतला दहन किया गया. राजद के लोकसभा प्रत्याशी विनोद श्रीवास्तव ने कहा कि केंद्र सरकार ने कभी मिल खुलवाने की कोशिश ही नहीं की. उन्होंने कृषि मंत्री को हटाने की मांग की. उधर कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने भी इस घटना का जिम्मेवार राज्य सरकार को बताया. राजनीति गरमाती रही, लेकिन किसी ने भी मृतक नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा के परिजनों के िइश कुछ भी नहीं किया. 10 अप्रैल को आत्मदाह के प्रयास के बाद 12 की अहले सुबह नरेश श्रीवास्तव की मौत हो गई थी, वहीं दूसरे घायल सूरज बैठा की मौत 19 अप्रैल को हो गई.
जितनी पार्टी, उतने गांधी
सत्याग्रह शताब्दी समारोह मनाने वालों ने न केवल सत्याग्रह के कारणों और मूल तत्वों को ही भुला दिया, बल्कि गांधी को भी टुकड़ों में बांट कर अपमानित किया. सत्याग्रह के इतिहास को नाटकीय रूप देकर युवा वर्ग को सत्याग्रह का पाठ पढ़ाने के प्रयास में केंद्र और राज्य के समारोहों में अलग-अलग गांधी देखे गए. मुजफ्फरपुर में भी गांधी जी के क्रियाकलापों को नाट्य रूप में प्रस्तुत किया गया. 15 अप्रैल को गांधी जी को रेलगाड़ी से मोतिहारी आना था, लेकिन मुजफ्फरपुर के गांधी जी को राज्य सरकार का गांधी मानकर ट्रेन में चढ़ने भी नहीं दिया गया.
वे काठियावाड़ी वेश में थे, लेकिन भाजपा के गांधी धोती में गांधी के प्रचलित वेश में ट्रेन से मोतिहारी पहुंचे. इतना ही नहीं, मुजफ्फरपुर स्टेशन पर जदयू के गांधी के साथ दुर्व्यवहार भी किया गया और उन्हें अपनी पगड़ी उतार कर खुद को छुपाने की कोशिश करनी पड़ी.
चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष स्मृति समारोह को लेकर निश्चय ही चम्पारण के लोगों में काफी उत्साह था, लेकिन राज्य और केंद्र के नेताओं के आपसी वैमनस्य को देख कर बुद्धिजीवियों को निराशा ही हाथ लगी. केन्द्र प्रायोजित कार्यक्रमों में महागठबंधन का कोई भी नेता नजर नहीं आया, वहीं राज्य सरकार के समारोह से भाजपाइयों ने किनारा कर लिया.
आपसी प्रतिद्वंद्विता ऐसी दिखी, जैसे चुनावों में होता है. केन्द्र के समारोह में भीड़ जुटाने का जिम्मा भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं का था, तो राज्य सरकार की ओर से भीड़ जुटाने में प्रशासन के पसीने छूट रहे थे. बहरहाल यह समारोह पूरी तरह अपने उद्देश्यों से भटकता नजर आया. नेताओं ने अपनी-अपनी ब्रांडिंग करने की होड़ में केवल गांधी जी की मार्केटिंग की और यह सिलसिला पूरे वर्ष चलेगा और गांधी जी की आत्मा किसानों और मजदूरों की दुर्दशा देखकर कराहती रहेगी. तब लोगों की निर्धनता देखकर गांधी जी ने पारंपरिक वेश-भूषा का त्याग कर दो कपड़ों में जीवन निर्वाह करने की भीष्म प्रतिज्ञा ली थी और किसानों के हक के लिए सत्याग्रह किया था.
लेकिन आज शराब, सौन्दर्य प्रसाधन, जहरीले कोल्ड ड्रिंक्स, विलासिता की वस्तु बनाने वालेे, कॉरपोरेट घराने, देह प्रदर्शन का व्यापार करने वाले फिल्मकार, संवेदनहीन नेता, बेशर्म सियासी दलाल, रिश्वतखोर अफसर, सटोरिए अरबों-खरबों में खेलते हैं और अभाव और कर्ज में डूबा देश का अन्नदाता आत्महत्या करता है. यह मंजर देखकर भी मंदिर-मस्जिद, साधुओं-मुल्लाओं के बयान, लड़कियों के पहनावे और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले तथाकथित नेता और बुद्धिजीवी कुछ भी बोलना मुनासिब नहीं समझते. ऐसे में देश को फिर किसी गांधी के आने का इंतजार है.