बांग्लादेश सीमा बिल पर बनी सर्वसम्मति यह साबित करती है कि विपक्ष को उसका श्रेय देकर और किसी बिल को एक सर्वदलीय उपलब्धि के तौर पर पेश करके उनका समर्थन हासिल किया जा सकता है. सुषमा स्वराज भाजपा के गिने-चुने अच्छे सांसदों में से एक हैं. इस संबंध में अरुण जेटली का भी नाम लिया जा सकता है. कांग्रेस के अहम को शांत करके स्वराज ने सरकार के लिए कुछ अंक अर्जित किए. इन सबके बावजूद यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्च सदन (राज्यसभा) जनता द्वारा चुनकर आए निचले सदन (लोकसभा) की आवाज़ दबा रहा है.
ब्रिटेन में 1960 के दशक में किसी राजनीतिक दल के सत्ता में रहते हुए अलग और विपक्ष में रहते हुए कुछ अलग रुख को जेकेल एंड हाइड पॉलिटिक्स कहा जाता था. इसका भाव यह था कि सत्ता में रहते हुए पार्टियां तर्कसंगत तरीके से व्यवहार करती हैं और विपक्ष में अतार्किक ढंग से. अगर आप चाहें, तो इसे उलट भी सकते हैं. इसका मतलब यह था कि राजनीतिक दल संसदीय व्यवहार में अनैतिक थे. इसका मतलब यह भी है कि सत्ता और विपक्ष के मामले में राजनीतिक दलों में बहुत कम फर्क़ होता है. लेकिन, इसके बावजूद वे यह दिखाते हैं कि वे एक-दूसरे से बहुत अलग हैं. कुछ इसी तरह की परेशानी में भाजपा (एनडीए) सरकार उलझी हुई है. वह यह सोच रही थी कि विपक्ष खत्म हो चुका है. उसे यह विश्वास नहीं था कि लोकसभा में 10 प्रतिशत से भी कम सीटें हासिल करके कांग्रेस इतने प्रभावी तरीके से सरकार के विधेयकों को रोक सकेगी. भाजपा ने यूपीए सरकार के समय यही नीति अपना रखी थी. यह अलग बात है कि उसे इतनी सफलता नहीं मिली थी. उस समय यूपीए के लिए अनिर्णय की स्थिति विपक्ष के अवरोध से बड़ी समस्या थी. मिसाल के तौर पर तेलंगाना बिल और लोकपाल बिल को लिया जा सकता है.
भाजपा बहुत खुशकिस्मत है कि वह संसद के शीतकालीन सत्र में इंश्योरेंस बिल और माइनिंग बिल पास कराने में कामयाब रही, लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल फंसा रह गया. हालांकि, यह अप्रत्याशित नहीं है. इससे यह भी साबित होता है कि सरकार में शामिल सांसद अनुभवहीन हैं. ऐसा लगता है कि संसदीय प्रक्रिया की छोटी-सी पुस्तिका किसी ने ध्यान से पढ़ी ही नहीं है. वे इसी बात से खुश हो जाते हैं कि अगर राज्यसभा किसी बिल पर बाधा उत्पन्न करती है, तो उसे संसद के संयुक्त सत्र में पास कराया जा सकता है. लेकिन, दूसरे पक्ष के पास अधिक अनुभव है. उसे मालूम है कि राज्यसभा में भी वह किसी बिल पर बाधा तो उत्पन्न कर सकता है, लेकिन वोट के ज़रिये रोक नहीं सकता. एक बड़ी हैरान करने वाली बात वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) बिल के संबंध में नज़र आई. जहां तक भूमि अधिग्रहण बिल का सवाल है, तो यह कहा जा सकता है कि उसने 2013 के बिल पर अपनी सहमति दी थी. ज़ाहिर है, उस समय भाजपा विपक्ष में थी. सत्ता में आने के बाद वह अब अलग पार्टी बन गई है. इसके बावजूद, मेरे ख्याल से नए बिल में जो बदलाव किए गए हैं, वे वास्तविक हैं. बहरहाल, राज्यसभा में कांग्रेस को जीएसटी बिल पारित होने देना चाहिए. उसका विरोध उस विचार-विमर्श की प्रक्रिया के विपरीत है, जो इस बिल के संबंध में अपनाई गई थी. चूंकि राहुल गांधी एक नए अवतार में अपना राजनीतिक करियर सुधार रहे हैं, इसलिए कांग्रेस अधिक आक्रामक दिखने की कोशिश कर रही है, लेकिन इससे विपक्ष को फायदे से अधिक देश को नुक़सान हो रहा है.
भाजपा बहुत खुशकिस्मत है कि वह संसद के शीतकालीन सत्र में इंश्योरेंस बिल और माइनिंग बिल पास कराने में कामयाब रही, लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल फंसा रह गया. हालांकि, यह अप्रत्याशित नहीं है. इससे यह भी साबित होता है कि सरकार में शामिल सांसद अनुभवहीन हैं. ऐसा लगता है कि संसदीय प्रक्रिया की छोटी-सी पुस्तिका किसी ने ध्यान से पढ़ी ही नहीं है. वे इसी बात से खुश हो जाते हैं कि अगर राज्यसभा किसी बिल पर बाधा उत्पन्न करती है, तो उसे संसद के संयुक्त सत्र में पास कराया जा सकता है.
बांग्लादेश सीमा बिल पर बनी सर्वसम्मति यह साबित करती है कि विपक्ष को उसका श्रेय देकर और किसी बिल को एक सर्वदलीय उपलब्धि के तौर पर पेश करके उनका समर्थन हासिल किया जा सकता है. सुषमा स्वराज भाजपा के गिने-चुने अच्छे सांसदों में से एक हैं. इस संबंध में अरुण जेटली का भी नाम लिया जा सकता है. कांग्रेस के अहम को शांत करके स्वराज ने सरकार के लिए कुछ अंक अर्जित किए. इन सबके बावजूद यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्च सदन (राज्यसभा) जनता द्वारा चुनकर आए निचले सदन (लोकसभा) की आवाज़ दबा रहा है. ब्रिटेन में चूंकि उच्च सदन को जनता नहीं चुनती, इसलिए हम अपनी सीमाएं जानते हैं. राज्यसभा का चुनाव अप्रत्यक्ष होता है, जो संघीय तत्व का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन, दोनों सदनों के चुनाव के चक्र में समन्वय नहीं है. लिहाज़ा, जो लोग पुराने जनादेश (राज्यसभा) से चुनकर आएंगे, वे नए जनादेश (लोकसभा) की इच्छाओं को रोक देंगे. अब दोनों सदनों के चुनाव में सामंजस्य स्थापित करने के लिए कुछ किया जाएगा या नहीं, यह किसी के अनुमान से परे नहीं है. फिलहाल जो बड़ा मुद्दा है, वह यह है कि संख्या और प्रतिशत दोनों लिहाज़ से शहरीकरण में वृद्धि हो रही है. शहरी क्षेत्र को उसकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है. इसके बावजूद राजनेता यह दिखावा कर रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी अधिक है. बहरहाल, यह तो राजनीति है, लेकिन इस बीच भाजपा के सीखने के ग्राफ में इजा़फा ज़रूर हुआ है.