कभी कभी खुद को
दीवार में चुना पाती हूँ
चूने गारे से सुसज्जित
खूबसूरत ईश्वरीय कृति
बिल्कुल मुनरो की उस तस्वीर की तरह
जिसमें मादक तिरछी मुस्कान ने
हज़ारों ग़म छुपा लिए थे
लोग लगाते रहे कयास
उस जहां की सबसे खूबसूरत
रहस्यमयी मुस्कान का
उसमें जो बचपन का ज़हर था
अमृत बन होंठो से टपकता रहा
लोग डूबते गए इस अमृत में
और पीछे छूट गया अतीत का काला पन्ना
धँस गया मुनरो की छाती में
उसका अपना ही लहू
आज भी धँसा है
आज भी रंगीन शर्बत बरस रहा है होंठो से
मुनरो ….
देखो वो जो दीवार में धँसी है
वो तुम हो….
हसीन…मासूम….रहस्यमयी!
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