मैं उम्र के चौथे दशक में हूँ
एक रिक्ति है जो दीवारों से घिरती जाती है
अकेलापन भीतर की ओर ढहाता जाता है
प्लेटफार्म सी आँखें
इंतज़ार में हैं रेल के
जिससे मित्र आएगा
मन में मित्र को बुनते रहना
कितना श्रमसाध्य है!
खांचा बना कर हर मिली मूरत को
उसमें समायोजित करने की कठिन जद्दोजहद।
उम्मीद फाँसी के फंदे की तरह
आ लटकती हैं
चेहरे के ठीक सामने गले के बिल्कुल पास।
ज्यों ज्यों रिक्त गहरा होता है
और अँधेरा बढ़ता है
दीवारें पहले से ज्यादा अभेद्य हो जाती हैं
ख़्वाबों में विपदाएं पीछा करती हैं
क़लम किताब से अलग खड़ी
मैं व्यक्ति ढूँढ़ती हूँ
कुछ सफेद नीले चेहरे, रंग पुते
सामने विचित्र मुद्राओं में खड़े
मित्र की तलाश !
जो बैठे थामे हाथ सुने घंटों,
तोड़े चुप्पी, साथ हँसे साथ रोए
जो निर्णय नहीं दे सलाह भी नहीं
पर समझ सकने का हुनर रखता हो
इससे पहले कि उन दीवारों के भीतर
अवसाद की कंटीली झाड़ियां उग आएं,
साँपों की नस्लें फुफकारें,
विष के चढ़ने से ठीक पहले
मुझे ढहानी होंगी दीवारें,
वे अभेद्य क़िले,
भरना होगा उस रिक्त को
कविता से
या फूलों की खेती से।
— अनामिका अनु