वाममोर्चे ने बंगाल में भले ज़मीन खो दी हो, पर क्या किसी ने इस पर ध्यान दिया था? कांग्रेस ने 1962 और 1967 में हक़ीक़त को महसूस नहीं किया और क्या कुछ देर पहले तक किसी ने इसकी दूसरी व्याख्या की थी़
वर्ष 1962 में वामपंथी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से ग़लत थे. वजह यह कि उसी साल अक्तूबर में हुए त्रासद युद्ध में चीन के आक्रामक रवैए की उन्होंने निंदा नहीं की थी. ज्योति बसु ने अपने कॉमरेडों के साथ कुछ महीने जेल में भी काटे थे. पार्टी ने आंतरिक तौर पर अपनी ग़लती को सुधारा. चीन समर्थक अतिवादी अपने ढंग से क्रांति करने के लिए पार्टी से अलग हो गए. नक्सलियों (यह नाम उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबारी के कारण हुआ) ने माओत्से तुंग को अपना भी चेयरमैन घोषित कर दिया. यह अलग बात है कि  माओ इस बात से ख़ुश थे या नहीं, कह नहीं सकते.
वामपंथी आधिकारिक तौर पर टूट चुके थे. टूटा हुआ धड़ा सीपीआई(एम) अधिक संतुलित था. यह कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट की स्वतंत्रता बाद की यह पीढ़ी के मनमाफिक रेडिकल  था और उनके नौकरीपेशा अभिभावकों के लिए उनकी नौकरी ख़त्म करने पर तुले नक्सलियों की तुलना में अहिंसक भी. वैसे भी, भारत में समस्या सुलझाने का अनूठा तरीक़ा यही है कि समस्या की ओर से पीठ मोड़कर खड़े हो जाएं.
कांग्रेस भी ऐसी उठापटक से अछूती नहीं थी. प्रणव मुखर्जी को वह समय याद होगा. वह उन्हीं अजोय मुखर्जी के मुख्य सहयोगी थे, जिन्होंने बंगाल कांग्रेस को तोड़ा और फिर बांग्ला कांग्रेस के मुखिया के तौर पर 1967 के चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री बने. ज्योति बसु उस समय उप-मुख्यमंत्री थे और पहली बार कोलकाता की स्ट्रीट लाइट्‌स को लाल कागज में लपेटा गया ताकि लाल के उगते सूरज का जश्न मनाया जा सके.
इस गठबंधन का बने रहना असंभव था क्योंकि उस समय तक विचारधाराएं जीवित थीं. गठबंधन-राजनीति की अस्थिरता ने 1971 में कांंग्रेस की सत्ता में वापसी करा दी. जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के दो फाड़ कर दिए तो प्रणव मुखर्जी बड़ी कलाबाज़ी खाकर केंद्र में आ गए.
1964 में हुए कोलकाता दंगे, सत्ता के खेल को पलटने वाली सबसे बड़ी घटना थी. यह दंगे पूर्वी बंगाल में हो रही हिंसा और कोलकाता की मीडिया में हुई कुछ भड़काऊ रिपोर्टिंग की वजह से हुए थे. यह अ़क्सर भुला दिया जाता है, कि बंगाल एक विभाजित प्रांत है. सीपीआई (एम) ने इन दंगों में मुस्लिमों की रक्षा करके उनका भरोसा जीत लिया. बिमान बोस, वर्तमान सीपीआई(एम) सचिव, उन युवकों में से थे जो मौलाली स्ट्रीट के कोने में खड़े होकर दंगाइयों और हत्यारों को मार्क्सवादियों की खींची लकीर पार करने की चुनौती दे रहे थे. चार दशकों से भी पुराना यह रिश्ता आख़िरकार 2009 में ख़त्म हो गया जब मुस्लिमों ने सीपीआई(एम) का साथ छोड़ दिया.
