Bihar-chunvaबिहार विधानसभा चुनाव 2015

देश के सभी राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव 2015 भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित होगा. उनका मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की राजनीति की दिशा और दशा तय करेंगे. अगर यह बात सही है, तो यकीन मानिए, भारत के प्रजातंत्र का भविष्य अंधकारमय है. अगर बिहार विधानसभा चुनाव से ही देश की राजनीति का भविष्य तय होना है, तो इसका मतलब यही हुआ कि इस चुनाव में जो कुछ हो रहा है, वही देश की राजनीति में होने वाला है. राजनीतिक दल बिहार में जिस तरह से चुनाव लड़ रहे हैं, उससे देश को कमज़ोर करने वाली ताकतों, नक्सलवादियों और आतंकवादियों को बल मिलेगा.

बिहार चुनाव सीधे तौर पर अराजकता को न्योता है. राजनीतिक दलों ने अवसरवादिता, दिशाहीन संवाद, भद्दी टिप्पणियां, विचारहीनता, जातिवाद, धार्मिक उन्माद, स्वार्थ, धनबल और अपराधीकरण आदि की सारी सीमाएं लांघ दी हैं. राजनीतिक दलों और नेताओं ने बिहार चुनाव को स़िर्फ और स़िर्फ लोगों को गुमराह कर वोट लेने का खेल बना दिया है. सारे दलों के एजेंडे से जनता गायब है. जनता की समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं है. ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, लचर स्वास्थ्य सेवा जैसी मूलभूत समस्याएं चुनाव से गायब हैं.

राजनीतिक दलों पर स़िर्फ चुनाव जीतने की धुन सवार है. हक़ीकत यह है कि बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों ने जनता के साथ सा़फ-सा़फ धोखा किया है. सवाल यह है कि ऐसे राजनीतिक दल और नेता बिहार की जनता के वोट के लायक भी हैं क्या?

किसने क्या, कब और कैसे पाया ही राजनीति का सही अर्थ है. राजनीति की यह सटीक और व्यवहारिक परिभाषा हेरॉल्ड लॉसवेल ने दी. इसका मतलब यह है कि राजनीति असल में सरकारी संसाधनों के बंटवारे की लड़ाई है. संसाधनों की हिस्सेदारी में किसे कब और कितना हिस्सा मिलता है, उसी से यह पता चलता है कि कौन सत्ता के नज़दीक है और कौन सबसे दूर. जिन वर्गों को सरकार से फायदा होता है, जिन्हें ध्यान में रखकर सरकार योजनाएं बनाती है, वही राजनीति की मुख्य धारा में होते हैं, वही सत्ता के क़रीब होते हैं.

जिन लोगों को सरकारी नीतियों एवं योजनाओं से फायदा नहीं होता, वे राजनीति के हाशिये पर होते हैं, वे स़िर्फ चुनाव में वोट डालने वाले एक मतदाता हैं, जिनका सरकार पर न तो कोई ज़ोर होता है और न सरकार उनके बारे में सोचने के लिए बाध्य होती है. हक़ीकत यह है कि बिहार के ग़रीब, पिछड़े, दलित और मुसलमान राजनीति के हाशिये पर हैं. उन्हें सरकार की तऱफ से आज तक कोई राहत नहीं मिली.

बिहार का यह वर्ग नारकीय ज़िंदगी जीने को मजबूर है. लेकिन, चुनाव के दौरान उसे ऐसा महसूस कराया जाता है कि वह राजनीतिक दलों के लिए कितना महत्वपूर्ण है. राजनीतिक दल वादा भी करते हैं कि सरकार बनते ही सबसे पहला काम उसकी समस्याओं को हल करने का होगा. कोई इस वर्ग से मुख्यमंत्री बनाने का भरोसा देता है, तो कोई नाइंसा़फी के ़िखला़फ आवाज़ बुलंद करता है. आज़ादी हासिल हुए 67 साल हो गए, हर रंग की सरकारें आईं और चली गईं, लेकिन उसकी हालत साल दर साल खराब होती गई. हर राजनीतिक दल को उसका वोट चाहिए, लेकिन उसकी समस्याएं खत्म करने की बात कहने की जहमत कोई नहीं उठाता.

राजनीतिक दलों को अपशब्द कहने और कुतर्क करने से फुर्सत हो, तब तो जनता की समस्याओं पर बात करने का उन्हें वक्त मिले. बिहार चुनाव में देश के महान-महान नेता एक-दूसरे के लिए शैतान, पिशाच, बह्मपिशाच और हत्यारा जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं. यह हालत तब है, जब देश के प्रधानमंत्री एक मुख्यमंत्री की तरह जगह-जगह घूमकर रैलियां कर रहे हैं. उम्मीद तो यह थी कि भाषा और संवाद का स्तर ऊंचा होगा, लेकिन अ़फसोस, उन्होंने भी इसे हवा दी.

