02-Political-Parties-meetinदिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में 2 अप्रैल, 2015 को देश के अधिकांश किसान और जन संगठन एकत्रित हुए और मोदी सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का नये सिरे से विरोध करने के लिए नई नीति तैयार की. इस बैठक के दौरान कांग्रेस, वाम दल, जनता दल(युनाइटेड) और अन्य राजनीतिक दलों के नुुमांइदों ने भी शिरकत की. सभी ने संसद से सड़क तक अध्यादेश का एकजुट होकर लड़ाई लड़ने और जीतने तक संघर्ष करने का ऐलान किया. आगे की लड़ाई भूमि अधिकार संघर्ष आंदोलन नाम से एकीकृत तौर पर लड़ी जाएगी. इसके लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कमेटियों का गठन भी किया गया है. चूंकि केंद्र सरकार 3 अप्रैल को दोबारा अध्यादेश ले आई है इसलिए 6 अप्रैल को पूरे देश में नए अध्यादेश की कॉपी जला कर सांकेतिक तौर पर विरोध प्रदर्शन किया गया.

इस विचार-विमर्श में कांग्रेस की ओर से पूर्व केंद्रीय पंचायती राज मंत्री जयराम रमेश, सीपीआई(एम) के सीताराम येचुरी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के डी राजा, जनता दल(युनाइटेड) के केसी त्यागी, ऑल इंडिया फॉर्वर्ड ब्लॉक के देबब्रत बिस्वास, रिवॉल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी के अबानी रॉय, जनता दल(सेकुलर) के दानिश अली, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल) लिबरेशन की कविता कृष्णन शामिल थीं, सभी ने एक सिरे से इस आंदोलन का समर्थन करने का ऐलान किया. इसके साथ ही राज्यसभा में अध्यादेश का पुरजोर विरोध करने की घोषणा की. इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस आंदोलन में जन संगठन, किसान संगठन, दलित, महिला और खेतीहर मजदूरों के संगठन शामिल हैं.
देश में पहली बार वाम दलों के संगठन एक साथ आए हैं. पहले वाम दलों के संगठन समर्थक की भूमिका में होते थे, लेकिन इस बार वे आंदोलन के आयोजक हैं. डॉ सुनीलम ने कहा कि इतने कम समय में किसी राष्ट्रीय नेता के खिलाफ वातावरण बना है. जमीनी मुद्दा पहली बार राजनीतिक मुद्दा बना है. यह लड़ाई किसानों के अस्तित्व की लड़ाई है. अभी तक ये लड़ाई भूमि अधिग्रहण के खिलाफ थी, लेकिन अब यह भू-अधिकार की लड़ाई बन गई है. मेधा पाटकर ने कहा कि सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि उसका संसद से सड़क तक विरोध हो रहा है. सरकार ऐसा इसलिए कर रही है, क्योंकि समस्याओं और चुनावों के बीच का संबंध टूट गया है. प्रदेशों से आए किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि राज्यों में काम कर रहे सभी किसान संगठनों को साथ लेकर चलना होगा. ऐसा करने से ही आंदोलन मजबूत होगा.
गौरतलब है कि 1947 से 2004 तक भूमि अधिग्रहण से 6 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं. सरकार प्रतिदिन 2.5 हेक्टेयर जमीन किसानों से छीन रही है. अधिग्रहीत की गई कुल भूमि में से 40 प्रतिशत आदिवासियों की और 20 प्रतिशत दलितों की है. अब तक देश के कुल 50 प्रतिशत लोग भूमिहीन हो चुके हैं. जनता दल (सेकुलर) के दानिश अली ने आंदोलन का समर्थन करते हुए कहा कि रायसीना पर बैठकर लोग असली भारत को भूल जाते हैं, जो गांव और देहात में बसता है. उन्होंने बेंगलुरु-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर का उदाहरण देते हुए कहा कि 1995 में इसकी शुरुआत की गई थी. इसके लिए एक अमेरिकी कंपनी के साथ एमओयू भी साइन किया गया था. शुरुआत में इसके जरिये विदेशी निवेश आने और लोगों को रोजगार मिलने जैसी बातें हुईं थीं, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ, केवल किसानों की जमीन छीनकर उन्हें बेघर कर दिया गया. राष्ट्रीय सोशलिस्ट पार्टी के अवनि राय ने कहा कि ये लड़ाई किसानों की इज्जत की लड़ाई