santosh bhartiyaपहले हमारे देश में वैचारिक मंथन बहुत होता था, जिसे शास्त्रार्थ का नाम दिया गया. दो परस्पर विचाराधाराएं आमने-सामने आती थीं. वहां तलवारें नहीं उठतीं थीं, वहां बहिष्कार नहीं होता था. वहां बात होती थी और अपने-अपने तर्कों को बहुत विद्वत्ता के साथ, लोगों को गवाह बनाकर, रखा जाता था. बाद में वो वैचारिक बहस कहलाई, जिसमें अम्बेडकर, लोहिया, नेहरू, दीनदयाल उपाध्याय जैसे नाम सामने आए. किशन पटनायक, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज इस वैचारिक बहस के बडे नाम हैं. लेकिन इनके बाद वैचारिक बहसें समाप्त हो गईं.

बहस आस्था के नाम पर होने लगी. बहस राष्ट्र को आगे बढ़ाती है, लोगों के दिमाग को समृद्ध करती है. क्या ये संभव है कि वैचारिक बहस नए सिरे से शुरू हो सके. मैं ऐसे ही कुछ ज्वलंत मुद्दे आपके विचार और बहस के लिए रख रहा हूं. आप उसमें शरीक हों और अपने विचार हमारे पास भेजें. हम उन्हें ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित करेंगे.

हमने श्री मधु लिमये के जन्मदिन पर ‘आरएसएस क्या है’ शीर्षक से उनका प्रसिद्ध लेख छापा. उसके अगले अंक में हमने ‘आरएसएस क्या है’, सवाल का संघ विचारक राकेश सिन्हा द्वारा दिया गया जवाब छापा. ये दोनों लेख सारे देश में बहुत चर्चित हुए. अब मैं चाहता हूं कि एक नई वैचारिक बहस की शुरुआत हो. अगर ये हो सका तो मैं मानूंगा की लोगों में वैचारिक वाद-विवाद का होना, हिंसक द्वंद्व से ज्यादा बेहतर है. हिंसा के द्वंद्व में विद्वान भी मरता है. हिंसा के द्वंद्व में गरीब भी मरता है.

गोडसे को लगा कि गांधी राष्ट्रभक्त नहीं हैं. गोडसे को ये भी लगा कि मैं ज्यादा राष्ट्रभक्त हूं. तो गोडसे ने गांधी को गोली से उड़ा दिया. ये है इनका राष्ट्रभक्ति पर फैसला करने का तरीका और ये है इनकी समझ. इसी समझ और तरीके से दूसरों की राष्ट्रभक्ति पर फैसला करने वाले लोग न्यायाधीश बने घूमते हैं. ये मूर्खता ही हिन्दुत्व की राजनीति का आधार है.

जिस राष्ट्र की ये भक्ति करते हैं, इनके उस राष्ट्र में देश की जनता नहीं है. इनके सपने के राष्ट्र में आदिवासी नहीं हैं, दलित नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं. इनका राष्ट्र, कल्पना का राष्ट्र है, सचमुच का देश नहीं. इनसे कभी पूछिए कि आप मुसलमानों को इतनी गाली क्यों देते हैं, अगर आपके मन की कर दी जाए तो आप मुसलमानों के साथ क्या करेंगेे?

क्योंकि आप भारत से मुसलमानों के सफाई के नाम पर हजार दो हजार को ही मार पाते हो. भारत में तो करीब 20 करोड़ मुसलमान हैं. क्या करोगे इनके साथ? क्या आप सबको मारना चाहते हैं या सबको हिन्दु बनाना चाहते हैं या सबको भारत से भगाना चाहते हैं? क्यों नफरत करते हैं इनसे? करना क्या चाहते हैं? ये पूछे जाने पर संघी बगलें झांकने लगते हैं.

मेरे एक दोस्त ने एक बार एक संघी नेता से पूछा कि आप फिर से अखंड भारत बनाने की बात संघ की शाखा में करते हैं. अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान इन सबको मिलाकर अखंड भारत बनाना है, लेकिन ये सभी देश तो मुस्लिम बहुल हैं. अगर इन्हें भारत में मिलाया गया तो भारत में मुसलमान बहुमत में आ जाएंगे. अगर हम इन्हें हिन्दू बनाना चाहते हैं, तो इतनी बड़ी आबादी को हम थोड़े से हिन्दू कैसे बदल पाएंगे? इस पर ये संघी नेता आएं-बाएं करने लगे और कोई जवाब नहीं दे पाए. आरएसएस की कोई समझ नहीं है. ये मूर्खों और कट्‌टरपंथियों का जमावड़ा है. इनका काम बीजेपी के लिए वोट बटोरने और हिन्दू युवकों के मन में जहर भरते रहने का है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जितना नुकसान भारत का किया है, उतना विदेशी शत्रु भी नहीं कर पाए. भारत के युवा तब तक खुले दिमाग और खुली समझ वाले नहीं बनेंगे, जब तक युवा देश की सांप्रदायिक और आर्थिक लूट की समस्या को हल नहीं करेंगे. ये सांप्रदायिक जोंक भारत का खून ऐसे ही पीते रहेंगे.