यहां यह कहना पड़ेगा कि अकेले नीतीश कुमार ऐसे हैं, जिन्होंने अपने भाषणों और बयानों में राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया. नीतीश कुमार इस चुनाव में सबसे मर्यादित नेता नज़र आ रहे हैं, लेकिन वह चुनाव के मुद्दे नियंत्रित करने में असफल रहे हैं. इससे ज़्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा गोमांस बन गया है.

युवाओं के पास नौकरी नहीं है, शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई है, अस्पतालों में न डॉक्टर हैं और न दवाएं. राज्य आर्थिक विकास के मामले में देश ही नहीं, अफ्रीका जैसे देशों से पीछे छूट गया है. घरों में बिजली नहीं है, जीविकोपार्जन के लिए लोग पलायन कर रहे हैं. लेकिन, इन सब मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं है. सब इस बात का ़फैसला करने में जुटे हैं कि गोमांस पर प्रतिबंध लगना चाहिए या नहीं. फिजूल के मुद्दों को हवा देने में मीडिया भी बराबर का दोषी है.

कोई यह नहीं पूछ रहा है कि राज्य सरकार ने पिछले पांच सालों में क्या किया या फिर केंद्र सरकार ने पिछले डेढ़ साल में बिहार को क्या दिया? चुनाव वह प्रक्रिया है, जिसमें जनता राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी तय करती है, लेकिन बिहार चुनाव में राजनीतिक दल बड़ी चतुराई से जनता को जातिवाद और धार्मिक उन्माद के दलदल में धकेल कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए. राजनीतिक दलों ने जनता को न स़िर्फ धोखा दिया, बल्कि एक रणनीति के तरह भ्रमित किया है, ताकि वे अपनी अनैतिक राजनीति को परवान चढ़ा सकें.

राजनीतिक दलों एवं नेताओं ने मीडिया की मदद से एक तऱफ जनता का ध्यान असल मुद्दों से हटाकर जातिवाद और धार्मिक उन्माद में लगा दिया, वहीं दूसरी तऱफ अपना खेल शुरू कर दिया है. सभी राजनीतिक दलों ने बिहार की राजनीति को फिर से अपराधियों के हवाले करने की तैयारी कर ली है. हर राजनीतिक दल ऐसे लोगों को टिकट देने पर आमादा है, जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है. हर दल अपराधियों, सरगनाओं और उनके रिश्तेदारों को टिकट दे रहा है.

बिहार में ऐसे नेताओं को बाहुबली कहते हैं. हैरानी की बात यह है कि राजनीतिक दल अपराधियों को उम्मीदवार भी बना रहे हैं, साथ ही यह कह रहे हैं कि राजनीति का अपराधीकरण खत्म हो. बिहार में राजनीति और अपराध का पुराना रिश्ता रहा है. हक़ीकत तो यह है कि बिहार ने वह दौर भी देखा, जब राजनीति का अपराधीकरण नहीं, बल्कि अपराध का राजनीतिकरण हुआ था. बिहार देश का पहला राज्य है, जहां राजनीति का अपराधीकरण हुआ. देश में बूथ कैप्चरिंग की पहली घटना 1967 में बेगूसराय में हुई थी. उस वक्त यह मुंगेर ज़िले का अंग था. पुलिस की ओर से गोलियां भी चली थीं और बूथ कैप्चर करने वाला एक शख्स मारा भी गया था.

यह वह ज़माना था, जब चुनाव में ताक़तवर लोग बैलेट बॉक्स लूट ले जाते थे और अधिकारियों से बैलेट छीनकर बोगस वोटिंग करते थे. कमज़ोर वर्ग के लोगों को पोलिंग बूथ तक जाने नहीं दिया जाता था. आज हालत यह है कि बिहार की हर सीट पर कोई न कोई बाहुबली चुनाव लड़ने लगा है. इससे राज्य का सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ है. विकास की गति रुक गई है और राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों का आना बंद हो गया है. लोग राजनीति को अपराध के पर्याय के रूप में देखने लगे हैं.

