उत्तर प्रदेश के चुनाव हो रहे हैं. एक अंतिम चरण, यानी सातवें चरण का चुनाव बाकी रह गया है. परिणाम 11 मार्च को आएगा, तभी ये पता चलेगा कि कौन जीता, कौन हारा. लेकिन हर कोई ये देख रहा है कि यूपी में प्रधानमंत्री किस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे है? भाषा का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है. दो कारणों से यह दुखद है. एक तो ये कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं. यदि वे अपनी पार्टी के लिए प्रचार करने जाते हैं, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री पद और कार्यालय की गरिमा को अवश्य बरकरार रखना चाहिए. उन्हें केवल अपनी पार्टी के लिए ही नहीं बोलना चाहिए.
एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि बेशक उन्हें उनके सूत्र और खु़िफया विभाग ये बताते होंगे कि उनकी पार्टी राज्य में बहुत अच्छा नहीं कर रही है, इसलिए चुनाव जीतने के लिए वे कुछ ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हों. हालांकि उनका पिछला बयान, जो उन्होंने हिंदू वोटरों को खुश करने के लिए दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि जब कब्रिस्तान के लिए ज़मीन आवंटित होती है, तो श्मशान के लिए भी होनी चाहिए.
लेकिन विडंबना यह है कि द़फन करने के लिए कब्रिस्तान को ज्यादा जमीन चाहिए, जबकि श्मशान में मृतकों को जलाया जाता है, इसलिए उसके लिए बहुत कम जगह की जरूरत होती है. इसलिए इस बयान के पीछे के तर्क को नहीं समझा जा सकता है, सिवाए इसके कि वे ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि वे प्रो-मुस्लिम नहीं हैं, प्रो-हिदू हैं और दोनों के लिए समान अवसर चाहते हैं. फिर भी, यह मुद्दा इतना छोटा है, जिसे देश के प्रधानमंत्री को उठाने की जरूरत नहीं थी.
इसी तरह, असफल हो चुके नोटबन्दी के बाद आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास कहते हैं कि अभी भी उतने ही नोट निकालें जितना चाहिए. इसका मतलब है कि लोग अपनी आवश्यकता से अधिक पैसा निकाल रहे हैं. यह कैशलेस और लेसकैश इकॉनोमी बनाने में उनका प्रयास है. ये एक बेकार का विचार है, स्टुपिड आइडिया है. भारत जैसे देश में 97 फीसदी लेनदेन नगद में होता है. लेनदेन की संख्या के लिहाज़ से, राशि के लिहाज़ से नहीं. ज़ाहिर सी बात है, बड़ी राशि का लेनदेन बैंकों के चैनल के जरिए ही होता है.
यह देश कैश के इस्तेमाल का इतना आदि है कि पहले तो इस आदत को बदलने की ज़रुरत ही नहीं है, लेकिन अगर बदलना ही है, तो इसके लिए 10 साल 15 साल 20 साल का समय लगेगा. पहले नोट बंद करना फिर कार्ड का इतेमाल लोगों के सर ज़बरदस्ती मढ़ना बहुत ही मूर्खतापूर्ण विचार है. राजनेता वोट हासिल करने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन यदि सचिव स्तर के अधिकारी इस तरह का बयान देने लगे, तो ये दिखाता है कि उच्चतर स्तर का प्रशासनिक सेटअप कमजोर हुआ है.
जब एटीएम से भी नकली पैसे निकलने लगें, तो सिस्टम की दुर्दशा का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है? ये संकेत ठीक नहीं हैं. ईमानदारी से प्रधानमंत्री को स्वीकार करना चाहिए कि नोटबंदी के फैसले ने काम नहीं किया, यानी ये असफल रहा. उन्हें देश के उन कामों में लगना चाहिए, जिसके लिए देश ने उन्हें चुना है. बहरहाल, 11 मार्च तक ये सब चलता रहेगा. अगर यूपी में बीजेपी ठीक ठाक प्रदर्शन करती है, तो हमारे सामने दो साल तक मुश्किल समय रहेगा.
यदि बीजेपी को मतदाता निराश करते हैं, तो फिर उनको कुछ सदबुद्धि आएगी (हालांकि इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कभी कभी नेताओं का व्यवहार प्रतिकूल भी होता है). अगर वे 11 मार्च को अच्छा नहीं करते, तो उन्हें 2019 जीतने के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए. तो सवाल यह है कि विपक्ष को क्या पहल करनी चाहिए. उन्हें एकजुट होना पड़ेगा, बीजेपी को आमने सामने की लड़ाई में मात देने के लिए. लेकिन ये बातें भी 11 मार्च के बाद होनी चाहिए, अभी ऐसा करना बहुत जल्दबाजी होगी.
दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी में पिता-पुत्र और चाचा के बीच रस्साकशी के बाद आखिरकार साइकल चुनाव चिन्ह अखिलेश यादव को मिला. यह बहुत दुखद है कि चुनाव आयोग के समक्ष मुलायम सिंह ने पार्टी पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए अपनी तरफ से गंभीर प्रयास नहीं किए. यह लोगों को पता चल गया कि वे अपने पुत्र के लिए कोई परेशानी नहीं पैदा करना चाहते थे. अब अमर सिंह, जो समाजवादी पार्टी में बहुत अन्दर तक घुसे रहे है, ने कहा है कि इस ड्रामे की पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.
हालांकि इसमें बहुत सारी भ्रांतियां हैं. लेकिन तथ्य ये है कि समाजवादी पार्टी एकजुट हो कर चुनाव लड़ रही है, चाहे परिणाम जो हो. मैंने पहले भी कहा है कि हमें 11 मार्च तक इंतजार करना चाहिए. देश हित के लिए आशा करनी करनी चाहिए. नतीजे ऐसे हों जो आने वाले दिनों में सरकार को सार्थक कदम उठाने पर मजबूर कर दें. देखते हैं क्या होता है?