हजारों साल से जिन लोगों ने इस भू-भाग के मूल निवासियों को दानव कहकर मारा, उन्हें हीन काम करने पर मजबूर किया, उन्हें शूद्र कहा और उनकी जमीन ली, यहां के 80 प्रतिशत शूद्र को जिन लोगों ने बेजमीन बना दिया, वे फिर हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर जमीनें हथियाने निकले हैं. पिछली बार इन्होंने इसे धर्म-युद्ध कहा था. इस बार इसे धर्म रक्षा कह रहे हैं. इन्हें ही पता चलता है कि राम कहां पर पैदा हुए. ये भी कि जो बाबर की मस्जिद है, उसी के नीचे पैदा हुए थे. औरतों की बराबरी, जाति का सवाल, आर्थिक असमानता, ऐसे सवालों को ये लोग चीनी माओवादियों का षड्‌यंत्र बताते हैं. बड़ी होशियारी से ये असली मुद्दों से ध्यान भटकाते हैं. जैसे ही लोग असली मुद्दों पर सवाल उठाते हैं, ये तुरंत दंगा करवा देते हैं.

ऐसे तमाम लोग डरते हैं कि हजारों साल से बहुत जतन और तिकड़म कर के जो सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सत्ता हाथ में आई थी, वो कहीं निकल न जाए. इनसे देश को मुक्त कराए बिना भारत में अमन-चैन कैसे आएगा! देश से मोहब्बत करने वालों को, सांप्रदायिकतावाद करने वाले इन गिरोहों से देश को मुक्त करवाने की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी. हम ये समझ नहीं पाते कि जैसे ही सत्ता आती है, वैसे ही अत्याचार करने वालों का या लोगों को परेशान करने वाले ग्रुप का हौसला कैसे बढ़ जाता है.

लोगों की परेशानी खत्म ही नहीं होती. समाजवादी पार्टी जब उत्तर प्रदेश में राज कर रही थी, तब कहा जाता था कि पुलिस थाना समाजवादी पार्टी का कार्यालय बन गया है और यही प्रचार भारतीय जनता पार्टी का मुख्य आधार रहा. जनता ने समाजवादी पार्टी की जगह भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंप दी. लेकिन उत्तर प्रदेश में लोगों को तो छोड़ दें, पुलिस को परेशान करने का तरीका भी नहीं बदला. ऐसे बहुत सारे वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, जिनमें लोग पुलिस वालों को पीटते हुए दिखाई दे रहे हैं. थाने पर कब्जा करते दिखाई दे रहे हैं.

यहां तक कि सहारनपुर के एसएसपी के घर को भी अपने कब्जे में लेकर तांडव करते हुए दिखाई दे रहे हैं. क्या हम ये मानें कि राजनीति के ऊपर दबंगई और गुंडई की मानसिकता हावी हो गई है. लोगों की परेशानियों को दूर करने का रास्ता कहीं बहुत पीछे छूट गया है. बिहार में पुलिस इतनी निरंकुश और बेशर्म हो गई है कि वहां एसएसपी के पूछने पर एसएचओ बेशर्मी से कह देता है कि नौ लाख लीटर शराब चूहे पी गए. दूसरा एसएचओ बेशर्मी से कह देता है कि ट्रांसफॉर्मर गंगा में गिर गया और उसे मछलियों ने खा लिया और बिहार की सरकार इस बात को स्वीकार लेती है. ये सवाल नीतीश कुमार से है कि क्या आपको नहीं लगता कि ये सारे तर्क आपकी साख को समाप्त करने की दिशा का निर्माण कर रहे हैं.

नीतीश कुमार का किसी अपराधी ग्रुप से या अधिकारियों के उस ग्रुप से सम्बंध नहीं है, जो प्रशासन को बर्बाद करना चाहते हैं. लेकिन नीतीश कुमार की धमक या उनकी साख अचानक कमजोर पड़ने लगी है. इस तरह की खबरें आ रही हैं कि हरियाणा से शराब की ट्रकें चलती हैं और बिना रोक-टोक बिहार की सीमा में पहुंच जाती हैं. अगर बिहार में शराब खरीदनी हो, तो बिहार के बहुत सारे पुलिस थाने इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं. क्या हम ये मानें कि ब्लैक में शराब लेने का एक नया केन्द्र बन गया है. मुझे विश्वास नहीं होता, लेकिन ऐसे लोग मेरे दाएं-बाएं हैं जो ये कह रहे हैं कि आप कहें तो हम आपको वीडियो बनाकर दे दें, आप कहें तो हम आपको बातचीत रिकॉर्ड करके दे दें.

सवाल सिर्फ ये है कि न योगी आदित्यनाथ के ऊपर सवाल है, न नीतीश कुमार के ऊपर सवाल है. सवाल व्यवस्था के उस काले चेहरे का है, जो चेहरा उज्ज्वल चेहरों को बहुत जल्दी मलीन करने की कोशिश करता है और लोगों के मन में ये अविश्वास पैदा करता है कि जिन्हें उन्होंने बड़ी अपेक्षा के साथ वोट दिया था, वे भी उनकी अपेक्षा को पूरा करने में असमर्थ साबित हो रहे हैं. अब या तो कोई नीतीश कुमार या योगी आदित्यनाथ को इन घटनाओं के बारे में बताता नहीं या उनके आसपास भी एक ऐसा साया है, जो उनके पास सही खबरें पहुंचने नहीं देता.

लेकिन ये कैसे माना जाए कि योगी आदित्यनाथ या नीतीश कुमार टीवी नहीं देखते या अखबार नहीं पढ़ते और उन खबरों को देखकर या पढ़कर सच्चाई नहीं निकाल पाते. अपेक्षा करनी चाहिए कि देश में वैचारिक बहस की शुरुआत होगी. ये भी अपेक्षा करनी चाहिए कि उत्तर भारत के दो प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री,  योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार अपनी समझ के दरवाजे खोलकर, अपनी साख को पराभव के रास्ते से वापस लाकर, नई साख बनाने के रास्ते पर ले जाएंगे. आशा तो करनी ही चाहिए.

 

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