अपराधियों का राजनीति में प्रवेश अब संस्थागत तरीक़े से हो रहा है. लोग पहले अपने इलाक़े में गुंडागर्दी करते हैं, अपराध की दुनिया में अपनी खतरनाक छवि बनाते हैं और फिर किसी राजनीतिक दल के सदस्य बन जाते हैं. अपराधी इस तरह बड़ी आसानी से चुनावी राजनीति में प्रवेश करने में कामयाब हो जाते हैं. दूसरी तऱफ राजनीतिक दल हैं, जिनका यह कर्तव्य है कि वे ऐसे लोगों को बढ़ावा न दें, लेकिन अ़फसोस कि वे उन्हें अपना प्रत्याशी बना रहे हैं. अब चुनाव आयोग कड़ी निगरानी करता है.

आज बिहार में पांच चरणों में चुनाव इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि एक साथ पूरे राज्य में सुरक्षाबलों को लगाना मुश्किल है. अब चुनाव भी पहले की तरह नहीं होते, लेकिन समस्या यह है कि जो लोग पहले नेताओं के लिए बूथ लूटते थे, वे आज खुद उम्मीदवार बन बैठे हैं.

बिहार में राजनीति के अपराधीकरण के लिए राजनीतिक दल ज़िम्मेदार हैं. आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट देने में कोई भी दल पीछे नहीं है. पहले चरण में चुनाव मैदान में उतरे सभी 587 उम्मीदवारों में से 174 यानी 30 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक छवि वाले हैं. उनमें से 130 पर गंभीर मामले चल रहे हैं. पहले चरण के उम्मीदवारों की सूची देखकर बाकी के चरणों के उम्मीदवारों की छवि का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है.

वैसे तो विभिन्न राजनीतिक दल एक-दूसरे पर अपराधियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बिहार में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है, सबके दामन में दाग़ है. जो लोग राज्य में क़ानून-व्यवस्था की बात करते हैं, उनसे यह सवाल करना ज़रूरी है कि उनकी पार्टी ने अपराधियों को क्यों टिकट दिया? क्या उन्हें लगता है कि जिन अपराधियों की जगह जेल में है, उन्हें विधानसभा में बैठा देने से बिहार में क़ानून-व्यवस्था की हालत ठीक हो जाएगी? राजनीतिक दलों से यह पूछना चाहिए कि क्या अपराधियों को विधायक बनाने से बिहार का विकास होगा या फिर सुशासन आ जाएगा? ऐसे माहौल में जब लोगों को खराब-अयोग्य उम्मीदवारों के बीच चुनाव करना पड़ता है, तो वे वोट देने में रुचि नहीं लेते.

उन्हें लगता है कि उनके वोट का हक़दार कोई भी उम्मीदवार नहीं है. ऐसा सोचना ग़लत है, क्योंकि इससे आपराधिक छवि वाले नेताओं को फायदा होता है. वे जीत जाते हैं. अगर राजनीतिक दल अपराधियों को विधायक बनाने पर आमादा हैं, तो जनता को भी फैसला करना चाहिए कि चाहे जो भी हो, वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को देगी, जो अपराधी या आपराधिक छवि वाला न हो. लेकिन, इन बातों से राजनीतिक दलों को कोई फर्क़ नहीं पड़ता. इसलिए वे जानबूझ कर ऐसी ग़लतियां दोहराते हैं.

बिहार के हर राजनीतिक दल ने एक और महापाप किया है, उन्होंने मालदार और धनाढ्य लोगों को टिकट दिया. पहले चरण के 146 उम्मीदवार (25 प्रतिशत) करोड़पति हैं. अगर कुल उम्मीदवारों की घोषित आय का औसत निकाला जाए, तो वह 1.44 करोड़ रुपये प्रति उम्मीदवार होगी. कई राजनीतिक दलों पर टिकट बेचने का भी आरोप लगा. इससे ज़मीनी कार्यकर्ता खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. जिन कार्यकर्ताओं ने पांच सालों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया, उन्हें दरकिनार करके बिहार में राजनीतिक दलों ने ऐसे-ऐसे लोगों टिकट दे दिया, जिनका न तो कभी राजनीति से सरोकार रहा और न समाज से.

राजनीतिक दलों की दलील स़िर्फ यह है कि उनके जीतने की संभावनाएं ज़्यादा हैं. इन राजनीतिक दलों से यह सवाल करना ज़रूरी है कि उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि उनके साधारण कार्यकर्ता चुनाव हार जाएंगे और जिनके पास पैसा-ताक़त है, वे चुनाव जीत जाएंगे? यह तो जनता के विवेक पर ही सवाल उठाने वाला तर्क है. जिसके पास पैसा है, वह पैसे के बल पर वोट मांगेगा, गांधी के आदर्शों पर वोट नहीं मांगेगा. ऐसे उम्मीदवार वोट खरीदने की कोशिश करते हैं. असहाय राजनीतिक कार्यकर्ता थक-हार कर इन धनाढ्यों के लिए प्रचार करने को मजबूर हैं.

