एक साहित्यकार थे गाजीपुर के जिनकी रचनायें ”टाइम्स” प्रकाशन समूह (मुम्बई) से ”सधन्यवाद अस्वीकृत” होकर लौट आतीं थीं। पत्रकारी अन्याय की यह इंतिहा थी। जब डा. धर्मवीर भारती की दृष्टि पड़ी तो खूब छपी। तब से विवेकी राय जी के कारण हिन्दी गद्य अमीर हो गया। मगर ऐसा ही एक वाकया हुआ, जो बड़ा पीड़ादायी था । ”टाइम्स आफ इंडिया” में संपादकीय पृष्ट के बीच के कालम में उन दिनों दिलचस्प, मगर लघुलेख, प्रकाशित होते थे। एक बार सरदार खुशवंत सिंह का लघुलेख छपा। इसमें एक वाक्य था : ”ट्रेन विलंब से आ रही थी।

अत: प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा करते, मैंने सिगरेट सुलगाई, धुआं छोड़ता रहा।” संपादक को विरोध पत्र आया। असली सरदार खुशवंत सिंह का। लिखा था : ”हम सिख सिगरेट नहीं पीते। यह फर्जी लेखक है।” तफ्तीश पर संपादक को सुघड़ जवाब मिला : ” मेरा यही लेख पांच बार आपके कार्यालय से सधन्यवाद अस्वीकृत होकर लौट आया था। इस बार बस लेखक का नाम तथा शीर्षक बदला और फिर भेज दिया। अब आपकी संपादकीय कोताही जग जाहिर हो गई।”

इसी सिलसिले में एक फिल्मी प्रकरण भी उल्लिखित हो जाये। सोहराब मोदी ने पृथ्वीराज कपूर से एकदा कहा था : ” अगर मुझे हिन्दी डायलाग बोलना और तुम्हारे चेहरे पर भाव और मुद्रा आ जाते तो हम दोनों महानतम एक्टर होते। कैसा सुखद संयोग होता!”

एक और ताजातरीन घटना। तमिलनाडु के गांव में किरमिच की गेंद से नंगे पैर या रबड़ के जूते पहने गांव के छोकरे क्रिकेट खेलते थे। नियति ने तय किया। भारतीय टीम के कुछ खिलाड़ी बीमार पड़ गये। इन छोरों को मौका मिला। महाबली आस्ट्रेलियाई टीम को उन्हीं के घर के मैदान में पछाड़कर वे भारत लौटे। यादगार लम्हें थे।

कल्पना कीजिये। यदि बापू त्रिपुरी अधिवेशन में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष मान लेते और पार्टी नेतृत्व सौंप देते तो अंग्रेज दस वर्ष पहले ही भारत से भाग जाते। मियां मोहम्मद अली जिन्ना का सुलतान बनने का सपना दफन हो जाता। और नेहरु इतिहास में बस फुटनोट बनकर रह जाते। वंशवादिता आज लोकतंत्र पर ग्रहण न बनती।

अर्थात छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद और टामस ग्रे ने उम्दा तथा दुरुस्त कहा कि नियति ही सर्वशक्तिमान है। वही गति और राह तय करती है। मोड़ को भी मोड़ सकती है।

अन्त में एक और घटना का उल्लेख हो। चौपाटी (मुम्बई) के बालू पर लेटा एक बेरोजगार युवक अन्यमनस्क भाव में खोया—खोया था। सोच में डूबता उतरा रहा था। अचानक भेलपुरी खाकर फेका गया अखबारी टुकड़ा सागर की लहरों से उपजी हवाई झोंकों से उड़ता हुआ उसके चेहरे पर आ गिरा। वह उसे पलटने लगा। एक हिस्सा पढ़ा। लिखा था: ” आवश्यकता है, एक कम्पनी में उपप्रबंधक की। इन्टर्व्यू हेतु आयें।”

पता और समय दिया था वह बेरोजगार युवक पहुंचा। अच्छा था उसका प्रस्तुतिकरण। चयनित हो गया। कुछ वर्षों बाद बंग्ला, गाड़ी आदि नसीब से मिले। मान लीजिये यदि उस दिन वह अखबारी विज्ञापन का टुकड़ा हवा के झोंके से किसी अन्य दिशा में उड़कर चला जाता तो? यहीं टामस ग्रे का मलाल दिखाता है। जो नहीं बदा है, वह नहीं होता है? यह क्रूरता है।

के. विक्रम राव

 

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