बिहार चुनाव परिणाम आ चुके हैं और जैसा कि पहले से ही माना जा रहा था कि नीतीश कुमार भाजपा से आगे हैं, यह सच साबित हुआ. लेकिन यहां कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन पर विचार करना होगा. ज्यादातर एक्जिट पोल्स ने महागठबंधन को साधारण तौर पर जीतता दिखाया था. किसी ने भी महागठबंधन की इस तरह की बड़ी जीत और भाजपा की करारी हार की भविष्यवाणी नहीं की थी, न ही किसी ने इस तरह का कोई अनुमान लगाया था.
इसके उलट, चाणक्य ने अपने एक्जिट पोल में भाजपा की बड़ी जीत की संभावना जताई थी, जिसकी बहुत ज्यादा चर्चा हुई, लेकिन उसके एक्जिट पोल की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा नहीं थी, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में वह गलत साबित हुआ था. लेकिन यह जरूर है कि उसका 2014 के लोकसभा चुनाव का अनुमान बिलकुल सही साबित हुआ था. कुल मिलाकर यह चुनाव परिणाम हमेें कुछ सीख देता है. पहला, बिहार का मतदाता अलग तरह का मतदाता है.
यूं ही लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने बिहार से अपने आंदोलन की शुरुआत नहीं की थी, यूं ही साल 1977 में केंद्र की सत्ता में आई जनता पार्टी की बुनियाद बिहार में नहीं रखी गई थी. यूं ही मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे कद्दावर समाजवादी विचारकों ने बिहार को अपनी कर्मभूमि नहीं बनाया था, वे वहां से चुनकर लोकसभा पहुंचे. बिहार की संस्कृति में यह शामिल है कि उसने हमेशा दूसरे प्रदेश के लोगों को खुले दिल से अपनाया.
भाजपा विकास की बात करके, बड़े-बड़े आर्थिक पैकेज और योजनाओं की घोषणा करके बिहार में एक अलग तरह का वातावरण तैयार करना चाहती थी, दरअसल यह बिहार के मतदाताओं का मज़ाक उड़ाना था. यह भाजपा के पक्ष में नहीं गया.
इसके विपरीत मतदाताओं का असली चरित्र,आत्म-सम्मान, समावेशी धार्मिक समानता और सबके साथ एक समान व्यवहार में समाहित है जो कि इन नतीजों में भी जाहिर हुआ. भाजपा की तरफ से मतदाताओं को पिछड़े, अति-पिछड़े में बांटने की बहुत कोशिशें हुईं. उसने जीतन राम मांझी को जरूरत से ज्यादा सीटें और अहमियत दी. एक अति-पिछड़े वर्ग से आने वाले व्यक्ति को बिहार का गवर्नर नियुक्त किया. उसकी इन सभी कवायदों का कोई नतीजा नहीं निकला.
मैंने पहले भी कहा था कि मुलायम सिंह द्वारा बिहार में सौ या उससे अधिक उम्मीदवार खड़े करने का कोई असर नहीं होगा, क्योंकि बिहार के यादव मतदाता यह बात अच्छी तरह जानते थे कि यह एक चाल है, जिससे यादव हार जाएं और भाजपा जीत जाए. इसी तरह ओवैसी भी मुस्लिम वोट बैंक में सेंध नहीं लगा सके, क्योंकि यहां का एक आम मुसलमान भी यह जानता है कि वह भारतीय जनता पार्टी को जिताने के लिए काम कर रहे हैं.
अब आगे की ओर देखते हैं बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की वापसी हुई है. लालू जी ने बिलकुल ठीक कहा है कि जनता ने हमें चुना है, यदि हम उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरेंगे तो जनता हमें माफ नहीं करेगी. यह एक अच्छा संकेत है और इससे यह जाहिर होता है कि वह सहयोग के मूड में हैं. भाजपा के शुभचिंतकों और लालू के आलोचकों की यह सोच है कि लालू और नीतीश कभी एक साथ काम नहीं कर सकते, लेकिन इसके विपरीत लालू जी के मौजूदा रुख से ऐसा नहीं लगता.
पूरे भारत के परिपेक्ष्य में अब जो तस्वीर उभरी है वह यह है कि अगले एक साल में तमिलनाडु, पुद्दूचेरी, केरल, पश्चिम बंगाल और असम आदि राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. केवल असम में भाजपा को जीत की उम्मीद है क्योंकि वहां उसका मुक़ाबला कांग्रेस से है. जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि जहां भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुक़ाबला होता है वहां भाजपा को बढ़त मिल जाती है.
कांग्रेस के खिलाफ सरकार विरोधी लहर (एंटी-इनकम्बेंसी) का भाजपा को फायदा मिल जाता है. पूर्व में सीएजी (कैग) द्वारा सामने लाए गए घोटाले भी कांग्रेस के ख़िलाफ जाते हैं. हालांकि, यदि मतदाताओं के पास अन्य कोई विकल्प होता है तो वे भाजपा को वोट नहीं देते हैं, अपवाद स्वरूप हरियाणा में भाजपा एक साधारण बहुमत हासिल करने मेें क़ामयाब रही, वह भी इसलिए क्योंकि वहां उसका मुक़ाबला कांग्रेस से था.
महाराष्ट्र और झारखंड में उसे साधारण बहुमत भी हासिल नहीं हो सका. बिहार में एक बात पूरी तरह जाहिर हो गई कि यहां उसका मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस से नहीं, बल्कि तीसरी ताकत से था. यहां तीसरी ताकत की साख बरकरार थी. जबकि दूसरी तरफ 2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा की साख बेहतर नहीं हुई थी.