राजनीतिक दलों को यह भी समझना चाहिए कि ज़माना बदल रहा है. युवा वर्ग राजनीति में ईमानदार, सा़फ-सुथरी छवि वाले और पढ़े-लिखे लोगों को देखना चाहता है, लेकिन राजनीतिक दल ठीक इसका उलटा कर रहे हैं. राजनीतिक दलों से ज़्यादा उम्मीद करना भी बेकार है, क्योंकि उनके लिए चुनाव जीतना ही एकमात्र मक़सद है. भले ही उन्हें अपने नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को नाराज़ क्यों न करना पड़े, लोगों की आकांक्षाओं-आशाओं की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े. यानी राजनीतिक दल किसी भी क़ीमत पर चुनाव जीतना चाहते हैं.

संसद और विधानसभाएं लोकतंत्र का मंदिर हैं. वहां जाने का अधिकार स़िर्फ योग्य, कर्मठ, ईमानदार एवं जनहितैषी शख्स को है, जो नुमाइंदगी का फर्ज़ बखूबी निभा सके. दाग़दार दामन वालों, सौदेबाज़ बहुरूपियों और काले धन के धनकुबेरों को संसद-विधानसभा में भेजना लोकतंत्र और देश की गरिमा की अनदेखी नहीं, बल्कि चुनाव के नाम पर जनता के साथ धोखा है. राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि राजनीति और चुनाव का अपराधीकरण रोकने का पहला दायित्व उन्हीं का है.

सबसे पहले उन्हें अपराधियों और आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट न देने का संकल्प लेना होगा. बिहार की जनता को इस बार पूरी सावधानी से अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए, वरना अगले पांच सालों तक हाथ मलने के अलावा उसके पास और कोई चारा शेष नहीं रहेगा.

मुसलमानों को हमेशा धोखा मिला है

भारत में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा मुसलमान बिहार में रहते हैं. अगर सरकारी एवं ग़ैर सरकारी आंकड़ों को ध्यान से देखें, तो पता चलता है कि बिहारी मुसलमानों की हालत समाज के सबसे निचले वर्ग से भी बदतर है. वह इसलिए भी, क्योंकि दलित, महादलित एवं पिछड़ी जातियों को सरकारी मदद मिलती है, आरक्षण मिलता है, लाल कार्ड बांटे जाते हैं, लेकिन मुसलमानों को उनकी समस्याओं से निपटने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है. ग़ौर करने वाली बात यह है कि आज़ादी के वक्त मुसलमानों की हालत का़फी बेहतर थी, लेकिन सरकारी रवैये की वजह से दूसरे समुदायों के मुक़ाबले मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़ते चले गए.

बिहार में 16.5 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है. बिहार के 87 प्रतिशत मुसलमान गांवों में रहते हैं, स़िर्फ 13 प्रतिशत शहर में रहते हैं. गांवों की हालत खराब है. वहां ग़रीबी है, अशिक्षा है, बेरोज़गारी है. खराब हालात के बावजूद गांवों में रहने वालों में जो सबसे पिछड़ा तबका है, उसमें ज़्यादातर मुसलमान, भूमिहीन या छोटे किसान हैं.

बिहार में 28.4 प्रतिशत मुसलमान भूमिहीन किसान हैं. स़िर्फ 35 प्रतिशत मुसलमानों के पास ज़मीन है, जो आम आबादी के अनुपात में का़फी कम है. बिहार में क़रीब 58 प्रतिशत ग्रामीणों के पास ज़मीन है. खेती करने वाले मुसलमानों की संख्या और भी कम है. जिनके पास ज़मीन है, वह भी इतनी कम है कि उनका गुज़र-बसर नहीं हो पाता. हैरानी की बात यह है कि स़िर्फ तीन प्रतिशत मुस्लिम किसानों के पास ट्रैक्टर है और स़िर्फ दस प्रतिशत के पास पंपिंग सेट.

हिंदुओं के मुक़ाबले मुस्लिम किसान ग़रीब हैं. यही वजह है कि 75 प्रतिशत ग्रामीण मुसलमान खेतों में मज़दूरी करके अपना परिवार चलाते हैं. पिछले पांच सालों में स़िर्फ .32 एकड़ प्रति परिवार की दर से 2.4 प्रतिशत मुसलमानों ने ज़मीन खरीदी, लेकिन .49 एकड़ प्रति परिवार की दर से 2.5 प्रतिशत मुसलमानों ने अपनी ज़मीन बेची है. इसका मतलब यह है कि ज़मीन के मालिकाना हक़ से मुसलमान धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हैं. बिहार के गांवों में रहने वाले मुसलमानों में 2.1 प्रतिशत लोग कारीगर हैं, जिनकी वार्षिक आय महज सोलह हज़ार रुपये है. मतलब यह कि मुसलमान कारीगरों के परिवार ग़रीबी रेखा से नीचे हैं.