है. इसके लिए सबको एकजुट होना होगा. एनडीए गठबंधन एनएमडीए (नरेंद्र मोदी एलायंस) हो गया है, जहां लोकतंत्र नहीं बचा है. सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि प्रधानमंत्री मन की बात में विरोध करने वालों पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं. सरकार हाइवे और रेल मार्गों के किनारे एक किलोमीटर तक की जमीन अधिग्रहीत करना चाहती है. अगर ऐसा होगा, तो कुल जमीन का 31.9 प्रतिशत, यानी तकरीबन एक तिहाई जमीन अधिग्रहीत हो जाएगी. जनता दल (युनाइटेड) के के सी त्यागी ने कहा कि देश का किसान रक्षा, सरकारी अस्पताल, नहर, बिजली के प्रोजेक्ट के लिए कभी भी जमीन देने से मना नहीं करता है. हाल ही में राजस्थान के सूरतगढ़ में रक्षा प्रोजेक्ट के लिए 12000 एकड़ जमीन की आवश्यक्ता थी. वहां के किसानों ने सरकार ने जो कीमत तय की, उसी पैसे में सरकार को जमीन दे दी. ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि देश का किसान विकास विरोधी है.
कुल मिलाकर बैठक सफल रही, लेकिन बैठक में कई तरह के विरोधाभास देखने को मिले. भू-अधिकार की मांग और वर्तमान में हुई ओलावृष्टि से किसानों को मुआवजा दिए जाने का प्रस्ताव भी पारित किया गया. बैठक का अधिकांश समय इसी विषय पर केंद्रित रहा. भू-अधिकार की मांग करने वाली एकता परिषद का कोई सदस्य बैठक में नज़र नहीं आया. न ही अन्ना हजारे को आंदोलन का चेहरा बनाये रखने की कोई बात हुई. देखना है, यह लड़ाई कितनी दूर तक जाती है और राजनीतिक दलों का सहयोग इस आंदोलन को कितना मिलता है? कांग्रेस भी 19 अप्रैल को अध्यादेश के विरोध में दिल्ली में रैली करने का ऐलान कर चुकी है. ऐसे में इस आंदोलन से ज्यादा कांग्रेस अपनी रैली को सफल बनाने में जुटेगी, जिसमें राहुल गांधी के शामिल होने की बातें हो रही हैं.
कैसे होगा विरोध
सरकार के इस निर्णय के विरोध में 5 मई, 2015 को भूमि अधिकार संघर्ष रैली का आयोजन किया जाएगा. इसके पहले राज्यों में राज्यस्तरीय सभाओं का आयोजन किया जाएगा. किसानों को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए जन जागरण अभियान जिले से लेकर ग्रामीण स्तर तक चलाया जाएगा. इसके अंतर्गत पदयात्रा, रास्ता रोको, रेल रोको और मानव श्रृंखला बनाने जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे. इसके साथ ही अध्यादेश के विरोध में देश भर में हस्ताक्षर अभियान चलाया जाएगा. इसके अंतर्गत पांच करोड़ लोगों का हस्ताक्षर कराने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. इसके साथ ही जमीन वापसी अभियान चलाने का निर्णय भी लिया गया है. राज्य स्तर पर 9 अप्रैल को विजयवाड़ा, 10 अप्रैल को भुवनेश्वर और 11 अप्रैल को पटना में सभाएं आयोजित करने का फैसला किया गया.


अधिग्रहण के मूल सिद्धांतों को बदला गया है:जयराम रमेश

जनसंगठनों के साथ भूमि-अधिग्रहण के मामले में विरोध के लिए विचार-विमर्श करने कांग्रेस की ओर से पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश पहुंचे. उन्होंने बताया कि आखिर क्यों कांग्रेस मोदी सरकार के संशोधनों को समर्थन नहीं दे सकती.

  1. सोशल इंपैक्ट असेस्मेंट को कानून से बिल्कुल खत्म कर दिया गया है.
  2. पांच साल उपयोग न हो, तो जमीन की वापसी. सरकारें सार्वजनिक उपक्रम के नाम पर भूमि अधिग्रहण करके निजी संस्थानों को दे देती हैं.
  3. किसानों की अनुमति के बिना अधिग्रहण नहीं होना चाहिए.
  4. इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के किनारे की जमीन नहीं ली जाए. अधिग्रहण कॉरीडोर तक ही सीमित होगा, लेकिन मोदी सरकार ने इसे बदल दिया है.
  5. चार गुना मुआवजा मिलने का प्रावधान था, लेकिन वर्तमान सरकार ने धारा 24 को बदल दिया है.

 

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