समाज के हर वर्ग की यह धारणा है कि नरेन्द्र मोदी परिणाम देने में असफल रहे हैं. यह एक उचित आकलन नहीं है. क्योंकि, भारतीय जनता पार्टी ने लोगों की उम्मीदों को बहुत बढ़ा दिया था, जिन्हें पूरा कर पाना संभव नहीं था. निष्पक्ष विश्लेषक यह समझते थे कि नरेन्द्र मोदी अपनी सभाओं में जो वादे कर रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं किए जा सकते.
लेकिन यदि आप ऐसी उम्मीदें जगाएंगे, जिन्हें आप पूरा नहीं कर सकते तो आपको उसके परिणाम भुगतने के तैयार रहना होगा. हालांकि राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव से अलग होते हैं, लेकिन पिछले 6 महीनों में न तो देश की अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और न ही महंगाई दर को काबू में करने की कोशिश की गई. ऊपर से अब ये सवाल उठने लगे हैं कि क्या भारत का समावेशी चरित्र बरकरार रह पाएगा?
ये बेकार के सवाल हैं, जो संघ के लोगों के बेवकूफाना बयानों की वजह से उठते हैं. उन्होंने गाय, बीफ अथवा मांस खाने की आदत को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना दिया. मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं कि महाराष्ट्र के गैर-राजनीतिक नौजवान, जिन्होंने कांग्रेस के खिलाफ भाजपा को वोट किया, उन्होंने मुझे एसएमएस करके बताया कि वे खाने-पीने, टीवी देखने, किताबें पढ़ने जैसे व्यक्तिगत मामलों में सरकारी हस्तक्षेप से निराश और दुखी हैं.
उन्होंने लिखा कि अब उन्हें इस बात से हैरानी नहीं होती है कि कांग्रेस ने क्यों इस देश पर साठ साल तक राज किया. कांग्रेस सरकार चाहे जितनी भी भ्रष्ट और सुस्त क्यों न हो, लेकिन उसने कभी भी लोगों के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप नहीं किया. कांग्रेस के शासन में अभिव्यक्तिकी पूरी स्वतंत्रता थी.
मुझे खुशी है कि अदालत ने कहा है कि विचारों की अभिव्यक्ति को लेकर राष्ट्रद्रोह का मामला नहीं बनता है. मिसाल के तौर पर अरून्धती रॉय, जिन्होंने कहा कि कश्मीर पाकिस्तान को दे देना चाहिए. ये ऐसे विचार हैं, जिनसे आप सहमत नहीं हो सकते, लेकिन यह राष्ट्रद्रोह नहीं है. आपके खिलाफ राष्ट्रद्रोह उस वक्त बनता है, जब आप कोई ऐसा काम करते हैं, जिससे देश की सुरक्षा को खतरा हो.
बदकिस्मती से इस सरकार में, पार्टी में और परिवार में (संघ परिवार में) सहनशक्ति की कमी है. वे छोटी-छोटी बातों पर उत्तेजित हो जाते हैं और अनुचित तरीके से प्रतिक्रिया देने लगते हैं. ये ऐसे मामले हैं, जिन्हें आप भले ही पसंद करें या नापसंद, लेकिन इसका असर बिहार के आम मतदाता पर पड़ा है.
एक पत्रकार, जो बिहार के अंदरूनी इलाके में गईं थीं, उन्होंने मुझे बताया कि वह कुंए से पानी भर रही बिहार की एक निरक्षर औरत की चतुराई और समझ देखकर हैरान रह गईं. मैं समझता हूं कि इन सभी बातों की झलक बिहार चुनाव के नतीजों में दिखाई दी. लालू जी ने कहा है कि वह अब दिल्ली की गद्दी पर हमला करेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें धीमी गति से आगे बढ़ना चाहिए.
बिहार सरकार को एक मिसाल पेश करनी चाहिए कि किस तरह एक लोकतांत्रिक सरकार काम करती है. नीतीश जी ने सही कहा कि वे बिहार के विपक्ष का सम्मान करेंगे. उस भाजपा के लिए उन्होंने ऐसा कहा, जिसने लोकसभा चुनाव के बाद लोकसभा के भीतर विपक्ष का सम्मान नहीं किया. बिहार विधानसभा में विपक्ष को उचित महत्व मिलना चाहिए. एक बार फिर, हम लोकतंत्र की जड़ों की तरफ चलते हैं.
लोकतंत्र के संस्थापकों लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जीवी मावलंकर, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, क़ानून मंत्री बी आर अंबेडकर ने ऐसे उदाहरण पेश किए कि किस तरह सभ्य भाषा का इस्तेमाल करते हुए अपने तथ्यों को जोरदार व असरदार तरीके से रखा जा सकता है. बदकिस्मती से आजकल ऐसा नहीं हो रहा है.
मुझे लगता है कि अभी भी देर नहीं हुई है. भाजपा सत्ता में है. उसे कांग्रेस के साथ बैठना चाहिए और सदन को द्विपक्षीय कार्यशील सदन बनाकर अपने बिल पास करवाने चाहिए. जाहिर है कि मतभेद तो बने ही रहेंगे. जिस तरह अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स के बीच होते हैं, जैसे ब्रिटेन में कंजर्वेटिव-लेबर पार्टी के बीच मतभेद होते हैं. उनके
बीच मतभेद होते हैं, लेकिन वे अपने आचरण का ख्याल रखते हैं. वे एक-दूसरे के खिलाफ गंदी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते. हमें आशा करनी चाहिए कि बिहार चुनाव के नतीजे देश में एक अच्छा राजनीतिक वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होंगे, जो कि नीतीश कुमार और लालू यादव की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी. हमें आशा करनी चाहिए कि आने वाले दिन हमेें सही राह दिखाएंगे. प