आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों ने अपने नए-नए मापदंड गढ़ने शुरू कर दिए हैं. रायबरेली में भी खद्दर के खलीफे मैदान में सक्रिय नजर आने लगे हैं. गांधी-नेहरू परिवार का गढ़ मानी जाने वाली रायबरेली की सरजमीं पर बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो चुका था. सपा ने छह में से पांच विधानसभा सीटों पर काबिज होकर अपनी साइकिल की रफ्तार बरकरार रखी. लोगों का भारी समर्थन पाकर सपाई सीटें तो जीत गए, लेकिन लगभग पांच साल बीतने को है, साइकिल पर सवार होकर विधानसभा पहुंचे विधायक हवा में उड़ने लगे और जनता की कोई सुध नहीं ली, उल्टे, लोगों के दुख-दर्द को कम करने के बजाय उसे बढ़ाया ही.
उत्तर प्रदेश सरकार ने रायबरेली के एक विधायक को कैबिनेट में जगह देकर मान बढ़ाया परंतु रायबरेली के विकास का ये माननीय कोई मान नहीं रख सके. उनकी नजरें अपनी ही जेब भरने और सुविधाएं मजबूत करने पर लगी रहीं. सपा विधायक अपने कार्यकाल में कहीं जबरन जमीन कब्जियाने के विवाद में तो कभी ठेकेदारी और रंगदारी के विवाद में उलझे रहे. इस काल अवधि में विधायक पुत्रों व भाइयों ने जनता के बीच जमकर तांडव किया तो प्रशासन भी असहाय होकर तमाशा देखने पर ही मजबूर रहा. जनता के बीच पिछले चार साल में इन सफेदपोशों की उपस्थिति लगभग शून्य ही रही. इतना ही नहीं सत्ताविहीन सफेदपोश तो मानो कोमा में ही चले गए थे.
2017 का विधानसभा चुनाव उन्हें जैसे ही नजदीक आता दिखा, सभी खद्दरधारी बरसाती मेढ़कों की तरह जनता के बीच आकर फिर से फुदकने लगे. पूरे कार्यकाल में सपा के सफेदपोशों ने त्राहिमाम मचाए रखा, वहीं कांग्रेस और बसपा घोर निद्रा में सोती रही. बहकी-बहकी भाजपा दिशाहीन ही नजर आती रही. इस तरह रायबरेली की जनता के दरबार में सभी पार्टियां फ्लॉप साबित हुई हैं. अब देखना यह है कि इन सात माह के दौरान कौन-कौन नेता जनता की नजरों में अपने आप को क्या-क्या साबित कर पाता है.
बीते जिला पंचायत व विधान परिषद के चुनावों में सत्तासीन समाजवादी पार्टी की जमकर किरकिरी हुई. संगठन की एकता का भांडा भी फूटा. जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए रायबरेली में कांग्रेस व सपा आमने-सामने थी. जिसमें सपा प्रत्याशी प्रभात साहू को जिताने का हाईकमान की तरफ से निर्देश भी जारी हुआ था. जिसके बाद रायबरेली के पांचों विधायक व संगठन के कार्यकर्ताओं ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, लेकिन कुल 52 मतों में से महज 20 मत सपा प्रत्याशी प्रभात साहू को मिल सके.
वहीं कांग्रेस प्रत्याशी अवधेश सिंह 30 मत पाकर विजयी घोषित हुए थे. इसी तरह विधान परिषद सदस्य के चुनाव में सपा से मुकेश सिंह, कांग्रेस से दिनेश सिंह और भाजपा से सुरेंद्र बहादुर सिंह ने ताल ठोकी थी. परंतु ऐन मौके पर सपा संगठन व स्वार्थी विधायकों ने मुकेश की नाटकीय ढंग से उम्मीदवारी ही समाप्त करवा दी और स्वयं जाकर दूसरे दल के नेताओं की गोद में बैठ गए.
इस चुनाव में एक बार फिर मैनेजमेंट का महारथी माने जाने वाले दिनेश ने भाजपा के सुरेंद्र को 597 मतों से मात देते हुए जीत हासिल की. इस चुनाव में कुल 2085 मत पड़े थे, जिसमें 1264 मत दिनेश को और 667 मत भाजपा के सुरेंद्र सिंह को मिले थे. जबकि सपा प्रत्याशी मुकेश को महज 42 मत ही प्राप्त हुए. इस तरह सपा के दिग्गजों व संगठन की एकता की हवा निकल गई. हालांकि राजनीति के जानकार यह भी बताते हैं कि सपा नेतृत्व ने कांग्रेस के साथ मिलीभगत करके जिला पंचायत और विधान परिषद दोनों गुपचुप तरीके से कांग्रेस को दे दिया. कांग्रेस ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए सपा नेतृत्व के समक्ष गुहार लगाई थी.
बहरहाल, सपा, बसपा और कांग्रेस को ढोती आ रही जनता नये विकल्प के लिए आतुर है. कांग्रेस मुखिया सोनिया गांधी जहां खुद जनता का प्रतिनिधित्व कर रहीं हों, राहुल खुद जहां की नुमाइंदगी करते हों, वहां की जनता आज भी बिजली, पानी व सड़क की मूलभूत समस्याओं से जूझ रही हो, यह किस तरह की उपलब्धि है? अब सार्वजनिक स्तर पर उछल रहे ये सवाल निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं हैं.
बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सभी विधायकों को पटखनी देकर जहां जनता ने कांग्रेस को सुधरने का मौका दिया वहीं सपा को रायबरेली की जनता के लिए कुछ करने का मौका भी दिया, लेकिन बीते समय में न ही कांग्रेस अपना रुख सकारात्मक करते हुए जनता के बीच दिखी और न सपा जनता की नजरों में अपनी छवि कायम रख पाई. बहुत पहले से दिशाहीन रही भारतीय जनता पार्टी आज भी अपने पुराने ढर्रे पर ही चल रही है. रायबरेली में भाजपा का कोई ढंग का जनप्रतिनिधि भी नहीं रहा. फिलहाल जनता इन परंपरागत पार्टियों के झूठे आश्वासन व सफेदपोशों के आतंक से त्रस्त होकर रायबरेली में इस बार बदलाव के संकेत दे रही है.