वाम का उदय उस हंगामें और अराजकता के बीच हुआ जिसने तत्कालीन बंगाल को घेर रखा था. अब, जब इसका अस्त हो रहा है, क्या उसकी जगह फिर से हिंसा लेगी? 1960 के समय की परिस्थितियों की पुनरावृत्ति होते देखना बड़ा रोचक है. माओवादी फिर वापस आ गए हैं. इस बार उनके साथ दीवारों पर लिखे माओ के नारे और शहरी आतंकवाद नहीं है लेकिन वे पहले से ज़्यादा व्यवस्थित हैं. मिदनापुर में तीर-धनुष लेकर खड़े पुरुषों और महिलाओं के दृश्य साठ और सत्तर के शुरुआती सालों की याद ताज़ा करते हैं. इससे यह भी साबित होता है कि हमारी एक बड़ी आबादी अभी भी तीर-धनुष के युग में जी रही है.
लालगढ़ के लिए हो रही लड़ाई के शाब्दिक और सांकेतिक अर्थ दोनों हैं. हालांकि यह कभी स्वीकार नहीं किया गया, लेकिन सच तो यह है कि नक्सलियों के ख़िला़फ 1967 से 73 के बीच चली पहली लड़ाई में कांग्रेस और सीपीआई (एम) ने एक दूसरे से सहयोग किया था, इस बार भी उन्हें ऐसा ही करना पड़ रहा है.
हालांकि, उनकी राजनीतिक रणनीतियां अलग-अलग थीं. जहां, कांग्रेस ने नक्सलियों के ख़िला़फ राज्य की ताक़त के इस्तेमाल को ही अपना कर्तव्य मान लिया, वहीं सीपीआई(एम) ने भूमि सुधार के ज़रिए नक्सलियों को राजनीतिक स्वीकार्यता दी. यह अफसोस की बात है कि आज कोई इसकी बुनियाद रखने वाले हरिकिशन कोनार और प्रमोद दासगुप्ता को याद नहीं करता. जहां, उन्होंने काश्तकारों को खाद्य सुरक्षा दी, वहीं ज्योति बसु ने गृह मंत्री और मुख्यमंत्री के तौर पर जीवन सुरक्षा की परिस्थिति दी. नंदीग्राम इसकी समाप्ति का महत्वपूर्ण संकेत है, जहां एक वामपंथी सरकार ने काश्तकारों की ज़मीन छीन ली और फिर विरोध करने वालों पर हमला कर दिया.
राजनीतिक परिस्थितियां और प्रकृति एक शून्य की ओर इशारा करती हैं. सीपीआई(एम) के पीछे हटने से बना ख़ालीपन भरा हुआ दिख रहा है, जो वोट करने वाले हैं वे तृणमूल की तऱफ जा रहे हैं और ग्रामीण इलाक़ों में जो वोट नहीं करते वे माओवादियों की ओर जा रहे हैं. पहली तरह के लोगों की संख्या ज़्यादा है, लेकिन पाला बदलना अवसरों पर निर्भर करता है. साहस और स्थिरता ममता बनर्जी को राइटर्स बिल्डिंग के शिखर तक ले जाएंगे, लेकिन वहां बने रहने के लिए महज़ इनसे काम नहीं चलेगा. किसान और काश्तकार, जिन्हें कोनार ने कभी पोषित किया था, अब संपन्नता के अगले स्तर पर पहुंचना चाहते हैं. नई पीढ़ी के साथ आई नई आशाओं के पूरा करने के लिए कृषि और उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था में विकास की ज़रूरत है. ममता बनर्जी को इस तरह की एक सरकार के लिए तैयारी करने को एक साल का समय मिलेगा, जो थकेहुए चेहरों के घालमेल से बेहतर हो. 1960 में खेल को पलटने वाले कोलकाता दंगों को भूलना बेवकूफी होगी. हिंसा एक संक्रामक महामारी है, और ज़मीन से जुड़ी समस्याओं में हमेशा एक ख़तरा छुपा होता है. बंगाली लोग ख़ुद को असांप्रदायिक मानते हैं. दरअसल कुछ पलों के पागलपन को छोड़कर, जब सभ्य दिमाग़ बिखर जाता है, कोई सांप्रदायिक नहीं होता.
बंगाल का यह नाटकीय खेल ज़ोरदार भाषण दे रहे अभिनेताओं से भरा है. हमें जल्द ही इसके लिए एक उपयुक्त कहानी ढूंढने की ज़रूरत है.

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