मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सरकार के लोग यह दावा करते नहीं थकते हैं कि मध्यप्रदेश तरक्की की राह पर चलते हुए बीमारू राज्य के तमगे को काफी पीछे छोड़ चुका है. स्वर्णिम मध्यप्रदेश के दावों, विकास दर के आंकड़ों, सबसे ज्यादा कृषि कर्मण अवार्ड के मेडल और बेहिसाब विज्ञापन के सहारे ये माहौल बनाने की कोशिश की जाती है कि मध्यप्रदेश ने बड़ी तेजी से तरक्की की है. यहां तक कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार आनंद मंत्रालय खोलने वाली पहली सरकार भी बन चुकी है.
किसान आत्महत्या
शिवराजसिंह चौहान दावा करना नहीं भूलते कि उनकी सरकार ने खेती को फायदे का धंधा बना दिया है और इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार लगातार पांच वर्षों से कृषि कर्मण का मेडल हासिल करती आ रही है. लेकिन राज्य में किसानों के आत्महत्याओं के आंकड़े परेशान करने वाले हैं. इस साल मार्च में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा लोकसभा में जो जानकारी दी गयी है, उसके अनुसार 2013 के बाद से मध्यप्रदेश में लगातार किसानों की खुदकुशी के मामले बढ़े हैं, साल 2013 में 1090, 2014 में 1198, 2015 में 1290 और 2016 में 1321 किसानों ने आत्महत्या की है.
शिशु मृत्य दर
आज भी मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है. इसके लिए तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश लम्बे समय से बदनामी का दंश झेल रहा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 (2015-16) के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और ताजा स्थिति ये है कि वर्तमान में मध्यप्रदेश में कुपोषण की वजहों से हर रोज अपनी जान गंवाने वाले बच्चों की औसत संख्या 92 हो गई है, जबकि 2016 में यह आंकड़ा 74 ही था.
अशिक्षा
शिक्षा की बात करें तो पिछले साल के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्यप्रदेश में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से चार प्रतिशत कम है और सूबे की चालीस प्रतिशत महिलाएं तो अब भी असाक्षर हैं. 2017 के आखिरी महीनों में जारी की गई आरटीई पर कैग की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्कूल छोड़ने के मामले में मध्य प्रदेश का देश में चौथा स्थान है. रिपोर्ट में बताया गया है कि सत्र 2013 से 2016 के बीच स्कूलों में बच्चों के दाखिले में सात से दस लाख की गिरावट पाई गई है. इसी तरह से प्रदेश के सरकारी स्कूलों में में करीब 30 हजार शिक्षकों के पद खाली हैं, जिसका असर बच्चों की शिक्षा पर देखने को मिल रहा है और यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बड़ी तेजी से घट रही है.
कुपोषण
मध्यप्रदेश में कुपोषण से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में श्योपुर (55 प्रतिशत), बड़वानी (55 प्रतिशत), (52.7 प्रतिशत), मुरैना (52.2 प्रतिशत) और गुना में (51.2 प्रतिशत) जैसे आदिवासी बहुल जिले शामिल हैं. गरीबी इसका मूल कारण है, जिसकी वजह से उनके आहार में पोषक तत्व नहीं के बराबर होता है. आंकड़ों की बात करें तो भारत सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट ऑफ द हाई लेवल कमिटी ऑन सोशियो इकोनॉमिक, हेल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्युनिटी 2014 के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है, जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है, वहीं प्रदेश में यह दर 175 है.
मानव विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में सूबे की यह बदरंग तस्वीर बताती है कि स्वर्णिम मध्यप्रदेश के दावे कितने हवा-हवाई हैं. इन सब के बीच बेशर्मी का आलम ये है कि शिवराजसिंह की सरकार खुद अपने विज्ञापन पर पानी की तरह पैसा बहा रही है.