ब्रज श्रीवास्तव

|| टिप्पणी ||

आधी आबादी की चिंताएं, उलझनें, गुत्थियां, संघर्ष और मुक्ति के लिए समकालीन कविता में जो कवियत्रियां रेखांकित हो रही हैं, उनमें एक नाम मंदसौर की आरती तिवारी का भी है।वे बोलचाल के लहजे में स्त्री का आत्म सम्मान जगाने का काम आसानी से करतीं हैं और उनके विरूद्ध खड़ी रूढ़िवादिता को डपट भी देतीं हैं।

-ब्रज श्रीवास्तव

आरती तिवारी की कवितायेँ

|| वक्र रेखा/तिर्यक रेखा ||

समानान्तर रेखाओं के एक छोर से

दूसरे छोर की दूरी तय करते वक़्त

बिलकुल सही लग रही थी

हाँ उन्हें मिलाने वाली सी ही

एक सेतु की तरह

सरल रेखाओं ने नहीं जताई कोई प्रतिस्पर्धी इच्छा

कि तिरछी अटपटी चाल से भी

कभी चलकर दिखाएँ

मनवायें लोहा वक्रता का

ज़रूरत ही नहीं थी

वक्र होने अथवा दिखने की भी

समनान्तर चलते भी

जुड़ा ही हुआ था बहुत कुछ

अनबन और विचारधारा के टकराव के बावज़ूद

हवा पानी मिट्टी और आकाश सी सहज रही आईं

पारदर्शी तरल सरल रेखाएँ

मुग्ध करती रहीं अन्तस को

बिना शर्मसार किये तिर्यक रेखा को

|| कंजक 1 ||

बड़े घरों की बेटियाँ

रेशमी परिधानों की छटा बिखेर

जा चुकी हैं मुंह झूठा करके

और कुछ बच्चियां सिर्फ चख के

चली गईं

कुम्हलाए,बुझे चेहरो पर

उत्सव की गुलाल लिए

सेठों के बच्चों की उतरन

मटमैले रंगों के

सीवन उधड़े कपड़ों में

जो डोलती हैं दिन भर

इधर से उधर

ये मज़दूरों की छोरियाँ

लप लप खाये जा रही हैं खीर

और ऐसे कि कोई देख न ले

इनकी बन आई है इन दिनों

सप्तमी,अष्टमी नवमी

जीमेंगी भरपूर

करेंगी तृप्त पुण्यात्मा सेठानी को

ज्वारों में खिलती है

एक हरी किलकारी

इनमें भी वही है

हाँ वही तो

शक्तिरूपा ब्रम्ह्चारिण

|| कंजक 2 ||

वे जो पेट में मसले जाने से

चकमा देकर बच गईं

गर्भ में डटी रहीं

पूरी पक जाने तक

किलकारियाँ जो

की गईं नज़रअंदाज

बढ़ गईं बेहया के पौधे सी

 दुर्दुराई जाकर भी

ए,हट,चल,भग,निकल कहकर

धकियाई गईं और

लौटीं बार बार चुनौती सी

आ गए हैं फिर से

उनके मौसम

पूजी जायेंगी आलता कुमकुम

रोली अक्षत से

लगाएंगी भोग खीर पूरी के फिर से

||  हमारे डर ||

घर से निकलते ही

भीड़ में खो जाने के डर

अच्छे कपड़ों में

घूरे जाने के डर

सादे कपड़ों में

आम नज़र आने के डर

अव्वल आने पर

साथियों की ईर्ष्या के डर

औसत रहने पर

पिछड़ जाने के डर

प्रेम की अभिव्यक्ति पर

ठुकराये जाने के डर

उपभोक्तावाद के भी अपने डर हैं

ब्रांडेड माल से ठगे जाने के डर

सस्ते में घटिया उत्पाद के डर

दस्तावेजों के नकली पाये जाने के डर

 हमारे छरहरे डर

अब भीमकाय हो चले हैं

 डर करने लगे है

दबाव का विस्फ़ोट

बाढ़ और सूखे से

बाज़ार बैठ जाने का डर

मन्दी में,बेरोज़गार हो जाने के डर

 ज़रूरत है,एक मसीहा की

बदल डाले जो दुनिया

बना दे जन्नत

ऊगा के खुशियों की फसल

मिल जाये कोई जादुई चिराग

और पल भर में,हो जाएँ

सारे रास्ते आसान

मिट जाएँ हमारे डर

हम नही करते कोशिशें

बदलने की खुद को

और स्वयं को छलकर

डरते रहते है

 ||अनकहा अनसुना||

तुमने सुना,जो उसने कहा

वो सुना क्या? जो उसनेे कभी कहा ही नही

और वो ही सबसे ज़रूरी था

जो अनकहा था

और अनसुना ही रह गया

कल समय पूछेगा वे ही प्रश्न

जिनके उत्तर में तुम बगलें झाँकोगे

और कोई बारिश धो नही सकेगी

दामन के वे दाग

ठन्डे लहू से जम गए जो

मौसम मांगेंगे तुमसे हिसाब

और तुम कह नही पाओगे

खो गई डायरी

जिसमे दर्ज़ थे हिसाब

स्त्री अस्मिता

खड़ी हो जाती है जिस वक़्त

सारे प्रश्न अनुत्तरित रह जाते है

खौफ़ खाओ

कि तुम्हारे खौफ़ खाने का वक़्त है अब

आख़िर जीने के लिए चाहिए होगी

तुम्हे भी तो यही दुनिया

||अवसाद की कविता ||

वृष्टि रीसि

प्यास चातक

जीवन मरुस्थल

कितने अगम

मज़बूरियों के

इस धरा पर

उस सिरे तक

स्थगित करके उड़ानें

बाट जोहे,धवल कल की

कब खिलेंगे कमल मन के

स्वप्न मुझसे पूछते है

प्रतीक्षा के दीर्घ क्षण का

होगा कब सिग्नल हरा

|| निर्दोष प्रेम  ||

 मुट्ठी भर विश्वास लिये

समुन्दर भर छल से

जीतना आसान नहीं था

बस आँखों भर निर्दोष प्रेम था

जो बचा ले गया।

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