बिहार में शिक्षा की हालत बदतर है. साक्षरता दर 47 प्रतिशत है. पटना, रोहतास और मुंगेर इसमें सबसे आगे हैं. इन तीन ज़िलों में साठ प्रतिशत से ज़्यादा साक्षरता दर है. जबकि किशनगंज, अररिया और कटिहार सबसे पीछे हैं, जहां स़िर्फ तीस से पैंतीस प्रतिशत के आसपास ही लोग शिक्षित हैं. किशनगंज और कटिहार में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है. उन्हें साल भर में स़िर्फ 230 दिन ही काम मिल पाता है, बाकी के दिनों में वे बेरोज़गार रहते हैं. एक दिन की कमाई 28-32 रुपये है. मतलब यह कि उनकी मासिक आय महज 600 रुपये है. इस कमाई से न तो घर चलाया जा सकता है और न इज्जत बचाई जा सकती है.

इसका मतलब यह है कि बिहार के मुसलमान ग़रीबी और अभाव का दंश झेल रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक़, ग्रामीण मुसलमानों की सालाना आय 4,640 रुपये है और शहर में रहने वालों की सालाना आय 6,320 रुपये. गांवों में रहने वाले मुसलमानों में से 49.5 प्रतिशत और शहर में रहने वाले मुसलमानों में से 44.5 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. यानी बिहार में मुसलमानों की क़रीब आधी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है. ज़्यादातर लोग क़र्ज़ में डूबे हुए हैं. बिहार के गांवों में सभी धर्म के लोगों को मिलाकर 10.1 प्रतिशत के पास पक्के मकान हैं, जबकि शहरी मुसलमानों में से 25 प्रतिशत के पास पक्के मकान हैं. मतलब यह कि गांव के मुसलमान धीरे-धीरे ग़रीब होते चले गए. उनके पास पूर्वजों के बनाए पक्के मकान तो हैं, लेकिन कमाने का ज़रिया नहीं है.

अगर हम शहरों की बात करें, तो दूसरे समुदाय से मुसलमानों की आर्थिक स्थिति गांव के मुक़ाबले और भी ज़्यादा खराब है. गांवों में ज़्यादातर मुसलमानों के पास पक्के मकान हैं, लेकिन शहरों में दूसरे लोगों के मुक़ाबले मुसलमानों के पास पक्के मकान नहीं हैं. बिहार के शहरों में 75 प्रतिशत घरों में बिजली है, लेकिन मुसलमानों में 47.2 प्रतिशत लोगों के घरों में बिजली है. राजनीति में भी मुसलमान हाशिये पर चले गए हैं. ये आंकड़े सरकार के पास भी हैं. सरकार के पास यह जानकारी है कि मुसलमानों की हालत दूसरे समुदायों से कहीं ज़्यादा खराब है. मुसलमानों की हालत आज ऐसी नहीं हुई है, बल्कि आज़ादी के बाद से ही उनकी हालत बदतर होती जा रही है.

उनकी हालत सुधारने के लिए सरकार को नीतिगत तरीक़े से आगे आना चाहिए था, लेकिन किसी भी सरकार ने इसकी ज़रूरत महसूस नहीं की. बिहार में जिस तरह नीतीश कुमार ने महादलितों के लिए योजनाएं बनाईं, वैसी योजनाएं मुसलमानों के लिए भी ज़रूरी थीं. बिहारी मुसलमानों की सुकून भरी ज़िंदगी पर ही सवालिया निशान लग गया है.

ऐसे में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और मुसलमानों की संख्या इतनी है कि वे पचास सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं. समस्या यह है कि मुसलमानों की हालत पर आवाज़ उठाना तो दूर, राजनीतिक दल उस पर बात करने से भी बचते हैं. अक़लियत का वोट बाज़ार में नीलाम कर दिया जाता है. ग़रीबी, अशिक्षा एवं बेरा़ेजगारी के भंवर में फंसे बिहारी मुसलमानों को राजनीति की वह सटीक परिभाषा याद रखने की ज़रूरत है, जो हेरॉल्ड लॉसवेल ने दी थी.

उन्हें राजनीतिक दलों से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि आज़ादी के बाद से मुसलमानों को सरकारी संसाधनों में कब और कितना हिस्सा मिला है?

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